Gyan Ganga: रावण ने सीताजी के समक्ष कौन-सा बड़ा शस्त्र चलाया था?
भला ऐसा कोई दानी तुम्हें आज तक मिला है, जो अपना सर्वस्व तुम पर लुटा दे? रावण ने मानों अपना सबसे बड़ा शस्त्र चलाया था। जिससे रावण मान बैठा था, कि श्रीसीता जी के पास मुझे समर्पित होने के इलावा दूसरा कोई विकल्प ही नहीं बचा है।
रावण माता सीता को साम नीति के अंतर्गत अपने अनुकूल करने में जब विफल हो जाता है, तो वह ‘दान नीति’ का उपयोग करता है। वह माता सीता को कहता है, कि हे सयानी! एक बार तू मुझे देख तो सही। देखना, मैं तुम्हें बहुत बड़ा दान दूँगा। और दान भी कोई ऐसा वैसा नहीं, अपितु ऐसा दान, कि तुम कल्पना भी नहीं कर सकती। आस पास देखने-सुनने वाली रानियां व राक्षसियां, यह सुनकर आश्चर्य में पड़ गईं, कि आखिर रावण दान में क्या देने जा रहा है। क्योंकि रावण तो ऐसा स्वार्थी है, कि बिना स्वार्थ के तो वह अपने बालों की जूँ तक किसी को न दे। और रावण है कि आज बहुत बड़ा दान देने जा रहा है? जी हाँ! रावण कहता है-
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‘कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।
मंदोदरी आदि सब रानी।।
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा।
एक बार बिलोकु मम ओरा।।’
अर्थात हे सुमुखी! मैं तुम्हें सोने की लंका का दान दूँ, तो यह मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं होगी। मैं मानता हूँ, कि नारी को स्वर्ण अति प्रिय होता है। और निश्चित ही तुम्हें भी स्वर्ण अति प्रिय है। तभी तो मैंने मारीच को स्वर्ण का मृग बनाकर तुम्हें आकर्षित करने का आदेश दिया था। वह स्वर्ण मृग का लालच देकर तुम्हें हर तो लाया, लेकिन लगता है कि इससे तुम्हारे हृदय को अतिअंत आघात पहुँचा है। और मुझे ऐसा आभास-सा हो रहा है, कि उस घटनाक्रम के चलते, तुम्हें स्वर्ण से तनिक अरुचि उत्पन्न हो गई होगी। जिस कारण कि लंका का स्वर्ण तुम्हें आकर्षित नहीं कर रहा। तो चलो ठीक है, मैं तुम्हें आज से और अभी से, लंका की पटरानी, अर्थात मंदोदरी सहित अपनी समस्त रानियों को तुम्हारी दासियां बनाने को तैयार हूँ। ऐसे दान की तो तुमने निश्चित ही कभी कल्पना भी नहीं की होगी। मिठाई लेते हैं, तो मिठाई का डिब्बा जैसे मुफ्त में मिल जाता है। ठीक मेरी रानियों व पटरानी सहित, जब मैं भी तुम्हारी दासतां स्वीकार कर रहा हूँ, तो लंका की मालकिन तो तुम सहज ही बन जायोगी।
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भला ऐसा कोई दानी तुम्हें आज तक मिला है, जो अपना सर्वस्व तुम पर लुटा दे? रावण ने मानो अपना सबसे बड़ा शस्त्र चलाया था। जिससे रावण मान बैठा था, कि श्रीसीता जी के पास मुझे समर्पित होने के इलावा दूसरा कोई विकल्प ही नहीं बचा है। पर रावण को क्या पता था, कि वह माता सीता की पावन देह का हरण तो कर सकता है। लेकिन उनके हृदय का नहीं। रही बात उसके दास बनने की, तो उसे दास ही बनने की इतनी ही चाह है, तो वह श्रीहनुमान जी की ही भाँति दास क्यों नहीं बना। कारण कि श्रीहनुमान जी बैठे भले ही, माता सीता जी से ऊपर के स्थान पर हों। अर्थात वे ऊपर वृक्ष पर बैठे थे। लेकिन उनका मन माता सीता जी के श्रीचरणों में था। और रावण का मन श्रीसीता जी के श्रीचरणों में नहीं, अपितु उनके श्रीमुख पर था। उसमें भी भाव यह नहीं था, कि हे श्रीसीता जी आप सुमुखि हैं, यह जगत प्रसिद्ध है। पर आप को देख कर मुझे यह दुख हो रहा है, कि मेरी माता कैकसी, आप जितनी सुंदर क्यों नहीं थी। ऐसा सुंदर भाव अगर रावण का होता, ता रावण का निश्चित ही कल्याण हो जाता।
रावण की तो बस एक ही धुन थी, कि श्रीसीता जी मुझे पत्नि रूप में प्राप्त हों। धरती पर इससे बड़ा पागल भला और कौन होगा, जो अपनी माँ पर ही मोहित हो जाये। कारण कि माता सीता जी, तात्विक दृष्टि से, जगत जननी होने के नाते रावण की भी माता ही हुई। और माता के श्रीमुख पर जिसे ममत्व न दिख कर, काम दिखाई दे, तो भला वह प्राणी का मानसिक स्तर सामान्य कैसे हो सकता है। और वह रावण, जिसका चिंतन व संस्कार, पूर्णतः कीचड़ से भी मलिन हों, भला माता सीता को दान में क्या देगा, कीचड़ ही न? माता सीता को पत्नि रूप में पाने की तो छोड़ ही दें, माता सीता तो रावण की और निहार तक नहीं रही थी। तभी रावण श्रीसीता जी की मिन्नतें कर रहा है, कि हे सीता! आप एक बार मेरी ओर निहार तो लें- ‘एक बार बिलोकु मम ओरा।।’ और माता सीता जी रावण की और एक बार भी झाँक तक नहीं रहीं। माता सीता रावण को क्या उत्तर देती हैं। जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती
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