'राष्ट्रनिष्ठ-शुचितापूर्ण पत्रकारिता के प्रखर स्तम्भ गणेश शंकर विद्यार्थी'
विद्यार्थी जी ने जिस मुखरता के साथ ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध पत्रकारिता को जन आन्दोलन बनाया। उसी तरह उन्होंने- भारतीय समाज में व्याप्त रुढ़ियों, कुरीतियों एवं समस्याओं पर तीखे तेवर में अपनी कलम चलाई। और समाज को आत्मचिंतन के लिए झकझोर कर रख डाला था।
स्वातन्त्र्य आन्दोलन के क्रान्तिकारी सम्पादक पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने अपने समूचे जीवन को स्वतन्त्रता की बलिवेदी को होम कर दिया। वे राष्ट्र धर्म का निर्वहन करते हुए लेखनी व आन्दोलन के दोनों मोर्चों में निर्भीक योद्धा की भांति डटकर खड़े थे। नवम्बर 1913 को उनके द्वारा साप्ताहिक प्रताप के प्रथमांक में 'कर्मवीर महाराणा प्रताप' शीर्षक से लिखे गए लेख की यह पँक्ति उनके सर्वोच्च आदर्श को प्रतिबिम्बित करती है— “ जो सिर स्वतन्त्रता देवी के सामने झुका, याद रखो, उसे अधिकार नहीं कि संसार की किसी शक्ति के सामने झुके।”
फिर उनकी लेखनी और ध्येयनिष्ठा ने क्रांतिकारी विचारों का चारों ओर अथाह प्रवाह निर्मित कर दिया। पत्रकारिता में उनके आदर्श को खड़ा करने में- 'कर्मयोगी' पत्र के सम्पादक पं. सुन्दरलाल और लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, महामना पं. मदनमोहन मालवीय जी की भूमिका थी। उन्होंने जहाँ आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सानिध्य में हिन्दी भाषा के संस्कार सीखे। वहीं पं. सुन्दरलाल से 'कर्मयोगी' की भाँति ही राष्ट्र एवं समाज के उत्थान व स्वातन्त्र्य के लिए विचारों का प्रखर स्वर अपनाया। और उनके ये तेवर महामना पं मदनमोहन मालवीय के पत्र 'अभ्युदय' में भी निरन्तर परिष्कृत होते रहे। तत्पश्चात नौ नवम्बर 1913 को कानपुर से शुरू हुए 'प्रताप' की अठारह वर्षों तक चली 'स्वातन्त्र्य यात्रा' में यह क्रम दिनानुदिन अपने तीव्र वेग को प्राप्त करता गया। उनकी पत्रकारिता का ध्येय सुस्पष्ट था- वह ध्येय था स्वाधीनता के महत् उद्देश्य को प्राप्त करना। और समाज के वंचित-पीड़ित, उपेक्षितों की आवाज़ बनना। किसान- मजदूरों को न्याय दिलाना। चाहे इसके दोषी ब्रिटिश हुक्मरान रहे हों, याकि देशी रियासतों के राजा-रजवाड़े। याकि शोषणकारी सामन्त।
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विद्यार्थी जी ने जिस मुखरता के साथ ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध पत्रकारिता को जन आन्दोलन बनाया। उसी तरह उन्होंने- भारतीय समाज में व्याप्त रुढ़ियों, कुरीतियों एवं समस्याओं पर तीखे तेवर में अपनी कलम चलाई। और समाज को आत्मचिंतन के लिए झकझोर कर रख डाला था।
पत्रकारिता के आदर्श एवं दायित्वबोध को लेकर वे बेहद सजग एवं स्पष्टवादी थे। सन् 1930 में उन्होंने लिखा था— “पत्रकार की समाज के प्रति बड़ी जिम्मेदारी है, वह अपने विवेक के अनुसार अपने पाठकों को ठीक मार्ग पर ले जाता है, वह जो कुछ लिखे प्रमाण और परिणाम काविचार रखकर लिखे, और अपनी गति-मति में सदैव शुद्ध और विवेकशील रहे। पैसा कमाना उसका ध्येय नहीं है, लोक सेवा उसका ध्येय है।”
उनकी यही प्रखर विचार रश्मि ने उन्हें इतना क्रान्तिकारी बना दिया था कि- उन्होंने सत्य को आधार बनाकर राष्ट्र के प्रति असंदिग्ध श्रद्धा एवं समर्पण के साथ गतिमान रहे। उन्हें कोई भी परिस्थितियां- कभी भी उनके कर्त्तव्यपथ सू विचलित न कर सकीं। उनके ओजस्वी विचारों से भयभीत ब्रिटिश सरकार ने सुनियोजित ढंग से उन्हें गिरफ्तार किया। जेल की यातनाएं दी। लेकिन विद्यार्थी जी 'लोकसेवा-राष्ट्रसेवा' का लक्ष्य लिए निरन्तर गतिशील बने रहे। प्रताप में उनके जाज्वल्यमान क्रान्तिकारी तेवरों पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा था—“उनके उग्र लेख देखकर मैं कभी-कभी कांप उठता था।' मगर ओज और सत्याग्रह ही 'प्रताप' और संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी की ज्वलंत पहचान थी। लप्पो-चप्पो का स्वर उसके चरित्र के लिए सर्वथा विजातीय था। सतेज सत्य के बल पर ही 'प्रताप' लोकप्रियता के उत्कर्ष पर पहुंचा था और उसकी लोकप्रियता का स्तर यह था कि हिंदी भाषी प्रदेश की जनता 'समाचारपत्र का अर्थ' केवल 'प्रताप' ही समझती थी। और यह धारणा गणेशशंकर के लोकमानस के प्रतिनिधित्व करने के सामर्थ्य को दर्शाती है।”
प्रसिद्ध पत्रकार रहे मुकुटबिहारी वर्मा ने भी गणेश शंकर विद्यार्थी जी की गौरवपूर्ण राष्ट्रपरक विशद् विचार दृष्टि पर लिखा- “ ‘प्रताप' के लिए पत्रकारिता व्यवसायपरक नहीं लोक-कल्याणार्थ थी। इसीलिए आर्थिक प्रलोभनों से मुक्त रहते हुए अन्याय-अत्याचार के खिलाफ सब तरह के बलिदान के लिए वह तैयार रहा। फलत: कई रियासतों में उस पर प्रतिबंध लगे, तरह- तरह की धमकियां दी गईं और मुकदमे भी चले। साथ ही अर्थ प्रलोभन भी उसके सामने आए। पर वह बिना झुके और बगैर प्रलोभन में आए अपने रास्ते चलता रहा; यहां तक कि उन लोगों पर हुए अन्याय के विरुद्ध भी उसने अपनी आवाज उठाई जिनके अन्याय के खिलाफ वह लड़ रहा था और खुद जिनके अन्याय का शिकार था।”
देश के जातीय स्वाभिमान पर आधारित उनकी अग्निधर्मी लेखनी ने अपनी परिपाटी का सृजन किया। और राष्ट्रीय परिदृश्य के प्रत्येक घटनाक्रमों एवं विषयों को मुखरता के साथ उठाया। उन्होंने राष्ट्र की चेतना को जागृत करने के लिए विचारों का ज्वार उत्पन्न किया। यह उनकी उसी राष्ट्रनिष्ठा का परिणाम था कि— जिस प्रकार लोकमान्य तिलक जी द्वारा सम्पादित 'मराठा' एवं 'केसरी' ने राष्ट्रवादी पत्रकारिता का श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया। उसी प्रकार विद्यार्थी जी द्वारा सम्पादित 'प्रताप' ने हिन्दी भाषा में राष्ट्रवादी पत्रकारिता में अपनी अनन्य प्रतिष्ठा पाई। और जन- जन की आवाज़ के रूप में जाना जाने लगा। विद्यार्थी जी की 'स्वराज्य' विषयक विचार दृष्टि का दर्शन 'प्रताप' में 14 जुलाई 1924 के 'स्वराज्य किसके लिए?' शीर्षक से लिखे लेख के अंश से मिलता है —
“इस युग में, केवल भारतवर्ष के करोड़ों नर-नारियों के ललाट पर ये शब्द नहीं हैं कि जब सब आजाद होंगे तब तुम्हीं गुलाम बने रहोगे, तुम्हारी राह में रोड़े अटकाएंगे और तुम्हें अज्ञान और अंधकार में रखेंगे। यदि सचमुच इस देश के भाग्य में ही बदा है, तो हम यहीं कहेंगे, हमें स्वराज्य नहीं चाहिए। हमारे करोड़ों भाई, यदि गुलामी के बंधन में जकड़े हुए हैं, यदि वे अज्ञान और अंधकार में पड़े हैं, यदि उन्हें पेट भर खाने को नहीं मिलता और पहनने भर को कपड़ा, यदि उन्हें रहने के लिए जगह नहीं मिलती और चलने के लिए राह तो—उस दिशा की ओर जिधर हमारे इने-गिने आदमी सुख से समय बिताते हों और प्रभुता के अधिकारी बने हुए हों-उधर हम अपना मुंह भी नहीं करना चाहते। हम तो उसी ओर जाएंगे, उसी ओर रहेंगे-सड़ने, घुटने, और गुमनामी में मर जाने तक के लिए जिधर हमारे शरीर, हमारे हृदय, हमारे दीन-हीन और पीड़ित करोड़ों भाई होंगे। उस दुःख में एक शांति होगी, और उस सुख में करोड़ों के कंकाल पर भोगे जाने वाले थोड़े से आदमियों के उस सुख में- एक गहरी ग्लानि।”
उपर्युक्त उद्धृत अंश से यह सुस्पष्ट होता है कि- विद्यार्थी जी केवल 'राजनैतिक स्वतन्त्रता ' की भी बात नहीं कहते थे। बल्कि उनकी दृष्टि में 'स्वाधीनता' यानी 'स्वराज्य' अर्थात्— भारतीय जनमानस के सर्वांगीण विकास एवं कल्याण के लिए वे प्रतिबद्ध थे। विद्यार्थी जी लोकमान्य तिलक के प्रखर-मुखर राष्ट्रवादी विचारों के पक्षधर थे। लेकिन दूसरी ओर महात्मा गाँधी की 'अहिंसा' की अवधारणा पर भी उतना ही विश्वास रखते थे। इतना ही नहीं गांधीजी के प्रति उनकी निष्ठा 'सत्याग्रह' आन्दोलन के दौरान सर्वाधिक मुखरता के साथ देखने को मिली थी। उनके सम्पादन में 'प्रताप' ने सत्याग्रह आन्दोलन को लेकर व्यापक जनचेतना का प्रसार किया था। याकि फिर बात देश के किसानों या मजदूरों की हो; उन्होंने भारत के कृषक व श्रमिक- इन दोनों वर्गों के लिए भी अपनी लेखनी और आन्दोलन दोनों से लड़ाई लड़ी थी। उन्होंने किसानों पर होने वाले अत्याचारों के लिए रियासतों के राजाओं, सामंतों एवं अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध मोर्चा खोला। होमरुल आन्दोलन के समय ही कानपुर में मिल मालिकों के विरुद्ध हुई हड़ताल का गणेश जी ने नेतृत्व किया था। इसमें 25000 की संख्या में मजदूर शामिल थे। वहीं बिहार के चम्पारण में अंग्रेजों द्वारा किसानों के शोषण के विरोध में जब गांधी जी वहां पहुंचे। तब प्रताप ने उस मुद्दे को उठाया। रायबरेली के निरंकुश जमींदार वीरपाल सिंह द्वारा किसानों पर गोली चलवाने की घटना को— उन्होंने 'प्रताप' में विस्तार से प्रकाशित किया था। इसी के चलते अंग्रेज सरकार व वीरपाल सिंह द्वारा सुनियोजित ढंग से उन पर मानहानि का मुकदमा दर्ज किया गया था। इसमें उन्हें आठ महीने की सजा हुई थी।
वे किसानों से जुड़े हुए ब्रिटिश सरकार के दमनकारी-शोषणकारी निर्णयों का निरन्तर निर्भीकतापूर्वक प्रतिकार करते थे। वे स्वयं को एक पत्रकार या राजनेता के स्थान पर गर्वपूर्वक 'किसान' कहा करते थे। किसानों- मजदूरों के सच्चे हितचिन्तक के रूप में वे प्रसिद्ध हो चुके थे। उनकी हत्या के बाद एक श्रद्धांजलि सभा में पं. बनारसीदास चतुर्वेदी जी ने विद्यार्थी जी के विषय में कहा था— “आज उस दीनबंधु के लिए किसान रो रहे हैं। कौन उनकी उद्गार-ज्वाला को शांत करने के लिए स्वयं आग में कूद पड़ेगा? मजदूर पछता रहे हैं, कौन उन पीड़ितों का संगठन करेगा, मवेशीखाने से भी बदतर देशी राज्यों के निवासी अश्रुपात कर रहे हैं, कौन उनका दुखड़ा सुनेगा और सुनाएगा? राजनीतिक कार्यकता रो रहे हैं, कौन उन्हें आश्रय देकर स्वयं आफत में फंसेगा? कौन उनके कंधे से कंधा मिलाकर स्वातंत्र्य संग्राम में चलेगा? और एक कोने में पड़े हुए उनके पत्रकार बंधु भी अपने को निराश्रित पाकर चुपचाप चार आंसू बहा रहे हैं। आपातकाल में कौन उन्हें सहारा देगा, किससे वे दिल खोलकर बात कहेंगे, किसे वे अपना बड़ा भाई समझेंगे, और कौन छुटभइयों का इतना खयाल करेगा?”
उन्होंने 'प्रताप' में उस समय चलने वाली मुस्लिम तुष्टिकरण की निरन्तर भर्त्सना करते थे। और साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए उन्होंने इस बात पर जोर डाला था कि- मुसलमानों को अपने मूल यानि भारतीय संस्कृति पर आधारित रास्ते में चलना चाहिए। हिन्दू-मुस्लिम समस्या पर वे अत्यन्त स्पष्ट थे। वे दूरदर्शी थे। अतएव उन्होंने प्रताप में लिखा था— “शुभ होगा वह दिन तब इस देश के मुसलमान यह समझने लगेंगे कि हमारा नाता इस देश के हिंदुओं से तुर्कों और काबुलियों की अपेक्षा अधिक बड़ा और स्वाभाविक है, और जब वे उसी प्रकार जिस प्रकार रोम और ग्रीस के वर्तमान ईसाई, निवासी अपने गैर-ईसाई पूर्वजों की कीर्ति और कला को अपनाते हैं, भारतवर्ष की प्राचीन कीर्ति एवं कला को अपनाने लगेंगे।”
वे जिस साम्प्रदायिक तुष्टिकरण के विरुद्ध लड़ते रहे। बाद में उसी तुष्टिकरण एवं मुस्लिम हठधर्मिता ने देश को विभाजन की त्रासदी में झोंका। और नरसंहार की विभीषिका से देश को रक्त रंजित कर दिया। इतना ही नहीं गणेश शंकर विद्यार्थी जी की हत्या भी कानपुर के साम्प्रदायिक दंगे में अज्ञात धर्मांध मुसलमानों द्वारा 25 मार्च 1931 को की गई थी। जबकि विद्यार्थी जी दंगे से हिन्दू-मुसलमानों को सुरक्षित लाने में जुटे हुए थे।
विद्यार्थी जी की पत्रकारिता के कई आयाम थे। वे हिन्दी के प्रति विशेष निष्ठा रखते थे। यह बात कम लोगों को ही पता होगी मुंशी प्रेमचंद को उर्दू से हिन्दी की ओर लाने में विद्यार्थी जी का ही अतुलनीय योगदान था। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि- मुंशी प्रेमचंद की पहले -पहल कई कहानियां 1920 —1925 के दौरान 'प्रभा' में ही प्रकाशित हुईं थी। इस समय 'प्रभा' कानपुर से 'प्रताप' प्रेस से प्रकाशित होती थी। 1929 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के गोरखपुर अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए विद्यार्थी जी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के विषय में कहा था— “हिंदी राष्ट्रभाषा बने, इसका यह अर्थ कदापी नहीं कि हिंदू हिंदू होने के नाते हिंदी सीखें। मेरे लिए तो हिंदी एक संस्कृति की प्रतीक है और केवल हिंदी के द्वारा ही बिखरे हुए भारत में एकत्व की भावना भरी जा सकती है और सबको एक सूत्र में आबद्ध करने का हिंदी एकमेव साधन है।”
इसी तरह उन्होंने राष्ट्र के स्वत्वबोध को जगाते हुए राष्ट्र भाषा के सन्दर्भ में कहा था—
''राजनीतिक पराधीनता पराधीन देश की भाषा पर अत्यंत विषम प्रहार करती है। विजयी लोगों की विजय-गति विजित के जीवन के प्रत्येक विभाग पर अपनी श्रेष्ठता की छाप लगाने का सतत प्रयत्न करती है। स्वाभाविक ढंग से विजितों की भाषा पर उनका सबसे पहले वार होता है। भाषा जातीय जीवन और उसकी संस्कृति की सर्वप्रधान रक्षिका है, वह उसके शील का दर्पण है, उसके विकास का वैभव है। भाषा जीती, और सब जीत लिया। फिर कुछ भी जीतने के लिए शेष नहीं रह जाता। विजितों के मुंह से निकली हुई विजयी जनों की भाषा उनकी दासता की सबसे बड़ी चिह्नानी है- पराई भाषा चरित्र की दृढ़ता का अपहरण कर लेती है, मौलिकता का विनाश कर देती है और नकल करने का स्वभाव बना करके उत्कृष्ट गुणों और प्रतिभा से नमस्कार करा देती है।”
वे पत्रकारिता को देश सेवा का सबसे अच्छा माध्यम मानते थे। उनकी पत्रकारिता के सिद्धान्त सत्यनिष्ठा, राष्ट्रनिष्ठा, स्वदेशी एवं स्वराज्य की संकल्पना पर आधारित थे। उनके ध्येय में भारतीय समाज का उत्थान एवं स्वाधीनता की चैतन्यता थी। उन्होंने भारतीय समाज की 'न्यासत्व' की पध्दति को 'प्रताप' में अपनाया। और 'प्रताप ट्रस्ट' का गठन किया था। 15 मार्च 1919 को रजिस्टर्ड प्रताप ट्रस्ट में पाँच सदस्य थे— गणेश शंकर विद्यार्थी, शिवनारायण मिश्र 'वैद्य', मैथिलीशरण गुप्त, डॉ. जवाहरलाल रोहतगी और लाला फूलचंद। विद्यार्थी जी की पत्रकारिता में 'प्रताप' की यात्रा के साथ- पं.माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, श्रीकृष्ण दत्त पालीवाल, श्रीराम शर्मा, देवव्रत शास्त्री, सुरेशचंद्र भट्टाचार्य और युगल किशोर सिंह शास्त्री इत्यादि का नाम प्रमुख सहयोगी पत्रकारों के रूप में जाना जाता है।
सरस्वती से अभ्युदय एवं तदुपरान्त 'प्रताप' व 'प्रभा' के माध्यम से उन्होंने भारतीय पत्रकारिता की क्रान्तिकारी धुरी का निर्माण किया। और स्वातन्त्र्य समर में भारतीय चेतना को जागृत करने के अभूतपूर्व पुरुषार्थ को उन्होंने निभाया। 18 वर्ष के प्रतापी 'प्रताप' ने भारत को 'स्वत्व-स्वाभिमान- स्वदेशी-स्वराज्य-स्वाधीनता एवं स्वधर्म' का महान पथ प्रशस्त किया। युगबोध दिशाबोध प्रदान किया। गणेश शंकर विद्यार्थी जी के अनन्य सहयोगी-मित्र दादा माखनलाल चतुर्वेदी ने 'कर्मवीर' में 28 मार्च 1935 को उनका स्मरण करते हुए लिखा—“कठिनाइयों में उन दिनों संकटों की अपेक्षा संन्यास अधिक यशस्वी होता था। गणेश जी ने इस प्रवाह को सीधा संकटों की ओर घुमा दिया। जमानतें, तलाशियां, मुकदमे, सजा-दंड देकर शासक सुखी होते, दंड पाकर गणेश गर्वीले होते क्योंकि गणेश जी संकटों में चाहे जो सोचते, किंतु सहस्र-सहस्र हिंदी भाषी, गणेश जी और 'प्रताप' के संकटों के साथ सोचते और सेवा के लिए प्रस्तुत रहते। पत्रकार-कला के हिंदी स्वरूप के 'प्रताप' नामक राष्ट्र मंच से गणेशी जी ने कायरों को, देश-घातकों को, महलों को, मुकुटों को, अत्याचारियों को और स्वार्थियों को लगातार चुनौतियां दीं और परिणाम में तलाशियां, अपमान, अर्थ हानि और कारागर सहे।”
- कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
साहित्यकार-स्तम्भकार एवं पत्रकार)
सन्दर्भ ग्रन्थ: गणेश शंकर विद्यार्थी और स्वतन्त्रता आन्दोलन
लेखक– विष्णु कुमार राय
२. पत्रकारिता के युग निर्माता गणेश शंकर विद्यार्थी— सुरेश सलिल
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