Gyan Ganga: माता सीता ने क्षण भर में रावण के संपूर्ण बल की पोल खोल कर रख दी थी
महिला सशक्तिकरण का इससे सुंदर उदाहरण भला और क्या हो सकता है। एक महिला, जो कि रावण जैसे दुष्ट व कामी प्राणी के आधीन है। लेकिन तब भी उनका स्तीत्व ऐसा तेजोमय है, कि रावण के ही घर में, उसकी रानी पटरानियों के समक्ष ही, रावण को मात्र एक तृण के सहारे, बौना सिद्ध कर दिया।
रावण वर्तमान काल में संपूर्ण जगत में महाबली के पद पर बिराजमान है। सुना है कि उसने काल को भी वश में कर रखा है। जलचर, थलचन व नभचर, सभी उसके आदेश का पालन करते हैं। लंका वासी व समस्त धरा वासियों में, उसके बल की धाँक है, व कौन सा ऐसा स्थान है, जहाँ उसका भय व वर्चस्व नहीं है। लेकिन देखिए, माता सीता ने क्षण भर में उसके संपूर्ण बल की पोल खोल कर रख दी। जी हाँ! रावण जैसे ही माता सीता की ओर बढ़ने लगता है, माता सीता मात्र एक तृण की आड़ लेकर, लंका पति रावण को आगे बढ़ने से रोक देती है-
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‘तृन धरि ओट कहति बैदेही।
सुमिरि अवधपति परम सनेही।।’
महिला सशक्तिकरण का इससे सुंदर उदाहरण भला और क्या हो सकता है। एक महिला, जो कि रावण जैसे दुष्ट व कामी प्राणी के आधीन है। लेकिन तब भी उनका स्तीत्व ऐसा तेजोमय है, कि रावण के ही घर में, उसकी रानी पटरानियों के समक्ष ही, रावण को मात्र एक तृण के सहारे, बौना सिद्ध कर दिया। रावण का इतना साहस नहीं, कि वह श्रीजानकी जी से अपनी कोई बात, उनसे बलात मनवा सके। माँ जानकी जी का चरित्र हमें यह सिखा रहा है, कि एक महिला चाहे, तो तीनों लोकों के स्वामी को भी अपने समक्ष, अपने स्तीत्व व धर्म के बल पर, झुकने पर विवश कर सकती है। बात केवल रावण को तिनका दिखाने तक ही सीमित रहती, तो कोई बात नहीं थी। लेकिन श्रीजानकी जी ने, जो शब्द रावण के लिए प्रयोग किए, उन शब्दों को सुन तो रावण अपना आपा ही खो बैठा था। माँ जानकी रावण को उसकी वास्तविक औकात से परिचय करवाती हुई कहती हैं-
‘सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा।
कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा।।
अस मन समुझु कहति जानकी।
खल ससुधि नहिं रघुबीर बान की।।’
अर्थात हे दशमुख! सुन, क्या जुगनू के प्रकाश से भी कमलिनी खिल सकती है? कहाँ श्रीराम जी रुपी सूर्य, और कहाँ तुझ जैसा रावण रुपी एक क्षुद्र सा जुगनू? अरे दुष्ट! तुझे श्रीरघुवीर जी के बाण की खबर नहीं है। तभी तो तूं इतने दुस्साहस पर उतारु है। रावण ने जैसे ही यह वाक्य सुनें, तो उसे मानों रोम-रोम में अग्नि की ज्वालायों ने घेर लिया हो। वह क्रोध से तिलमिला उठा। कारण कि जो धूल का कण स्वयं को पर्वत मानने की भूल करे बैठे था, और पर्वत भी कौन सा, कोई साधारण पर्वत नहीं, अपितु स्वर्ण का मैनाक पर्वत। और उसके ही मुख पर उसे कहा जा रहा है, कि वह कोई पर्वत वगैरह नहीं है। अपितु एक क्षुद्र सा धूल का कण है। तो उसे भला कैसा महसूस होगा। रावण को ठीक वैसा ही महसूस हुआ, जब माँ जानकी जी ने रावण की तुलना एक क्षुद्र से जुगनू सी करदी, और श्रीराम जी को उन्होंने सूर्य की संज्ञा दी। रावण ऐसे में क्या कर सकता था। उसने वही किया, जो एक कुत्ता क्रोध आने पर करता है। जी हाँ! रावण पहले तो जितना भोंक सकता था, उतना भोंका। तद्पश्चात उसने स्वान की ही भाँति काट खाने का भी दुस्साहस किया। रावण ने अपनी चँद्रहास तलवार को म्यान से निकाला, और माता सीता को वध करने के इरादे से उनकी ओर बढ़ा-
‘सीता तैं मम कृत अपमाना।
कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना।।
नाहिं त सपदि मानु मम बानी।
सुमुखि होति न त जीवन हानी।।’
रावण बुडबुडाता बोला! अरे सीता, तूने मेरा घोर अपमान किया है। देखना मैं तेरा सिर, इस कठोर कृपाण से धड़ से अलग कर दूंगा। अब भी समय है। अगर तू मेरी बात मान लेती है, तो मैं तेरा यह अक्षम्य अपराध क्षमा कर दूंगा, अन्यथा तुझे अभी अपने प्राणों से हाथ धोना पडे़गा। रावण को लगा, कि श्रीजानकी जी अब अवश्य ही भय से काँपते हुये, मेरे चरणों में गिर कर प्राणों की भीख मांगती दिखाई पडे़गी। लेकिन उसे क्या पता था, कि जो स्वयं प्राण दायनि हैं। जिनके श्रीचरणों में तीनों देव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) प्रत्येक क्षण नत्मस्तक हों। भला वे माता सीता जी भी क्या किसी के चरणों में अपने प्राणों की भीख मांगती नज़र आ सकती हैं? लेकिन भ्रम जब हो ही जाये, तो उसका फिर क्या समाधान है। और बिना समधान के तो फिर, सिवा भटकने के ओर कोई चारा ही नहीं। रावण बस इसी भटकना में डोल रहा है। उसे पता ही नहीं, कि वह सागर को जाकर धमकी दे रहा है, कि मेरी बात मान ले, अन्यथा मैं अपने माथे पर आई एक पसीने की बूँद तुम्हें कतई नहीं दूँग। उस व्यक्ति को अब कौन समझाये, कि सागर को तुम्हारी किसी बूँद से कोई सरोकार नहीं। और पसीने वाली बूँद से तो बिल्कुल भी नहीं। रावण का हृदय तो पहले ही जल भुन रहा था। लेकिन माँ जानकी जी, बजाये कि रावण से भयभीत होती, उलटे रावण को एक बात ओर ऐसी बोलती हैं, कि रावण तो मानो वहीं खड़े खड़े ही क्रोध की अग्नि में भस्म सा हो जाता है। माता सीता रावण को ललकारते हुए बोली-
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‘स्याम सरोज दाम सम सुंदर।
प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर।।
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा।
सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा।।’
माता सीता बोली! हे दशग्रीव, ध्यान से सुन ले। प्रभु की भुजा, जो कि श्याम कमल की माला के समान सुंदर व हाथी की सँूड के समान (पुष्ट व विशाल) है, या तो वह भुजा ही मेरे कंठ में पडे़गी, अथवा तेरी भयानक तलवार ही मेरे कंठ में स्थान लेगी। लेकिन भूल कर भी मेरा आलिंगन तेरे पापी तन को प्राप्त नहीं होगा। हे सठ सुन! यही मेरा सच्च प्रण है। माता सीता इतने दुख व कष्ट में हैं, कि वे चंद्रहास तलवार को ही विनति करने लगती हैं, कि हे चंद्रहास तलवार! श्रीरघुवीर जी के विरह की अग्नि से उत्पन्न मेरी बड़ी भारी जलन को तूं हर ले। हे चंद्रहास तलवार। तूं शीतल, तीव्र व श्रेष्ठ धारा बहाती हैं। मेरी विनति है, कि मेरे दुख को तूं हर लें-
‘चंद्रहास हरु मम पकितापं।
रघुपति बिरह अनल संजातं।।
सीतल निसित बहसि बर धारा।
कह सीता हरु मम दुख भारा।।’
माता सीता जी के यह वचन सुन, क्या रावण, माता सीता जी पर अपनी चंद्रहास तलवार से वार कर देता है, अथवा नहीं। और क्या श्रीहनुमान जी भी, यह सब वाक्य चुपचाप बैठे देखते रहते हैं? जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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