संकल्प न लेने के लिए संकल्प (व्यंग्य)
दुख की बात यह है कि हम दूसरों को सुधारने के संकल्प ज़्यादा लेते हैं। दूसरों को सुधारने का संकल्प हवा में लच्छा परांठा बनाने जैसा है। व्यवहारिक बात यह है कि संकल्प न लेना भी तो एक स्पष्ट, सुरक्षित संकल्प लेने जैसा ही है। न कोई पंगा, न कोई टेंशन, पूरा साल सुरक्षित।
नया साल धूम धाम से पधारने और पुराना चुपचाप खिसक जाने का हम जैसे आम लोगों को कहां पता चलता है। इसीलिए कितने ही संकल्प भी धारण किए बिना रह जाते हैं। पिछले साल दिसंबर में सोच रहा था कि अगले साल से अगले साल के उपलक्ष्य में आधा दर्जन नए संकल्प तो लेकर रहूंगा। अब तो एक और नया साल आ चुका है लेकिन पिछले साल तो कोरोना ने मेरे ही नहीं दुनिया के संकल्प करो न करो न कर दिए। मन ही मन पिछले चार साल से चल रहे अधूरे संकल्पों का विचार चुपचाप पुनः धारण कर लिया। वैसे भी समाज सेवा जैसे अनूठे कार्य के लिए, पुराने अच्छे संकल्प दोबारा ओढ़ लेना नया नैतिक कार्य करने जैसा है। इस बार मन ही मन ठान लिया है, जितनी चाहे सर्दी हो जाए, पुराने संकल्पों को अगले बरस पूरी गर्म जोशी के साथ, एक मिशन और जुनून की तरह लूँगा।
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अड़ोस पड़ोस ही नहीं पूरे शहर के लोगों का योगदान लूँगा और दूंगा। डिजिटल हो चुकी दुनिया के लिए भी कुछ न कुछ करूंगा। फिर संजीदगी से बैठकर अदरक, तुलसी व काली मिर्च के छौंक से बनी गर्मागर्म चाय पीकर विचार किया तो पिछले सालों ने समझाया, पुराने सारे संकल्प तो डूब चुके हैं कुछ नया तैराओ। दर्जनों लोगों से सीख सकते हैं जो रात दिन एक कर संकल्पों के आधार पर पूरी दुनिया में नाम कमा रहे हैं। आने वाला साल प्रेरित कर रहा है, अभी भी बहुत काम करने की ज़रूरत है। मैंने समझा है, हम सभी शहरवासी अगर हर अभियान को इस स्तर तक ले जाएँ कि अपने अपने क्षेत्र में प्रयासों में ज़रा सी भी कमी होने पर शर्मिंदगी महसूस होने लगे तो बात बन सकती है। सुना है दुनिया में पता नहीं कौन सी बार, बहुत से अनूठे मानवीय कार्य किए जा रहे हैं। हम जानवरों के लिए भी काफी कुछ कर सकते हैं तो आम लोगों के लिए क्या नहीं कर सकते। नए संकल्प लेने की सोचो तो खुद को सुधारने में अक्सर बड़ी परेशानी होती है, संकल्प बेहोश हो जाता है।
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दुख की बात यह है कि हम दूसरों को सुधारने के संकल्प ज़्यादा लेते हैं। दूसरों को सुधारने का संकल्प हवा में लच्छा परांठा बनाने जैसा है। व्यवहारिक बात यह है कि संकल्प न लेना भी तो एक स्पष्ट, सुरक्षित संकल्प लेने जैसा ही है। न कोई पंगा, न कोई टेंशन, पूरा साल सुरक्षित। जब पता है, यह वर्ल्ड ट्रेंड है कि कुछ दिन बाद ही अधिकांश संकल्प ढीले पड़ जाते हैं और अप्रैल आते आते उन्हें सांस चढ़ जाता है, कुछ की टांग टूट जाती है तो बेहतर है अपने पुराने संकल्प से ही चिपके रहो। कम से कम इस बहाने आत्मसम्मान टिका रहेगा और अपनी नज़र में इज्ज़त भी बनी रहेगी कि नए फालतू संकल्प नहीं लिए। साल के बारह महीने भी नाराज़ नहीं होंगे, उन बेचारों को बेकार के वायदे जो नहीं ढोने पड़ेंगे।
- संतोष उत्सुक
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