विश्व मरुस्थलीकरण और सूखा दिवसः अब न कोई अर्थी उठने पाए

world day to combat desertification and drought

कहने को तो विश्व सूखा व मरुस्थलीकरण दिवस सन् 1995 से हर वर्ष 17 जून को मनाया जाता है, लेकिन इन क्षेत्रों में रहने वाला किसान पहले भी मर रहा था, आज भी मर रहा है। यह दिवस किताबों में, सभाओं-सम्मेलनों और चाय-बिस्कुट खाने के लिए अच्छा लगता होगा, किसानों के लिए यह तो दर्द भरा दिन है।

राजय्या घर से निकला था। थोड़ी दूर पर पड़ने वाले कस्बे से घर के लिए कुछ चीज़ें ख़रीदने। काश कोई समझ पाता वह घर से नहीं दुनिया से निकला था। घर लौटकर आने का सवाल ही नहीं था। उसने जाते-जाते जो चीज़ें घर भेजी थीं, उनमें कुछ चूड़ियाँ, क़फ़न, सफ़ेद साड़ी, हल्दी, सिंदूर और फूलों का एक हार था। घर के लिए उसने यही चीज़ें खरीदी थीं। घर में खाने के लाले पड़ गए थे। साहूकारों की धमकियाँ पल-पल बेचैन कर रही थीं। दरअसल उसने ये सामान अपनी ही अर्थी को सजाने के लिए खरीदा था। पहले से ही घर में एक कॉपी पड़ी है जिसमें किस-किस साहूकार से कितना-कितना रुपया उधार लिया है, फलाना दुकानवाले से खेती के लिए छिड़काव की दवाइयों, बीज और न जाने कितने तरह के कर्जों की 40-50 लोगों की एक लंबी लिस्ट पड़ी है। उसे पता था कि मरने के बाद अर्थी के सामान के लिए घर वाले बहुत परेशान होंगे। जाते-जाते उन्हें परेशान नहीं करना चाहता था। इसीलिए वह अपनी विदाई की तैयारी खुद कर गया।

यह किस्सा महबूबनगर के एक किसान का नहीं पूरे देश भर का है। आए दिन यहाँ सूखे से न जाने कितनी अर्थियाँ उठती हैं। अंतर केवल इतना होता है कि हर कोई राजय्या की तरह समझदार नहीं है, जो जाते-जाते अपनी अर्थी का सामान खुद खरीदकर दे जाए। पश्चिमी राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा उत्तर-पश्चिम मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश में रायलसीमा, तेलंगाना में दक्षिणी तेलंगाना तथा महाराष्ट्र के मराठवाड़ा एवं विदर्भ प्रदेश सूखे व अकाल से मरने वालों की दास्तान चीख-चीख कर बयान करते हैं। 

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सूखाग्रस्त क्षेत्र में रहने वाले लोग वहाँ की आबोहवा से इतने वाकिफ होते हैं कि उनके दिल में सूखे व अकाल की जोरदार धड़कनें सुनाई देती हैं। इनकी पीड़ा इतनी-उतनी नहीं है। वे बताएँ तो क्या बताएँ? कभी मानसून की अनिश्चितता तो कभी वर्षा की विभिन्नता, कभी अनियमित चक्रवात तो कभी तापमान में वृद्धि इन्हें तोड़कर रख देती है। वनों का विनाश, बंजर भूमि में वृद्धि, मरुस्थलीकरण, मिट्टी की संरचना, जल-प्रबंधन पर ध्यान न दिया जाना, जीव नदियों का अभाव और ऊपर से सरकार की उदासीनता जैसे ऐसे कई कारण हैं जो इन्हें मरने पर मजबूर कर देते हैं। ऐसी स्थितियों में आदमी जिए तो जिए कैसे? 

अकाल या सूखा केवल एक समस्या नहीं है। यह तो समस्याओं का बहुत बड़ा पैकेज है। इस क्षेत्र के किसी किसान के साथ बैठकर उनसे कुछ देर बात करने पर पता चलेगा कि इनका जीवन इतना नरक समान गुजरता है। वास्तव में वे अकाल व सूखा के साथ जिंदगी गुजर बसर नहीं करते। वे जिंदगी गुजर बसर करते हैं मौत का अभिशाप बनी परिस्थितियों से। जो लोग छोटी-छोटी चीज़ों की कमी से अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं, उन्हें कभी इनके पास आकर बैठना चाहिए। कुछ पल गुजारना चाहिए। तब पता चलेगा कि वास्तव में जिंदगी होती है क्या। यहाँ वे सिंचाई के लिए जल की बूँदों के लिए तरसते हैं। पीने के पानी के लिए मरते हैं। खाने के दाने-दाने के लिए तड़पते हैं। अपने मवेशियों के चारे के लिए बिलखते हैं। बीज, खाद जैसे कच्चे माल की कमी से परेशान रहते हैं। महंगाई की मार से कराहते रहते हैं। जल-जंगल-जमीन की आह भरे करवटों से बेचैन रहते हैं। कभी बिजली, बेरोजगारी और अनबियाही बेटियों को लेकर पल-पल घुटते, गिरते, मरते रहते हैं।

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कहने को तो विश्व मरुस्थलीकरण एवं सूखा रोकथाम दिवस सन् 1995 से हर वर्ष 17 जून को मनाया जाता है, लेकिन इन क्षेत्रों में रहने वाला किसान पहले भी मर रहा था, आज भी मर रहा है। यह दिवस किताबों में, सभाओं-सम्मेलनों और चाय-बिस्कुट खाने के लिए अच्छा लगता होगा, किसानों के लिए यह तो दर्द भरा दिन है। वह कथनी नहीं करनी के रूप में इस दिवस को देखना चाहता है। वह चाहता है कि जो बड़े-बड़े सपने उसे दिखाए जाते हैं, वह न दिखाएँ। बल्कि छोटी-छोटी सहायताओं जैसे-  कोई उसे बताए कि कृषि जलवायु के आधार पर कौन सी फसल डाली जाए, वैकल्पिक कृषि के रूप में शुष्क कृषि कैसे करें, कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए कपास, गेहूँ, जवार की किस वैरिटी का चयन करें, विशेष सिंचाई साधन जैसे- टपक सिंचाई (Drip Irrigation) व छिड़काव सिंचाई (Sprinkle Irritation) के लिए क्या करें, नहरों के सतह का पक्काकरण, उचित जल-क्षेत्र प्रबंधन, जल संरक्षण, मिट्टी-संरक्षण, चारे की बचत, बंजर भूमि का विकास, गैर-कृषि वैकल्पिक उपायों जैसे- पशुपालन और डेयरी उद्योगों का विकास, लघु तथा कुटीर उद्योग का विकास कैसे करें के बारे में बताया जाए। किसान भारत के अन्नदाता हैं। वे विश्वासघाती नहीं हैं। उन पर भरोसा कर उन्हें आर्थिक सहायता करने की आवश्यकता है। वे भूखे रहकर देश का पेट भरते हैं। ऐसे भूखों को एक निवाला भी नहीं खिला सकते? थोड़ा सा प्यार, थोड़ा सा स्नेह, थोड़ा सा उनके प्रति ध्यान न जाने कितने राजय्या को बचा सकता है। क्या हम एक अर्थी भी उठने से नहीं बचा सकते? आइए हाथ बढ़ाएँ जहाँ राजय्या को भी जीने का मौका मिल सके।   

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

सरकारी पाठ्यपुस्तक लेखक, तेलंगाना सरकार

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