भारत की प्रगति की राह में कोरोना अकेला बाधक नहीं है, आंदोलनजीवी भी पूरा साथ दे रहे हैं
महामारी के इस दौर में कोरोना वायरस तो देश की प्रगति की राह में बाधा खड़ी कर ही रहा है यह आंदोलनकारी भी पीछे नहीं हैं। ऐसा लगता है कि इनका प्रयास है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को विकास की पटरी पर लौटने नहीं दिया जाये। वरना भारत बंद के आह्वान का क्या औचित्य हो सकता है?
कोरोना वायरस की दूसरी लहर के कारण देशभर के कई शहरों में पहले ही पाबंदियां लगी हुई हैं, कहीं लॉकडाउन है तो कहीं रात्रिकालीन कर्फ्यू लगा हुआ है। इसी बीच किसानों के नाम पर राजनीति कर रहे तथाकथित किसान नेताओं ने भारत बंद का ऐलान कर दिया। इस भारत बंद को आम जनता का तो समर्थन नहीं मिला लेकिन किसान नेताओं ने जरूर जगह-जगह ट्रेनें रोकीं, राष्ट्रीय राजमार्ग बाधित किये और आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति को बाधित करने का प्रयास किया। सवाल उठता है कि ऐसा करके किसान नेताओं ने किसको परेशान किया। ट्रेनें रोके जाने, या ट्रेनें रद्द होने से होली के त्योहार पर अपने घर जा रहे यात्रियों को परिवार सहित परेशानी का सामना करना पड़ा। ट्रेनें रोके जाने से रेलवे को नुकसान उठाना पड़ा जो पहले ही कोरोना काल में एक साल से तमाम तरह की परेशानियों को झेल रही है। राष्ट्रीय राजमार्ग बाधित होने से यात्रियों को दूसरा तथा लंबा रास्ता लेने पर बाध्य होना पड़ा या फिर ट्रैफिक जाम में फँस कर परेशान होना पड़ा। क्या किसान नेताओं को लगता है कि सरकारी खजाने को नुकसान पहुँचा कर और आम जनता को परेशान करने से उनका आंदोलन मजबूत हुआ है?
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महामारी के इस दौर में कोरोना वायरस तो देश की प्रगति की राह में बाधा खड़ी कर ही रहा है यह आंदोलनकारी भी पीछे नहीं हैं। ऐसा लगता है कि इनका प्रयास है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को विकास की पटरी पर लौटने नहीं दिया जाये। वरना भारत बंद के आह्वान का क्या औचित्य हो सकता है? देश को बंद करने की मानसिकता विकास विरोधी ही मानी जायेगी। अपने हक की बात करना जायज है लेकिन सिर्फ अपने हक की बात करना गलत है। ऐसा तो है नहीं कि सरकार या अदालत किसान नेताओं की बात सुन नहीं रही। आज भी उच्चतम न्यायालय द्वारा बनायी गयी कमेटी किसानों के मुद्दे पर सभी पक्षों से बातचीत कर अपनी रिपोर्ट तैयार करने में लगी हुई है। अगर किसान नेताओं को सरकार की नहीं सुननी तो उच्चतम न्यायालय के ही फैसले का इंतजार कर लें। भारत बंद जैसे आयोजनों से साफ तौर पर बचा जाना चाहिए था वह भी तब जब उच्चतम न्यायालय ने कृषि कानूनों के क्रियान्वयन पर स्थगन लगाया हुआ है।
आंदोलन की धार के कमजोर पड़ते जाने से और किसान नेताओं को चुनावी राज्यों में तवज्जो नहीं मिलने से यह लोग परेशान हैं तभी तो फिर से बैरिकेड तोड़ने और दिल्ली में घुसने का आह्वान कर रहे हैं। जो लोग खुद के किसान नेता होने का दावा कर रहे हैं भला उन्हें राजनीतिज्ञों के साथ चुनावी मंच साझा करने की और चुनावी भाषण देने की क्या जरूरत है? यही नहीं अपने भाषणों में यह लोग जिस तरह सिर्फ एक दल को निशाने पर ले रहे हैं उससे बार-बार यही प्रदर्शित हो रहा है कि यह सारा आंदोलन प्रायोजित है। संदेह की जरा भी गुंजाइश हो तो उसे कांग्रेस नेता अपने ट्वीटों के जरिये खत्म कर देते हैं। उल्लेखनीय है कि राहुल गांधी बार-बार ट्वीट के जरिये दावा करते हैं कि सत्याग्रह कृषि कानून वापस होने तक जारी रहेगा।
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बहरहाल, किसान नेताओं को चाहिए कि सरकार से जंग में देश को नुकसान नहीं पहुँचाएं। बड़ी मुश्किल से भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से उबरी है। आईएमएफ ने भी माना है कि ‘‘भारतीय अर्थव्यवस्था क्रमिक सुधार की राह पर है और 2020 की चौथी तिमाही में वास्तविक जीडीपी वृद्धि फिर से सकारात्मक हो सकती है। ऐसा महामारी की शुरुआत के बाद पहली बार होगा और यह सकल, स्थिर पूंजी निर्माण में बढ़ोतरी द्वारा समर्थित है।’’ इस वक्तव्य पर किसान नेताओं को गौर करना चाहिए। वैसे भी इस आंदोलन को देशभर के किसानों का समर्थन प्राप्त नहीं है साथ ही हरियाणा और पंजाब के जो किसान इस आंदोलन में शामिल हैं वह कोई आम किसान नहीं बल्कि समृद्ध किसान हैं और इन किसानों की समृद्धि इनके आंदोलन स्थल पर साफ नजर आती है।
-नीरज कुमार दुबे
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