पुतले फूंकने की संस्कृति ज़रूरी (व्यंग्य)
फिलहाल तो सत्य परेशान ही है। हम यही कहते रहे कि अंत में तो जीत सत्य की होती है। इतनी तकलीफों के बाद भी जीत अंत में ही हुई तो क्या फायदा। यह जीत कमबख्त आखिर में क्यूं होती है। अन्याय के साथ न्याय की लड़ाई का भी यही हाल है।
राजनीति ने पुतले फूंकने में हमेशा दिलचस्पी ली है। अच्छाई की परेशानियां रोजाना बढ़ती जाती हैं और बुराई के बारे कोई बात नहीं करना चाहता हां बुराई के पुतलों की लम्बाई और खर्च की होड़ हर बरस बढ़ती जाती है। कई दशक हो गए, लकीर के फकीरों की तरह हर साल लाखों करोड़ों रूपए फूंकते गए लेकिन अभी तक अच्छाई द्वारा बुराई पर विजय प्राप्त नहीं हो पाई। वास्तव में बुराई ने अच्छाई की बोलती बंद कर रखी है, सत्य ने असत्य को हराने की कोशिश जारी रखी, शायद कहीं कभी हराया भी होगा, लेकिन बहुत ज़्यादा समय लग गया।
फिलहाल तो सत्य परेशान ही है। हम यही कहते रहे कि अंत में तो जीत सत्य की होती है। इतनी तकलीफों के बाद भी जीत अंत में ही हुई तो क्या फायदा। यह जीत कमबख्त आखिर में क्यूं होती है। अन्याय के साथ न्याय की लड़ाई का भी यही हाल है। करोड़ों परेशान मुकदमे, परिस्थितियों व कमियों की अंधेरी कोठरी में उदास पड़े हैं। न्याय के सूर्य की रोशनी के इंतज़ार में आंखें पत्थर हो गई हैं। अशुद्धता का भी यही हाल है। शुद्धता को परेशान कर करके हमने उसकी जान निकाल दी है।
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ऐसे माहौल में पुतला फूंको संस्कृति विकसित करने की ज़रूरत है। बुराई पर अच्छाई, असत्य पर सत्य, अन्याय पर न्याय की न हो सकने वाली विजय के प्रतीक पुतले नियमित फूंके जा सकते हैं। हर माह बुराई, अन्याय, असत्य और कुप्रबंधन का पुतला फूंक कार्यक्रम करने से बहुत फर्क पड़ सकता है लेकिन दुःख की बात यह है कि हमारे यहां तो सिर्फ राजनीतिक पुतले ही फूंके जाते हैं। अनेक पुतले पुलिस फूंकने नहीं देती लेकिन कई लोग चतुराई का बढ़िया प्रयोग करके पुतले फूंकते हैं और अगले दिन अखबार में खबर बनकर अन्य पुतले जलाने की इच्छा रखने वालों को प्रेरित करते हैं।
सबके सामने सार्वजनिक रूप से पुतले फूंकना दूसरों को तकलीफ पहुंचाता है। प्रशासन और सुरक्षा व्यवस्था परेशान होते हैं ऐसा न करके निजी स्तर पर पुतला फूंक उत्सव आयोजित कर लेना चाहिए। प्रभाव पैदा करने वाले पुतले बनाने व उचित जगह पर उपलब्ध कराना भी एक छोटा या मोटा व्यवसाय हो सकता है जो चुनावी मौसम में खूब पनप सकता है। पुतला फूंकने से सबसे ज़्यादा फायदा दिल का होता है जिसमें से सारी भड़ास पिघल कर निकल जाती है। बिना लड़ाई झगड़े, मार कुटाई व खून खराबे के यह मुश्किल काम हो जाता है । इस तरह पुतला फूंक पर्व मानवीय शरीर का रक्षक बन सकता है। पुतले के साथ ही यहां वहां फेंका कूड़ा कचरा भी जलाया जा सकता है। पुतलों को जूतों से पीटकर मनचाही गालियां भी दी जा सकती हैं।
प्रशंसनीय यह है कि पुतला किसी का भी हो कोई प्रतिक्रिया नहीं करेगा। पुतला दहन सिर्फ चुनावी दिनों में नहीं बल्कि आवश्यक सामाजिक पर्व की तरह नियमित किया जाए तो नैतिक, सामाजिक, धार्मिक आर्थिक फायदा हो सकता है। कुछ भी न हो तो सर्दी के मौसम में जलते पुतलों की बातें करके गर्माहट महसूस होती है।
- संतोष उत्सुक
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