Indian Constitution Preamble से Secular और Socialist शब्द हटाने की माँग पर 25 नवंबर को फैसला सुनायेगा Supreme Court

Supreme Court
ANI

हम आपको याद दिला दें कि उच्चतम न्यायालय ने 21 अक्टूबर को कहा था कि धर्मनिरपेक्षता को सदैव भारतीय संविधान के मूल ढांचे का अभिन्न अंग माना गया है तथा ‘‘समाजवादी’’ और ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ शब्दों को पश्चिमी अवधारणा की तरह नहीं माना जाना चाहिए।

उच्चतम न्यायालय ने आज कहा कि संविधान की प्रस्तावना में ‘‘समाजवादी’’, ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ और ‘‘अखंडता’’ जैसे शब्द जोड़ने वाले 1976 के संशोधन की न्यायिक समीक्षा की गयी है। हम आपको बता दें कि प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय, पूर्व राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी, अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन और अन्य की उन याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया, जिनमें संविधान की प्रस्तावना में ‘‘समाजवादी’’ और ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ शब्दों को शामिल किए जाने को चुनौती दी गई थी। पीठ ने कहा कि वह इस मुद्दे पर 25 नवंबर को अपना आदेश सुनाएगी। उल्लेखनीय है कि ‘‘समाजवादी’’, ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ और ‘‘अखंडता’’ शब्दों को 1976 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा पेश किए गए 42वें संविधान संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया था। संशोधन के जरिये प्रस्तावना में भारत के वर्णन को ‘‘संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य’’ से बदलकर ‘‘संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य’’ किया गया था। हम आपको याद दिला दें कि भारत में आपातकाल की घोषणा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक की थी।

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सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि वह ‘‘समाजवाद’’ और ‘‘धर्मनिरपेक्षता’’ की अवधारणाओं के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन प्रस्तावना में इन्हें शामिल किये जाने का विरोध करते हैं। अश्विनी उपाध्याय ने न्यायालय से अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल के विचार सुनने का आग्रह करते हुए दलील दी कि 42वें संशोधन को राज्यों द्वारा अनुमोदित नहीं किया गया। हम आपको याद दिला दें कि उच्चतम न्यायालय ने 21 अक्टूबर को कहा था कि धर्मनिरपेक्षता को सदैव भारतीय संविधान के मूल ढांचे का अभिन्न अंग माना गया है तथा ‘‘समाजवादी’’ और ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ शब्दों को पश्चिमी अवधारणा की तरह नहीं माना जाना चाहिए। इससे पहले, नौ फरवरी को शीर्ष अदालत ने पूछा था कि क्या संविधान की प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है, जबकि इसकी स्वीकृति की तिथि 26 नवंबर, 1949 को बरकरार रखा जा सकता है। इससे पहले सितंबर, 2022 में शीर्ष अदालत ने इस संबंध में दायर कई याचिकाओं को साथ में सुनवाई के लिए संबद्ध किया था।

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