Gyan Ganga: दुर्गुणों के कारण ही हम परेशान व दुखी होते हैं
कलयुग कोई आकार लिए शरीर नहीं है, जो कि आपके समक्ष आकर आपका अहित करेगा। कलयुग से तात्पर्य यह है, कि आपकी बुद्धि में दुर्गुणों का वास रव आसुरी प्रभाव में रत जाना ही कलियुग की परिभाषा है। यह दुर्गुणों के कारण ही हम परेशान व दुखी होते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जी जब बालकाण्ड़ की रचना आरम्भ करते हैं, तो वे श्रीराम जी की कथा का विस्तार करने से पूर्व अपने दुर्गुणों की बात खुल कर करते हैं। वे स्वयं को अधर्म से भी अधर्म पुकारते हैं। उसके पश्चात ही वे श्रीराम जी की कथा का शुभारम्भ करते हैं-
‘एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ।।’
गोस्वामी जी कहते हैं, कि अब मैं श्रीराम जी की कथा का शुभारम्भ करने जा रहा हुँ, जिसे श्रवण करने से कलयुग के पाप नष्ट हो जाते हैं।
कहने का तात्पर्य कि कलयुग कोई आकार लिए शरीर नहीं है, जो कि आपके समक्ष आकर आपका अहित करेगा। कलयुग से तात्पर्य यह है, कि आपकी बुद्धि में दुर्गुणों का वास रव आसुरी प्रभाव में रत जाना ही कलियुग की परिभाषा है। यह दुर्गुणों के कारण ही हम परेशान व दुखी होते हैं। हमें अपना-पराया किसी का भी हित-अहित दिखाई नहीं देता। लेकिन अगर हम सचमुच श्रीराम जी की कथा श्रवण करते हैं, तो धीरे-धीरे हमारी मति में विनाशक प्रभाव वाले विचार समाप्त होने लगते हैं और दैवीय प्रभाव वाले गुण अपना स्थान बनाने लगते हैं।
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फिर गोस्वामी तुलसीदास जी यह भी कहने में संकोच नहीं करते, कि मैं श्रीराम जी की यह कथा, कोई नये आकार या व्यवहार से नहीं लिख रहा। अपितु यह वही कथा है, जो याज्ञवल्क्य जी ने मुनिश्रेष्ठ भारद्वाज जी को सुनाई थी, मैं उसी संवाद को बखान कर कहूंगा। बस मेरा सभी सज्जनों से यही आग्रह है कि सभी प्रभु भक्त इस कथा को सुख का अनुभव करते हुए सुनें।
इससे भी पहले, इस पावन कथा के सुहावने चरित को भगवान शिव ने रचा। फिर कृपा करके उन्होंने पार्वती जी को सुनाया। इसके पश्चात वही चरित्र शिवजी ने काकभुशुण्डिजी को रामभक्त और अधिकारी पहचानकर दिया।
उन काकभुशुण्डिजी ये यह कथा को याज्ञवल्क्यजी ने पाया, और उन्होंने फिर उसे मुनिश्रेष्ठ भारद्वाज जी को गाकर सुनाया। वे दोनों वक्ता और श्रोता समान शील वाले और समदर्शी हैं, और श्रीहरि की लीला को जानते हैं।
सज्जनों गोस्वामी जी संसार के मनुष्यों के किसी भी संशय से अनभिज्ञ नहीं हैं। श्रीराम जी की कृपा से वे आदि अंत तक सब जानते हैं। वे ही क्यों, जो भी जन, परमात्मा के उस शाश्वत ज्ञान को जान गया, वह तीनों लोकों का ज्ञाता हो जाता है। उन्हें ही वास्तव में ज्ञानी कहा गया है।
गोस्वामी जी भाली भाँति जानते हैं, कि मुझसे पूर्व भी जो महापुरुष श्रीराम जी की महिमा गान को लिख कर चले गए, उन पर अज्ञानी लोग एक प्रश्न अवश्य करेंगे। प्रश्न यह, कि श्रीराम जी तो त्रेता युग में अवतार लेकर आये, और गोस्वामी जी एवं अन्य कथाकारों की उत्पत्ति श्रीराम जी के जन्म के पश्चात, एक अथवा दो युगों के पश्चात हुई। जब एक साधारण व्यक्ति दस दिन पुरानी घटना को कलम से लिखना चाहे, तो यथावत नहीं लिख पाता, फिर इतनी सदियों पुरानी श्रीराम जी की लीलायों को भला कैसे ठीक प्रकार से लिख सकता है। आश्चर्य करना उचित है, कि गोस्वामी जी कैसे श्रीराम जी की लीलायों का इतनी सूक्ष्मता से चित्रण कर पा रहे हैं। निश्चित ही वे कल्पना करके ही सब कुछ लिखते होंगे।
तो इसके उत्तर में गोस्वामी जी पहले ही प्रमाण दे देते हैं कि महापुरुषों के पास एक दिव्य नेत्र होता है। जिसे हम शिव नेत्र, तीसरी आँख अथवा दिव्य चक्षु भी कहते हैं। वास्तव में उन नयनों को ही हमारे वास्तविक चक्षु कहा गया है। यह दो चर्म चक्षु तो माया के नेत्र हैं। इनसे तो केवल भ्रम को ही देखा जा सकता है। जिन नेत्रों को हम वास्तविक व अपना निज नेत्र कह सकते हैं, वे तो केवल दिव्य दृष्टि को ही कहा जा सकता है। इस नेत्र का खुल जाना ही सिद्ध करता है, कि अब आपको ब्रह्म ज्ञान की प्रप्ति हो गई है। यह ब्रह्म ज्ञान ही है, जिस के आधार पर हमारे ऋर्षि मुनि त्रिकाल दृष्टा होते हैं, और वे तीनों कालों की बातों को भी ऐसे देख लेते हैं, जैसे कोई व्यक्ति हाथ पे रखे आँवले को देखता है-
‘जानहिं तीनि काल निज ग्याना।
करतल गत आमलक समाना।।’
गोस्वामी जी कहते हैं, कि वही कथा मैं भी रचने जा रहा हूं। किसी ने गोस्वामी जी से पूछ लिया, कि इस कथा को सुनने से क्या लाभ होगा? तो गोस्वामी जी बड़ा सुंदर विवरण करते हैं।
रामकथा पण्डितों को विश्राम देने वाली, सब मनुष्यों को प्रसन्न करने वाली और कलियुग के पापों का नाश करने वाली है। रामकथा कलियुग रुपी साँप के लिए मोरनी है और विवेक रुपी अग्नि के प्रकट करने के लिए अरणि है।
रामकथा कलियुग में सब मनोरथों को पूर्ण करने वाली कामधेनु गौ है, और सज्जनों के लिए सुंदर संजीवनी जड़ी है। पृथ्वी पर यही अमृत की नदी है, जन्म-मरण रुपी भय का नाश करने वाली, और भ्रम रुपी मेंढकों को खाने के लिए सर्पिणी है।
यह रामकथा असुरों की सेना के समान नरकों का नाश करने वाली और साधु रुपी देवताओं के कुल का हित करने वाली पार्वती है। यह संत-समाज रुपी क्षीर समुद्र के लिए लक्ष्मीजी के समान है, और संपूर्ण विश्व का भार उठाने में अचल पृथ्वी के समान है।
यह रामकथा शिवजी को नर्मदाजी के समान प्यारी है। यह सब सिद्धियों की तथा सुख-सम्पत्ति की राशि है। सदगुण रुपी देवताओं के उत्पन्न और पालन-पोषण करने के लिए माता आदिति के समान है। श्रीरघुनाथजी की भक्ति और प्रेम की परम सीमा सी है। (क्रमश---)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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