Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-7
हे राजन् ! इस जगत में पूर्णरूप से वही सुखी है, जिसके पास धन की आय हो, नित्य निरोगी रहे, पत्नी अनुकूल तथा प्रियवादिनी हो, पुत्र आज्ञाकारी हो तथा धन उपार्जन की विद्या हो ये छः बातें इंस मनुष्य लोक में सुखदायिनी होती हैं।
मित्रो! आजकल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, तो आइए! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और अपने जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें और अपना मानव जीवन धन्य करें।
प्रस्तुत प्रसंग में विदुर जी ने हमारे जीवनोपयोगी बिन्दुओं पर बड़ी बारीकी से अपनी राय व्यक्त की है। आइए ! देखते हैं ---
षडिमान्पुरुषो जह्याद्भिन्नां नावमिवार्णवे ।
अप्रवक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम् ॥
अरक्षितारं राजानं भार्यां चाप्रिय वादिनीम् ।
ग्रामकारं च गोपालं वनकामं च नापितम् ॥
विदुर जी कहते हैं--- हे राजन ! उपदेश न देने वाले आचार्य, मंत्र का उच्चारण न करने वाले यज्ञकर्ता, रक्षा करने में असमर्थ राजा, कटु वचन बोलनेवाली स्त्री गाँव में रहने की इच्छा वाले ग्वाले तथा वन में रहने की इच्छा वाले नाई-इन छः को उसी तरह छोड़ देना चाहिए जैसे समुद्र की सैर करने वाला मनुष्य टूटी फूटी हुई नाव का परित्याग कर देता है ।।
षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन ।
सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः ॥
मनुष्य को कभी भी सत्य, दान, कर्मशीलता, अनसूया (दूसरों में दोष देखने की प्रवृत्ति का अभाव), क्षमा तथा धैर्य-इन छः गुणों का त्याग नहीं करना चाहिये॥
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अर्थागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च ।
वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या षट् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥
हे राजन् ! इस जगत में पूर्णरूप से वही सुखी है, जिसके पास धन की आय हो, नित्य निरोगी रहे, पत्नी अनुकूल तथा प्रियवादिनी हो, पुत्र आज्ञाकारी हो तथा धन उपार्जन की विद्या हो ये छः बातें इंस मनुष्य लोक में सुखदायिनी होती हैं।
षण्णामात्मनि नित्यानामैश्वर्यं योऽधिगच्छति ।
न स पापैः कुतोऽनर्थैर्युज्यते विजितेन्द्रियः ॥
मनमें नित्य रहने वाले छः शत्रु-काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्सर्य को जो अपने वश में कर लेता है, वह जितेन्द्रिय पुरुष किसी भी पाप का भागी नहीं होता।
षडिमे षट्सु जीवन्ति सप्तमो नोपलभ्यते ।
चोराः प्रमत्ते जीवन्ति व्याधितेषु चिकित्सकाः ॥
प्रमदाः कामयानेषु यजमानेषु याजकाः ।
राजा विवदमानेषु नित्यं मूर्खेषु पण्डिताः ॥
निम्नाङ्कित छः प्रकार के मनुष्य छः प्रकार के लोगों से अपनी जीविका चलाते हैं। चोर असावधान पुरुष से, वैद्य रोगी से, व्यभिचारी स्त्रियाँ कामी पुरुषों से, पुरोहित अपने यजमान से, राजा झगड़ने वालों से तथा विद्वान् पुरुष बेवकूफ़ों से अपनी जीविका चलाते हैं ॥
षडेते ह्यवमन्यन्ते नित्यं पूर्वोपकारिणम् ।
आचार्यं शिक्षिता शिष्याः कृतदारश्च मातरम् ॥ ९२ ॥
नारिं विगतकामस्तु कृतार्थाश्च प्रयोजकम् ।
नावं निस्तीर्णकान्तारा नातुराश्च चिकित्सकम् ॥ ९३ ॥
विदुर जी कहते हैं---अक्सर ये छः लोग अपने पूर्व उपकारी का अनादर करते हुए देखे जाते हैं- शिक्षा समाप्त हो जाने पर शिष्य आचार्य का, विवाहित बेटे माता-पिता का, कामवासना की शान्ति हो जाने पर मनुष्य स्त्री का, कार्य की सिद्धि हो जाने पर सहायक का, नदी की दुर्गम धारा पार कर लेने वाले पुरुष नाविक का तथा रोंगी पुरुष रोग छूटने के बाद वैद्य का तिरस्कार कर देते हैं ऐसा करने से बचना चाहिए।
आरोग्यमानृण्यमविप्रवासः सद्भिर्मनुष्यैः सह संप्रयोगः ।
स्वप्रत्यया वृत्तिरभीतवासः षट् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥
हे राजन् ! सदा निरोग रहना, ऋणी न होना, परदेश में न रहना, अच्छे लोगों के साथ उठाना-बैठना, अपनी वृत्ति से जीविका चलाना और निडर होकर रहना-ये छः मनुष्य लोक के सुख हैं।
ईर्षुर्घृणी नसन्तुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः ।
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुःखिताः ॥
ईर्ष्या करने वाला, घृणा करनेवाला, असन्तोषी, क्रोधी, सदा शङ्कित रहनेवाला और दूसरे के भाग्य पर जीवन-निर्वाह करने वाला- ये छः सदा दुःखी रहते हैं हमें उपरोक्त अवगुणों से दूर रहना चाहिए।
सप्त दोषाः सदा राज्ञा हातव्या व्यसनोदयाः ।
प्रायशो यैर्विनश्यन्ति कृतमूलाश्च पार्थिवाः ॥ ९६ ॥
स्त्रियोऽक्षा मृगया पानं वाक्पारुष्यं च पञ्चमम् ।
महच्च दण्डपारुष्यमर्थदूषणमेव च ॥ ९७ ॥
जो राजा स्त्री में अति आसक्ति रखता हो, जूआ, शिकार, मद्यपान करता हो वचन कठोर हो, अत्यन्त कठोर दण्ड देता हो और धनका दुरुपयोग करता हो ऐसे राजा को सदा के लिए त्याग देने चाहिये। ऐसे राजा अपने आप नष्ट हो जाते हैं ॥
अष्टौ पूर्वनिमित्तानि नरस्य विनशिष्यतः ।
ब्राह्मणान्प्रथमं द्वेष्टि ब्राह्मणैश्च विरुध्यते ॥
ब्राह्मण स्वानि चादत्ते ब्राह्मणांश्च जिघांसति ।
रमते निन्दया चैषां प्रशंसां नाभिनन्दति ॥
नैतान्स्मरति कृत्येषु याचितश्चाभ्यसूयति ।
एतान्दोषान्नरः प्राज्ञो बुद्ध्या बुद्ध्वा विवर्जयेत् ॥
विनाश के मुख में पड़ने वाले मनुष्यों की आठ पहचान बताते हुए विदुर जी कहते हैं--- प्रथम तो वह ब्राह्मणों से द्वेष करता है, फिर उनके विरोधका पात्र बनता है, ब्राह्मणों का धन हड़प लेता है, उनको मारना चाहता है, ब्राह्मणों की निन्दा में आनन्द मानता है, उनकी प्रशंसा सुनना नहीं चाहता, यज्ञ-यागादि में उनका स्मरण नहीं करता तथा कुछ माँगने पर उनमें दोष निकालने लगता है । इन सब दोषों को बुद्धिमान् मनुष्य समझे और समझकर त्याग दे ॥
शेष अगले प्रसंग में ------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी
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