बढ़ते मरुस्थल को रोकने के संकल्पों की रोशनी

world day to combat desertification and drought
ललित गर्ग । Jun 17 2020 12:16PM

राजस्थान प्रदेश में थार का रेगिस्तान दबे पांव अरावली पर्वतमाला की दीवार पार कर पूर्वी राजस्थान के जयपुर, अलवर और दौसा जिलों की ओर बढ़ रहा है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के राजस्थान में चल रहे प्रोजेक्ट में ऐसे संकेत मिल रहे हैं।

वर्ष 1995 से प्रत्येक साल विश्व के विभिन्न देशो में 17 जून को विश्व मरुस्थलीकरण एवं सूखा रोकथाम दिवस मनाया जाता है। इसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय सहयोग से बंजर और सूखे के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए जन जागरूकता को बढ़ावा देना है। वर्ष 1994 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने बंजर और सूखे से जुड़े मुद्दे पर विश्व-जन का ध्यान आकर्षित करने और सूखे और मरुस्थलीकरण का दंश झेल रहे देशों मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन के कार्यान्वयन के लिए विश्व मरुस्थलीकरण एवं सूखा रोकथाम दिवस की घोषणा की।

रेगिस्तान या मरुस्थल एक बंजर, शुष्क क्षेत्र है, जहाँ वनस्पति नहीं के बराबर होती है, यहाँ केवल वही पौधे पनप सकते हैं, जिनमें जल संचय करने की अथवा धरती के बहुत नीचे से जल प्राप्त करने की अदभुत क्षमता हो। इस क्षेत्र में बेहद शुष्क व गर्म स्थिति किसी भी पैदावार के लिए उपयुक्त नहीं होती है। वास्तविक मरुस्थल में बालू की प्रचुरता पाई जाती है। मरुस्थल कई प्रकार के हैं जैसे पथरीले मरुस्थल में कंकड़-पत्थर से युक्त भूमि पाई जाती है। इन्हें अल्जीरिया में रेग तथा लीबिया में सेरिर के नाम से जाना जाता है। चट्टानी मरुस्थल में चट्टानी भूमि का हिस्सा अधिकाधिक होता है। इन्हें सहारा क्षेत्र में हमादा कहा जाता है।

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राजस्थान प्रदेश में थार का रेगिस्तान दबे पांव अरावली पर्वतमाला की दीवार पार कर पूर्वी राजस्थान के जयपुर, अलवर और दौसा जिलों की ओर बढ़ रहा है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के राजस्थान में चल रहे प्रोजेक्ट में ऐसे संकेत मिल रहे हैं। अब तक 3000 किमी लंबे रेगिस्तानी इलाकों को उत्तर प्रदेश, बिहार और प. बंगाल तक पसरने से अरावली पर्वतमाला रोकती है। कुछ वर्षो से लगातार वैध-अवैध खनन के चलते कई जगहों से इसका सफाया हो गया है। उन्हीं दरारों और अंतरालों के बीच से रेगिस्तान पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ चला है। यही स्थिति रही तो आगे यह हरियाणा, दिल्ली, यूपी तक पहुंच सकता है। लगातार बढ़ रहा रेगिस्तान एक गंभीर चिन्ता का विषय है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी दूसरी पारी में अब प्रकृति- पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण-मुक्ति के साथ बढ़ते रेगिस्तान को रोकने के लिये सक्रिय हैं। कुशल राजनीतिक की तरह वे जुझारू किसान एवं पर्यावरणविद की भांति धरती पर मंडरा रहे खतरों एवं बढ़ते रेगिस्तान को रोकने के लिये जागरूक हुए हैं। बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने एवं पर्यावरण की रक्षा को लेकर प्रधानमंत्री का संकल्प एक शुभ संकेत है, नये भारत के अभ्युदय का प्रतीक है। उम्मीद करें कि सरकार की नीतियों में जल, जंगल, जमीन एवं जीवन की उन्नत संभावनाएं और भी प्रखर रूप में झलकेगी और धरती के मरुस्थलीकरण के विस्तार होते जाने की स्थितियों पर काबू पाने में सफलता मिलेगी। प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा में आयोजित यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन टु कॉम्बैट डिजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) के 14वें सम्मेलन को संबोधित करते हुए घोषणा की कि भारत 2030 तक 2.1 करोड़ हेक्टेयर बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने के अपने लक्ष्य को बढ़ाकर 2.6 करोड़ हेक्टेयर करेगा, इससे पर्यावरण की रक्षा तो होगी कि ऊपजाऊ भूमि का भी विस्तार होगा। देखने में आ रहा है कि कथित आधुनिक समाज एवं विकास का प्रारूप अपने को कालजयी मानने की गफलत पाले हुए है और उसकी भारी कीमत भी चुका रहा है। लगातार पांव पसार रही तबाही इंसानी गफलत को उजागर तो करती रही है, लेकिन समाधान का कोई रास्ता प्रस्तुत नहीं कर पाई। ऐसे में अगर मोदी सरकार ने कुछ ठानी है तो उसका स्वागत होना ही चाहिए। क्या कुछ छोटे, खुद कर सकने योग्य कदम नहीं उठाये जा सकते?

उपजाऊ जमीनों का मरुस्थल में बदलना निश्चय ही पूरी दुनिया के लिए भारी चिंता का विषय है। इसे अब एक धीमी प्राकृतिक आपदा के रूप में देखा जाने लगा है। यह देखा गया है कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति का दोहन करता चला आ रहा है, भूमि को बंजर करता जा रहा है, जिससे मरुस्थलीकरण का विस्तार हो रहा है। अगर प्रकृति के साथ इस प्रकार से खिलवाड़ होता रहा तो वह दिन दूर नहीं होगा, जब हमें शुद्ध पानी, शुद्ध हवा, उपजाऊ भूमि, शुद्ध वातावरण एवं शुद्ध वनस्पतियाँ नहीं मिल सकेंगी। इन सबके बिना हमारा जीवन जीना मुश्किल हो जायेगा। आज आवश्यकता है कि प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की ओर विशेष ध्यान दिया जाए, जिसमें मुख्यतः धूप, खनिज, वनस्पति, हवा, पानी, वातावरण, भूमि तथा जानवर आदि शामिल हैं। इन संसाधनों का अंधाधुंध दुरुपयोग किया जा रहा है, जिसके कारण ये संसाधन धीरे-धीरे समाप्त होने की कगार पर हैं। इस जटिल होती समस्या की ओर प्रधानमंत्री का चितिंत होना एवं कुछ सार्थक कदम उठाने के लिये पहल करना मरुस्थल को उपजाऊ भूमि में बदलने की नयी संभावनाओं को उजागर करता है।

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मोदी ने जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और भूमि क्षरण जैसे मुद्दों पर सरकार की जागरूकता एवं  सहयोग का भरोसा दिलाया। उन्होंने जानकारी दी कि 2015 और 2017 के बीच भारत में पेड़ों और जंगल के दायरे में आठ लाख हेक्टेयर की बढ़ोतरी हुई है। संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतर-सरकारी समिति (आईपीसीसी) ने गतिदिनों अपनी रिपोर्ट में कहा था कि विश्व में 23 फीसदी कृषियोग्य भूमि का क्षरण हो चुका है, जबकि भारत में यह हाल 30 फीसदी भूमि का हुआ है। इस आपदा से निपटने के लिए कार्बन उत्सर्जन को रोकना ही काफी नहीं है। इसके लिए खेती में बदलाव करने होंगे, शाकाहार को बढ़ावा देना होगा और जमीन का इस्तेमाल सोच-समझकर करना होगा। 

जल, जंगल और जमीन इन तीन तत्वों से प्रकृति का निर्माण होता है। यदि यह तत्व न हों तो प्रकृति इन तीन तत्वों के बिना अधूरी है। विश्व में ज्यादातर समृद्ध देश वही माने जाते हैं जहां इन तीनों तत्वों का बाहुल्य है। बात अगर इन मूलभूत तत्व या संसाधनों की उपलब्धता तक सीमित नहीं है। आधुनिकीकरण के इस दौर में जब इन संसाधनों का अंधाधुन्ध दोहन हो रहा है तो ये तत्व भी खतरे में पड़ गए हैं एवं भूमि की उत्पादकता कम होती जा रही है, पानी की कमी हो रही है। ऊपजाऊ भूमि भी रेगिस्तान में तब्दील हो रही है। तकनीकी तौर पर मरुस्थल उस इलाके को कहते हैं, जहां पेड़ नहीं सिर्फ झाड़ियां उगती हैं। जिन इलाकों में यह भू-जल के खात्मे के चलते हो रहा है, वहां इसे मरुस्थलीकरण का नाम दिया गया है। लेकिन शहरों का दायरा बढ़ने के साथ सड़क, पुल, कारखानों और रेलवे लाइनों के निर्माण से खेतिहर जमीन का खात्मा और बची जमीन की उर्वरा शक्ति कम होना भू-क्षरण का दूसरा रूप है, जिस पर कोई बात ही नहीं होती। लेकिन मोदी की पहल से इस पर बात ही नहीं हो रही, बल्कि इस समस्या से निजात पाने की दिशा में सार्थक कदम भी उठाये जा रहे हैं। 

चिन्तन एवं चिन्ता का एक ही मामला है लगातार विकराल एवं भीषण आकार ले रही बंजर भूमि, सिकुड़ रहे जलस्रोत विनाश की ओर धकेली जा रही पृथ्वी एवं प्रकृति के विनाश के प्रयास। बढ़ती जनसंख्या, बढ़ता प्रदूषण, नष्ट होता पर्यावरण, दूषित गैसों से छिद्रित होती ओजोन की ढाल, प्रकृति एवं पर्यावरण का अत्यधिक दोहन- ये सब देश के लिए सबसे बडे़ खतरे हैं और इन खतरों का अहसास करना एवं कराना ही मोदी का ध्येय है। प्रतिवर्ष धरती का तापमान बढ़ रहा है। आबादी बढ़ रही है, जमीन छोटी पड़ रही है। हर चीज की उपलब्धता कम हो रही है। आक्सीजन की कमी हो रही है। साथ ही साथ हमारा सुविधावादी नजरिया एवं जीवनशैली पर्यावरण एवं प्रकृति के लिये एक गंभीर खतरा बन कर प्रस्तुत हो रहा हैं। वन क्षेत्र का लगातार खत्म होना भी इसकी एक बड़ी वजह है लेकिन सबसे बड़ी वजह है निर्माण क्षेत्र का अराजक व्यवहार। शहरीकरण की तेज प्रक्रिया में इधर खेतों में कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए गए हैं। कहीं कॉलोनियां बसाने के लिए झीलों, नदियों तक को पाट दिया गया, कहीं जमीन के बड़े हिस्से पर सीमेंट और रेत भर दी गई जिससे उसकी धरती बांझ होती जा रही है। नदियों से दूर बसी कॉलोनियों को भू-जल पर आश्रित छोड़ दिया गया, जिसके लगातार दोहन से हरे-भरे इलाके भी मरुस्थल बनने की ओर बढ़ गए। सरकार अगर सचमुच जमीन को उपजाऊ बनाना चाहती है तो उसे कंस्ट्रक्शन सेक्टर को नियंत्रित करना होगा। लेकिन इस दिशा में एक कदम भी आगे बढ़ाने के लिए हमें विकास प्रक्रिया पर ठहरकर सोचने के लिए तैयार होना होगा। बात तभी बनेगी जब सरकार के साथ-साथ समाज भी अपना नजरिया बदले। इन स्थितियों मे मोदी का आह्वान घोर अंधेरों के बीच उजालों के अवतरण का द्योतक है।

- ललित गर्ग

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