Gyan Ganga: सागर पार करने के लिए जो सेतु बना था, वह इतना पर्याप्त नहीं था कि उस पर संपूर्ण वानर सेना चल पाती
‘तुम कुछ करो तो सही। मुझे अपनी कृपा करने के लिए कुछ आधार तो दो। फिर देखो मैं कैसे कृपा करता हूँ। सागर पार करने के लिए जो सेतु बना था, वह इतना पर्याप्त नहीं था, कि उस पर संपूर्ण वानर सेना चल कर पार कर जाती। वह सेतु उबड़ खाबड़ भी था, और संकरा भी था।
भगवान श्रीराम जी कितने दयालु हैं, इस बात का अनुमान, इसी बात से लगाया जा सकता है, कि वे क्रिया को नहीं, अपितु भाव को ही प्रधानता देते हैं। आप ने सेवा भक्ति में कोई नेम कर्म अथवा विधि विधान का पालन किया भी है, या नहीं, इसका बहुत बड़ा महत्व नहीं है। जैसे भक्त शबरी श्रीराम जी के समक्ष बैठ कर ही उन्हें जूठे बेर खिला रही हैं। लेकिन श्रीराम जी एक पल के लिए भी भक्त शबरी को यह नहीं कह रहे, कि ‘हे शबरी! यह तुम कैसा महापाप कर रही हो। मैं भगवान हॅू! और मेरे सामने बैठ कर ही, जब तुम मुझे जूठे बेर खिलाने का दुस्साहस कर सकती हो, तो मेरी पीठ पीछे तुम क्या करती होगी?’
कारण बिलकुल स्पष्ट है, कि श्रीराम जी तो यह देख रहे हैं, कि मेरी आराधना करने वाली भक्त शबरी ने अपनी और से अथक प्रयास तो किया ही है। हाँ उस प्रयास में हो सकता है कि क्रिया कर्म का श्रेष्ठ स्तर न होकर, निम्न स्तर हो। लेकिन तब भी मैं उसके प्रयास का सम्मान करूँगा। फिर सबसे बड़ी बात यह है कि शबरी के प्रयास के पीछे भाव ही इतना श्रेष्ठ था कि क्रिया का महत्व ही नहीं रह जाता। मैं तो भाव का ही भूखा हॅू। मुझे भाव अगर प्रिय न होता, तो मैं निषादराज के यहाँ एक पेड़ के छत्र तले उसका अतिथ्य स्वीकार न करता।
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श्रीराम जी से एक प्रश्नकर्ता ने प्रश्न किया, मान लीजिए कि कोई व्यक्ति के मन में आपके प्रति भक्ति भाव ही न हो। वह आपका भजन इसलिए ही कर रहा हो, कि उसे धन प्राप्त हो जाये, अथवा उसका स्वास्थ्य ठीक रहे, या फिर उसके परिवार पर कोई आपदा न आये। तो क्या ऐसे में भी उसे आपके भजन का फल मिलेगा?
तब श्रीराम जी के भावों को गोस्वामी जी ने बड़े सुंदर ढंग से व्यक्त किया है-
‘भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ।।’
अर्थात अगर आप भजन अच्छे भाव से और बड़े प्रेम में डूब कर कर रहे हैं। या फिर ऐसा भी हो सकता है, कि आपका भाव अच्छा न भी हो। कभी कभार ऐसा भी हो सकता है, कि आप क्रोध में हों। क्योंकि आप ने देखा, कि इतनी पूजा पाठ करने के पश्चात भी आपको सफलता नहीं मिली, तो आप प्रभु के प्रति गुस्सा रख कर माला फेर रहे हों। या फिर ऐसा भी हो सकता है, कि आपको गहन आलस्य ने घेर रखा हो। आपका मन बिलकुल भी नहीं कर रहा हो, कि आप पूजा में बैठें, लेकिन बेमन होने के पश्चात भी आप पूजा में बैठे। तो क्या इन समस्त प्रसंगों में आप के किये गए भक्ति प्रयासों का कोई फल नहीं मिलेगा? अगर आप सच में निराशाजनक भाव में हैं, तो निराशा छोड़ प्रसन्न हो जायें। क्योंकि प्रभु का नाम स्मरण किसी भी परिस्थिति में किया जाये, उसका फल तो मिलना ही मिलना है।
उदाहरणतः एक मजदूर के काम करने का समय सुबह नौ बजे से लेकर सायं पांच बजे तक है। वह अन्य मजदूरों की भाँति ही अपने समय अनुसार आता है, और समय पर वापिस चला जाता है। काम भी अन्य मजदूरों की भाँति, उतना ही करता है, जितना कि उसका मालिक देता है। लेकिन एक पहलू उसके साथ यह रहता है, कि उसका मन उस मजदूरी में रमता नहीं है। उसे अपने काम से कोई लगाव नहीं रहता है। लेकिन तब भी वह जैसे-तैसे अपना काम निपटा ही देता है। ऐसे में ऐसा तो नहीं है न, कि मालिक उसको कम पगार देगा। मालिक ने देखा, कि मजदूर ठीक समय पर आता है, ठीक समय पर जाता है। उतना काम भी कर देता है, जितना उसे दिया जाता है, तो पूरी पगार नहीं देने का तो कोई तुक ही नहीं बनता है।
ठीक इसी प्रकार से, अगर कोई व्यक्ति समय से समस्त पूजा पाठ इत्यादि संपन्न कर लेता है, लेकिन आलस्य, क्रोध या बेमन से करता है, तो ऐसा नहीं कि प्रभु उसे फल नहीं देंगे। निश्चित ही उसे भी उतना ही फल मिलेगा, जितना कि अन्य प्रभु भक्तों को मिलता है।
रही बात, कि अगर पूजा-पाठ या नेम धर्म में, कुछ आगे पीछे भी हो जाये, तो श्रीराम जी ऐसे हैं, कि उन्हें कुछ भी आपत्तिजनक लगता ही नहीं। श्रीराम जी कहते हैं,
‘तुम कुछ करो तो सही। मुझे अपनी कृपा करने के लिए कुछ आधार तो दो। फिर देखो मैं कैसे कृपा करता हूँ। सागर पार करने के लिए जो सेतु बना था, वह इतना पर्याप्त नहीं था, कि उस पर संपूर्ण वानर सेना चल कर पार कर जाती। वह सेतु उबड़ खाबड़ भी था, और संकरा भी था। लेकिन जैसे ही हमने उस सेतु पर अपने चरण रखे, तभी सभी जलचर जीव हमारे दर्शन करने हेतु, आपस में जुड़ कर जमा हो गये। उनकी पीठ से पीठ मिलती गई, और उनकी पीठ से ही, एक विशाल सेतु का विस्तार हो गया। वह संकरा सेतु इतना चौड़ा व सुंदर हो गया, कि संपूर्ण वानर सेना आराम से सागर पार हो गई। कहने का तात्पर्य कि अगर वानर सेना, वह उबड़ खाबड़ सेतु बनाती ही न, तो हम कहाँ खड़े होकर जलचर जीवों को दर्शन देते। और कहाँ सेतु के बनने का सपना साकार हो पाता।’
बस ऐसे ही हम अपनी भक्ति व पूजा पाठ को कैसे भी करने का प्रयास तो करें, जिस पर खड़े होकर प्रभु अपनी कृपा कर सकें।
इसलिए जब कभी भी अवसर मिले, हमें प्रभु की सेवा व आराधना का सुअवसर कभी नहीं छोड़ना चाहिए। (क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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