मेंढ़कलाल की फुदकियाँ (व्यंग्य)

neta
Prabhasakshi

पिछले कुछ दिनों से देशभर के मोहल्लों में आपके कानफाड़ू भोंपुओं की कृपा से हमारे कान केवल आपको ही सुन पा रहे है। यही वह समय होता है जब जनता अपना मुँह और मेंढ़कलाल जैसे नेता अपने कान से दिव्यांग हो जाते हैं।

हे मेंढ़कलाल! आपकी फुदकियों को शत-शत प्रणाम।

पिछले कई वर्षों से पाँच का पहाड़ा पढ़कर पाँच, दस, पंद्रह वर्ष के अंत में हमारे यहाँ दर्शन दे जाते हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि आप इकलौते ऐसे मेंढ़क हैं जो बिना नागा गर्मी के मौसम में फुदकने का करतब बड़ी लगन से दिखाते हैं। कुछ दिन पहले जनता का सैलाब देखकर आपका छपछपाना बड़ा मज़ा दे गया। हम आपको पाँच साल तक गरियाते रहे, लेकिन आप थे कि बेशर्मों की तरह बत्तीसी खिखियाते हुए एयर इंडिया के महाराज की तरह सिर झुकाए हमारा आदर कर रहे थे। आपसे जो भी शिकायतें थीं वे सारी की सारी ऐसे फुर्र हुई जैसे देर से आई सजनी का चुम्मा पाकर सजना का गुस्सा। आप जब भी आते हैं कोई न कोई पैकेज का पैकेट ऐसे लुटाते हैं जैसे कुत्तों के बीच बिस्कुट। बस फर्क इतना है कि नकली कुत्तों को असली बिस्कुट मिलते हैं और असली कुत्तों को नकली। असली कुत्तों को नकली बनाने और खुद असली कुत्ते बनने के लिए जनता हमेशा अपने-अपने मेंढ़कलाल ढूँढ़ ही लेती है। 

पिछले कुछ दिनों से देशभर के मोहल्लों में आपके कानफाड़ू भोंपुओं की कृपा से हमारे कान केवल आपको ही सुन पा रहे है। यही वह समय होता है जब जनता अपना मुँह और मेंढ़कलाल जैसे नेता अपने कान से दिव्यांग हो जाते हैं। यह दिव्यांगपन आगे चलकर हम जैसों पर शासन करने की चमत्कारिक शक्ति प्रदान करता है। आपके चुनावी वादों का कागजी रिम इतना भारी भरकम था जिसके डुबोने से समुद्र का पानी खाली हो जाता है। आपके नाम वाले बटन पर हमारी तर्जनी अंगुली की नीली स्याही उफान मारने में कोई कोताही न बरते इसके लिए हमारे बदन को मधुशाला का समुंदर बना डाला, जिसमें डूब तो सकते हैं, किंतु जी नहीं सकते।

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हमने देखा कि जिस मेंढ़कलाल के पास खुद की खुजली खुजलाने भर की फर्सत नहीं थी, वे पिछले कई दिनों से हमें नहलाने, पोंछने, खिलाने, पिलाने और यहाँ तक कि हमारे सामने कत्थक करने के लिए भी उतारू हो गए। इतने उतारूपन को देखते हुए एक बार के लिए लगा कि क्यों न हम आपके मुँह पर थूक दें, लेकिन हमें हमारा वोटर धर्म याद आ गया। हम चाहकर भी यह नहीं कर सकते थे। बकरा केवल कसाई बदल सकता है, मौत नहीं। जब हमने आपके मेनिफेस्टो पर नजर डाली तो लगा कि आपने तो पृथ्वी ग्रह पर सारे ग्रह उतार डाले हों। कभी लगा ही नहीं कि आप धरती पर चुनाव लड़ रहे हैं। आप तो सारे ग्रहों को एक साथ जीतने के लिए जेब में सूरज जैसे बड़े-बड़े वायदे रूपी नक्षत्र लिए घूम रहे थे। 

सबसे पहले आपका वह वादा पढ़ा जिसमें आपने बताया कि पहाड़ी पर समुंदर, नल से पानी के बजाय मधुशालाा बहाने और दिन को रात, रात को दिन करने की आपकी दृढ़ इच्छाशक्ति अवश्य हमें भेड़ बनाकर छोड़ेगा। सच भी है कि जिसका जन्म शोषित होने के लिए हुआ हो उसे शोषण करने वाले के तलवे चाटना चाहिए। तभी महंगाई, बेरोजगारी, लाचारी में भी मेंढ़कलाल जैसों की सरकार मक्खन जैसी लगेगी।

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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