भाजपा के हिन्दुत्व में रुकावट है एससी-एसटी पर अत्याचार

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ANI

इस रिपोर्ट में जांच और चार्जशीट से संबंधित डेटा भी प्रस्तुत किया गया है। अनुसूचित जाति से संबंधित मामलों में 60.38 प्रतिशत मामलों में आरोप पत्र दाखिल किए गए, जबकि झूठे दावों या सबूतों की कमी के कारण 14.78 प्रतिशत मामलों में अंतिम रिपोर्ट दी गई।

हिन्दुओं की एकता की बात करने वाली भारतीय जनता पार्टी का यह सपना शायद ही कभी पूरा हो सकेगा। देश में अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचारों के मामले में देशभर में उत्तरप्रदेश पहले, मध्यप्रदेश दूसरे और राजस्थान तीसरे स्थान पर है। इन तीनों ही राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं। सर्वाधिक आश्चर्य यह है कि हाशिए पर रह रहे इन वर्गों पर अत्याचारों का मामला राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन सका। इन वर्गों की दुहाई के लिए घडियाली आंसू बहाने वाले राजनीतिक दलों और संगठनों ने इन अत्याचारों पर धरना-प्रदर्शन करना तो दूर मुंह तक नहीं खोला। भाजपाशासित राज्यों में एससी-एसटी पर अत्याचार शीर्ष पर होने के बावजूद यह मुद्दा चिंता का विषय नहीं बन सका। अत्याचारों के आंकड़ों की यह तस्वीर भाजपा के हिन्दुओं के एकता की सच्चाई उजागर करती है।   

एक सरकारी रिपोर्ट से पता चला है कि वर्ष 2022 में अनुसूचित जातियों (एसटी) के खिलाफ 97.7 प्रतिशत अत्याचार 13 राज्यों में केंद्रित थे, जिनमें उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में ऐसे मामलों की सबसे अधिक संख्या दर्ज की गई। उत्तर प्रदेश में 12,287 मामले (23.78 प्रतिशत), राजस्थान में 8,651 मामले (16.75 प्रतिशत) और मध्य प्रदेश में 7,732 मामले (14.97 प्रतिशत) दर्ज किए गए। इसके अलावा अन्य राज्यों में अधिक मामले दर्ज किए गए हैं, जिनमें बिहार में 6,799 मामले (13.16 प्रतिशत), ओडिशा में 3,576 मामले (6.93 प्रतिशत) और महाराष्ट्र में 2,706 मामले (5.24 प्रतिशत) शामिल हैं। वर्ष 2022 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत दर्ज किए गए कुल मामलों में से लगभग 81 प्रतिशत केवल इन छह राज्यों में दर्ज किए गए।

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इस अधिनियम के तहत 2022 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ कुल 51,656 मामले दर्ज किए गए। रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि ये मामले भारतीय दंड संहिता के तहत भी दर्ज किए गए थे। रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि एसटी के खिलाफ अत्याचार के अधिकांश मामले भी 13 राज्यों में हुए। एसटी से जुड़े 9,735 मामलों में से मध्य प्रदेश में 2,979 मामले (30.61 प्रतिशत), राजस्थान में 2,498 मामले (25.66 प्रतिशत) और ओडिशा में 773 मामले (7.94 प्रतिशत) दर्ज किए गए। एसटी से संबंधित अन्य मामलों में महाराष्ट्र में 691 मामले (7.10 प्रतिशत) और आंध्र प्रदेश में 499 मामले (5.13 प्रतिशत) शामिल हैं।   

इस रिपोर्ट में जांच और चार्जशीट से संबंधित डेटा भी प्रस्तुत किया गया है। अनुसूचित जाति से संबंधित मामलों में 60.38 प्रतिशत मामलों में आरोप पत्र दाखिल किए गए, जबकि झूठे दावों या सबूतों की कमी के कारण 14.78 प्रतिशत मामलों में अंतिम रिपोर्ट दी गई। वर्ष 2022 के अंत तक 17,166 मामलों की जांच अभी भी लंबित थी। अनुसूचित जनजाति से संबंधित मामलों में 63.32 प्रतिशत मामलों में आरोप पत्र दाखिल किए गए, जबकि 14.71 प्रतिशत मामलों में अंतिम रिपोर्ट दी गई। 2022 के अंत तक 2,702 मामलों की जांच जारी थी। रिपोर्ट में एक प्रमुख चिंता अधिनियम के तहत दोषसिद्धि दर में गिरावट है; साल 2022 में यह दर 2020 के 39.2 प्रतिशत से घटकर 32.4 प्रतिशत हो गई। रिपोर्ट में इन मामलों के निपटारे के लिए विशेष अदालतों की अपर्याप्त संख्या पर भी चिंता व्यक्त की गई है। 14 राज्यों के 498 जिलों में से केवल 194 जिलों ने विशेष अदालतें स्थापित की हैं ताकि मामलों की तेजी से सुनवाई हो सके। रिपोर्ट में ऐसे विशिष्ट जिलों की पहचान की गई है जहां अत्याचार की घटनाएं काफी अधिक हैं, लेकिन केवल 10 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने ऐसे जिलों की घोषणा की है। उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों में, जहां अनुसूचित जाति से संबंधित मामलों की अधिक संख्या दर्ज की गई, वहां कोई अत्याचार-ग्रस्त जिला नहीं बताया गया। रिपोर्ट में जाति आधारित हिंसा को रोकने और कमजोर समुदायों के लिए मजबूत सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए इन जिलों में हस्तक्षेप करने का आह्वान किया गया है। अनुसूचित जाति-जनजाति पर अत्याचारों की रोकथाम करने के लिए किए गए सरकारी उपाय दिखावटी साबित हुए हैं। यह समस्या सुरसा की तरह मुंह फाड़े चली आ रही है। आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में एससी/एसटी संरक्षण प्रकोष्ठ स्थापित किये गए हैं। बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, केरल और मध्य प्रदेश में एससी/एसटी अपराधों से निपटने के लिये विशेष पुलिस स्टेशन स्थापित किये गए हैं। दूसरे शब्दों में कहे तो इन वर्गों पर अत्याचारों के मामले में पुलिस की भूमिका पर सवालिया निशान लगते रहे हैं। यदि पुलिस ईमानदारी से कार्रवाई करती तो अत्याचारों के इन आंकड़ों की नौबत नहीं आती। 

एससी-एसटी अधिनियम, 1989 संसद द्वारा पारित एक अधिनियम है जो एससी एवं एसटी समुदायों के सदस्यों के विरुद्ध भेदभाव का निषेध करने तथा उनके विरुद्ध अत्याचार को रोकने के लिये बनाया गया है। यह अधिनियम इस निराशाजनक वास्तविकता को भी स्वीकार करता है कि अनेक उपाय करने के बावजूद अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों को उच्च जातियों के हाथों विभिन्न प्रकार के अत्याचारों का सामना करना पड़ रहा है। यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 15 (भेदभाव का प्रतिषेध), 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन) और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण) में उल्लिखित संवैधानिक सुरक्षा उपायों को ध्यान में रखते हुए लागू किया गया है, जिसका दोहरा उद्देश्य इन कमज़ोर समुदायों के सदस्यों की सुरक्षा के साथ-साथ जाति आधारित अत्याचारों के पीडि़तों को राहत और पुनर्वास प्रदान करना है।   

संशोधित एससी/एसटी अधिनियम, 2018 में प्रारंभिक जाँच अनिवार्य नहीं है और इन पर अत्याचार के मामलों में एफआइआर दर्ज करने के लिये वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति हेतु प्राधिकारी की पूर्व अनुमति की भी आवश्यकता नहीं है। एससी-एटी के उत्थान के लिए बनी संसदीय समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले चार वर्षों में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने संसद में एक भी रिपोर्ट पेश नहीं की है। भाजपा की रमा देवी की अध्यक्षता वाली सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता संबंधी स्थायी समिति ने पाया कि ये रिपोर्टें, यद्यपि आयोग द्वारा अंतिम रूप दे दी गई थीं, केन्द्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय के पास रोक दी गई थीं। अनुसूचित जाति-जनजाति के वोट बैंक के लिए सभी राजनीतिक दल प्रतिस्पर्धा में लगे रहते हैं, लेकिन जब मुद्दा उनके न्याय और विकास का हो तो सभी दलों को काठ मार जाता है। गौरतलब है कि विगत दिनों सुप्रीम कोर्ट ने इस वर्ग में अति पिछड़ों को अलग से आरक्षण देने और क्रीमी लेयर को आरक्षण से बाहर करने पर फैसला दिया तो सभी दलों और संगठनों ने जमकर शोर-शराबा किया। इसके विपरीत इन पर होने वाले अत्याचारों और विकास के मुद्दों पर राजनीतिक दलों का कोई सरोकार नहीं है। सर्वाधिक आश्चर्य यह है कि एक तरफ देश में अमृत महोत्सव मनाया जा रहा, वहीं दूसरी तरफ हाशिए पर मौजूद इन वर्गों पर अत्याचारों के मामलों में इजाफा हो रहा है। सिर्फ आरक्षण देने से इन वर्गों की सामाजिक-आर्थिक हालत अन्य वर्गों की तुलना में बराबरी हासिल नहीं कर सकती, यह तभी संभव है जब इनके विकास के लिए बनाई योजनाओं को व्यवहारिक स्तर पर अमलीजामा नहीं पहनाया जाता।

- योगेन्द्र योगी

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