International Day of Non-Violence: अहिंसा को जीवनशैली बनायें

International Day of Non Violence
ANI
ललित गर्ग । Oct 2 2024 9:29AM

महात्मा गांधी ने विश्व शांति, अहिंसा एवं आपसी सौहार्द की स्थापना के लिए देश-विदेश के शीर्ष नेताओं से मुलाकातें कीं, अहिंसक प्रयोग किये, भारत को अहिंसा के द्वारा आजादी दिलाई। उन्होंने आदर्श, शांतिपूर्ण एवं अहिंसक समाज के निर्माण के लिये वातावरण बनाया।

आज चारों तरफ हिंसा का बाहुल्य है। आज के युग तो अनावश्यक हिंसा का युग कहा जा सकता है। बिना मतलब जीवों की और आदमी की भी हिंसा हो रही है। हिंसा करना एक शौक बनता जा रहा है। धीरे-धीरे यह शौक आदमी की जीवनशैली बन रहा है। बिना किसी की हत्या किए आदमी को चैन नहीं मिलता। देश एवं दुनिया में जटिल होते हिंसक हालातों पर नियंत्रण के लिये राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्मदिन 2 अक्टूबर को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाना हमारे लिये गर्व की बात है। गांधी की अहिंसा ने भारत को गौरवान्वित किया है, भारत ही नहीं, दुनियाभर में अब उनकी जयन्ती को बड़े पैमाने पर अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। गांधी के अनुयायियों एवं उनमें आस्था रखने वाले उन तमाम लोगों को इससे हार्दिक प्रसन्नता हुई है जो बापू के सिद्वान्तों से गहरे रूप में प्रभावित हंै, अहिंसा के प्रचार-प्रसार में निरन्तर प्रयत्नशील हैं। यह बापू की अन्तर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता का बड़ा प्रमाण भी है। यह एक तरह से गांधीजी को दुनिया की एक विनम्र श्रद्वांजलि भी है। यह अहिंसा के प्रति समूची दुनिया की स्वीकृति भी कही जा सकती है।

महात्मा गांधी ने विश्व शांति, अहिंसा एवं आपसी सौहार्द की स्थापना के लिए देश-विदेश के शीर्ष नेताओं से मुलाकातें कीं, अहिंसक प्रयोग किये, भारत को अहिंसा के द्वारा आजादी दिलाई। उन्होंने आदर्श, शांतिपूर्ण एवं अहिंसक समाज के निर्माण के लिये वातावरण बनाया। सबसे पहले ‘अहिंसा परमो धर्मः’ का प्रयोग हिन्दुओं के पावन ग्रंथ ‘महाभारत’ के अनुशासन पर्व में किया गया था। लेकिन इसको अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलवायी महात्मा गांधी ने। गांधी ने अपनी वाणी से और अपने स्वयं के जीवन से इसे वह प्रतिष्ठा दिलाई कि अहिंसा के साथ महात्मा गांधी का नाम ऐसा जुड़ गया कि दोनों को अलग कर ही नहीं सकते। अहिंसा का सीधा-साधा अर्थ करें तो वह होगा कि व्यावहारिक जीवन में हम किसी को कष्ट नहीं पहुंचाएं, किसी प्राणी को अपने स्वार्थ के लिए दुःख न दें। ‘आत्मानः प्रतिकूलानि परेषाम् न समाचरेत्’’ इस भावना के अनुसार दूसरे व्यक्तियों से ऐसा व्यवहार करें जैसा कि हम उनसे अपने लिए अपेक्षा करते हैं। इतना ही नहीं सभी जीव-जन्तुओं के प्रति अर्थात् पूरे प्राणी मात्र के प्रति अहिंसा की भावना रखकर किसी प्राणी की अपने स्वार्थ व जीभ के स्वाद आदि के लिए हत्या न तो करें और न ही करवाएं और हत्या से उत्पन्न वस्तुओं का भी उपभोग नहीं करें।

इसे भी पढ़ें: World Vegetarian Day 2024: शाकाहार से पर्यावरण ही नहीं, विश्व-व्यवस्था भी सुरक्षित

हमारे लिये यह सन्तोष का विषय इसलिये है कि अहिंसा का जो प्रयोग भारत की भूमि से शुरू हुआ उसे संसार की सर्वोच्च संस्था ने जीवन के एक मूलभूत सूत्र के रूप में मान्यता दी। हम देशवासियों के लिये अपूर्व प्रसन्नता की बात है कि गांधी की प्रासंगिकता चमत्कारिक ढंग से बढ़ रही है। दुनिया उन्हें नए सिरे से खोज रही है। उनको खोजने का अर्थ है अपनी समस्याओं के समाधान खोजना, हिंसा एवं आतंकवाद की बढ़ती समस्या का समाधान खोजना। शायद इसीलिये कई विश्वविद्यालयों में उनके विचारों को पढ़ाया जा रहा है, उन पर शोध हो रहे हैं। आज भी भारत के लोग गांधी के पदचिन्हों पर चलते हुए अहिंसा का समर्थन करते हैं। पडौसी देश के साथ भी लगातार अहिंसा से पेश आते रहे हैं, लेकिन उन्होंने हमारी अहिंसा को कायरता समझने की भूल की है।

हिंसकवृत्ति आदमी को एक दिन कालसौकरिक कसाई बना देती है, कंस बना देती है, रावण बना देती है। एक ऐसा हिंसक समाज बन रहा है, जिसमें कुछ लोगों को दिन भर में जब तक किसी को मार नहीं देते, उन्हें बेचैनी-सी रहती है। इतिहास में ऐसे कुछ विकृत दिमाग के लोग हुए हैं, जिन्हें यातना देकर किसी को मारने में आनंद आता था। अपने शौक को पूरा करने के लिए वे कारागृह में लोगों को भेड़-बकरियों की तरह भरते थे और प्रतिदिन उनमें से कई को वीभत्स तरीके से मारते थे। इसमें उन्हें एक अव्यक्त आनंद की अनुभूति होती थी। सैमुबल बेकेट का मार्मिक कथन है कि आंसू बहना इस दुनिया में कभी नहीं थमता। एक शख्स की आंख में वह थमता है तो कहीं और किसी दूसरे की आंख में बहने लगता है। लेकिन यही बात हंसी पर भी लागू होती है।’ हिंसा के माहौल में अहिंसा के दीपक भी यत्र-तत्र प्रज्ज्वलित होते ही है। भले ही अहिंसा एवं शांति की लौ धीमी हो, लेकिन यह हिंसा एवं अशांति से कहीं बेहतर एवं कारगर है। अहिंसा दिवस की आयोजना इस मद्धिम होती रोशनी को तीव्र करने की प्रेरणा देती है।

जिनकी जीवनशैली हिंसाप्रधान होती है, उनकी दृष्टि में हिंसा ही हर समस्या का समाधान है। हिंसा एक मिथ्यादर्शन, किन्तु हिंसकवृत्ति के लोगों ने उसे सम्यक्दर्शन बना दिया है। जो जितनी बड़ी हिंसा करता है, उसे उतना ही सफल माना जाने लगा है। राजनीति में तो हिंसा जीत का हथियार बन गयी है। बड़े राष्ट्र इसी तरह की हिंसा के बल पर दुनिया पर अपना आधिपत्य करते हैं। बात शांति की हो, अहिंसा की हो और मार्ग हिंसा एवं अशांति का चुने तो यह कैसे संभव हो सकता है। अहिंसा एवं शांति को चाहने वालों जागरूक होना होगा और इसके लिये महात्मा गांधी के जीवन-दर्शन एवं सिद्धान्तों को सामने रखना होगा। गांधी ने कहा भी है कि अहिंसा ही धर्म है, वही जिन्दगी का एक रास्ता है।

अध्यात्म के आचार्यों ने हिंसा और युद्ध की मनोवृत्ति को बदलने के लिए मनोवैज्ञानिक भाषा का प्रयोग किया है। उन्होंने कहा है- युद्ध करना परम धर्म है, पर सच्चा योद्धा वह है, जो दूसरों से नहीं स्वयं से युद्ध करता है, अपने विकारों और आवेगों पर विजय प्राप्त करता है। जो इस सत्य को आत्मसात कर लेता है, उसके जीवन की सारी दिशाएं बदल जाती हैं। वह अपनी शक्तियों का उपयोग स्व-पर कल्याण के लिए करता है। जबकि एक हिंसक अपनी बुद्धि और शक्ति का उपयोग विनाश और विध्वंस के लिए करता है। पडौसी देश पाकिस्तान ऐसा ही करता रहा है, उसको अपनी अवाम के बारे में सोचना चाहिए। शायद वह कभी भी हिंसा एवं युद्ध नहीं चाहती है।

गांधीजी आज संसार के सबसे लोकप्रिय भारतीय बन गये हैं, जिन्हें कोई हैरत से देख रहा है तो कोई कौतुक से। इन स्थितियों के बावजूद उनका विरोध भी जारी है। उनके व्यक्तित्व के कई अनजान और अंधेरे पहलुओं को उजागर करते हुए उन्हें पतित साबित करने के भी लगातार प्रयास होते रहे हैं, लेकिन वे हर बार ज्यादा निखर कर सामने आए हैं, उनके सिद्धान्तों की चमक और भी बढ़ी है। वैसे यह लम्बे शोध का विषय है कि आज जब हिंसा और शस्त्र की ताकत बढ़ रही है, बड़ी शक्तियां हिंसा को तीक्ष्ण बनाने पर तुली हुई है, उस समय अहिंसा की ताकत को भी स्वीकारा जा रहा है। यह बात भी थोड़ी अजीब सी लगती है कि पूंजी केन्द्रित विकास के इस तूफान में एक ऐसा शख्स हमें क्यों महत्वपूर्ण लगता है जो आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की वकालत करता रहा, जो छोटी पूंजी या लघु उत्पादन प्रणाली की बात करता रहा। सवाल यह भी उठता है कि मनुष्यता के पतन की बड़ी-बड़ी दास्तानों के बीच आदमी के हृदय परिवर्तन के प्रति विश्वास का क्या मतलब है? जब हथियार ही व्यवस्थाओं के नियामक बन गये हों तब अहिंसा की आवाज कितना असर डाल पाएगी? एक वैकल्पिक व्यवस्था और जीवन की तलाश में सक्रिय लोगों को गांधीवाद से ज्यादा मदद मिल रही है। मनुष्य, मनुष्यता और दुनिया को बचाने के लिए अहिंसा से बढ़कर कोई उपाय-आश्रय नहीं हो सकता। इस दृष्टि से अहिंसा दिवस सम्पूर्ण विश्व को अहिंसा की ताकत और प्रासंगिकता से अवगत कराने का सशक्त माध्यम है। वस्तुतः अहिंसा मनुष्यता की प्राण-वायु आॅक्सीजन है। प्रकृति, पर्यावरण पृथ्वी, पानी और प्राणिमात्र की रक्षा करने वाली अहिंसा ही है। मानव ने ज्ञान-विज्ञान में आश्चर्यजनक प्रगति की है। परन्तु अपने और औरों के जीवन के प्रति सम्मान में कमी आई है। विचार-क्रान्तियां बहुत हुईं, किन्तु आचार-स्तर पर क्रान्तिकारी परिवर्तन कम हुए। शान्ति, अहिंसा और मानवाधिकारों की बातें संसार में बहुत हो रही हैं, किन्तु सम्यक-आचरण का अभाव अखरता है। गांधीजी ने इन स्थितियों को गहराई से समझा और अहिंसा को अपने जीवन का मूल सूत्र बनाया। आज यदि विश्व 2 अक्टूबर को अहिंसा दिवस के रूप में मनाता है, तो इसमें कोई अचंभे वाली बात नहीं है। यह गांधीजी का नहीं बल्कि अहिंसा का सम्मान है। अहिंसा दिवस मनाना तभी सार्थक होगा जब हम उसे अपनी जीवनशैली बनायेंगे।  

- ललित गर्ग

पत्रकार, स्तंभकार, लेखक

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़