History Revisited: महानायक की कश्मीर कुर्बानी की अनसुनी कहानी, डॉ. मुखर्जी को 'जहरीला' इंजेक्शन किसने लगाया?
श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई 1901 को एक संपन्न और प्रतिष्ठित बंगाली परिवार में हुआ था। पिता आशुतोष मुखर्जी बंगाल के एक जाने माने शिक्षाविद् थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बचपन का नाम बेनी था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा भवानीपुर के मित्र इंस्टीटूशन से हुई थी।
स्वतंत्रता के बाद इस देश को आगे ले जाने और जन जन तक आजादी की अहमियत को पहुंचाने के लिए तमाम दलों ने साथ मिलकर काम किया। आजादी के वक्त देश की जो अंतरिम सरकरा बनी उसमें तमाम दलों के लोग शामिल थे। इन लोगों की राजनीतिक राय एक दूसरे से अलग जरूर रही होगी। लेकिन देश को नये रास्ते पर ले जाने की चाहत सबके मन में थी। इनमें से कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्होंने अपनी विचारधारा और राष्ट्रवाद से कभी समझौता नहीं किया और देश की अखंडता के लिए अपना सबकुछ न्य़ौछावर कर दिया। ऐसे ही शख्सियत थे डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी। एक दक्ष राजनेता, विद्वान और स्पष्टवादी के रूप तौर पर न केवल वो अपने चाहने वालों बल्कि वैचारिक विरोधियों के बीच भी वो सम्मान से याद किए जाते हैं। लेकिन उनका जीवन दुर्भाग्यवश इतना लंबा नहीं चला और 1953 में उनकी मौत हो गई। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निधन के करीब सात दशक गुजर चुके हैं लेकिन फिर भी उनकी मौत एक पहेली बनी हुई है। कुछ समय पूर्व कोलकाता हाईकोर्ट में एक याचिका भी दायर की गई थी। जिसमें याचिकाकर्ता की तरफ से मांग की गई थी कि डॉ मुखर्जी की मौत की जांच के लिए कमीशन बने। इससे तय होगा कि उनकी मौत प्राकृतिक थी या साजिश। 23 जून 1953 इतिहास में दर्ज वो तारीख जो हिन्दुस्तान के एक महानायक की रहस्मय मौत की गवाह है। जो गवाह है डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की उस डेथ मिस्ट्री की जो आज तक पूरे देश के लिए अनसुलझी और अबूझ पहेली है। जन्नत की खुश्बू को समेटे कश्मीर की उन वादियों में वो कौन सी घुटन थी जिसकी वजह से संघ के भीष्मपितामह की सांसे थम गई। पिछले 68 साल से इस सवाल का जवाब अंधेरे में गुम है कि आखिर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ कश्मीर के उस 10x11 फीट के कमरे में क्या हुआ था। जिसमें उन्हें नजरबंद किया गया था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत कब और कैसे हुई? कौन सा इंजेक्शन लगने के बाद डॉ. मुखर्जी की मौत हुई? क्यों नेहरू सरकार ने उनकी मौत की जांच तक नहीं करवाई?
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डॉ. मुखर्जी का सफरनामा
श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई 1901 को एक संपन्न और प्रतिष्ठित बंगाली परिवार में हुआ था। पिता आशुतोष मुखर्जी बंगाल के एक जाने माने शिक्षाविद् थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बचपन का नाम बेनी था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा भवानीपुर के मित्र इंस्टीटूशन से हुई थी। 1917 में मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज से 1919 में इंटरमीडिएट और 1921 में अंग्रेजी साहित्य में स्नात्तकोत्तर की पढ़ाई पूरी की। 1922 में उनका विवाह सुधा चक्रवर्ती के साथ हुआ। 1923 में वे विश्वविद्यालय सीनेट के फैलो बने। 1924 में कलकत्ता विश्विद्यालय से बैचलर ऑफ लॉ की परीक्षा पास करने के बाद अधिवक्ता के रूप में कलकत्ता उच्च न्यायालय में अपना नाम दर्ज कराया। 1927 में मुखर्जी इंग्लैंड से बैरिस्टर की डिग्री लेकर भारत लौटे। मुखर्जी केवल 33 साल की उम्र में कोलकाता यूनिवर्सिटी के कुलपति बन गए। वहां से वो कोलकाता विधानसभा पहुंचे। यहां से उनका राजनैतिक करियर शुरू हुआ। बंगाल के फजलुल हक की सरकार में वित्त मंत्री बने। एक साल के अंदर मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। इसके कुछ दिन बाद ही वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा में शामिल हो गए। 1944 में डॉ मुखर्जी को अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का अध्यक्ष बना दिया गया।
स्वतंत्रता के बाद का आम चुनाव और मुखर्जी
गांधी जी की हत्या के बाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी चाहते थे कि हिंदू महासभा को केवल हिन्दुओं तक ही सीमित न रखा जाए। साल 1948 में जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मांगों को नहीं माना गया तो वो इससे अलग हो गए। आजादी के मुखर्जी तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की अंतरिम सरकार में उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री बने। लेकिन वो ज्यादा दिनों तक मंत्रिमंडल का हिस्सा नहीं रहे। पंडित नेहरू और लियाकत अली के समझौते से दुखी होकर 6 अप्रैल 1950 को उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। बाद में आरएसएस के सरसंघचालक गोलवलकर से सलाह मशवरा करने के बाद 21 अक्टूबर 1951 को भारतीय जनसंघ की स्थापना की और इसके पहले अध्यक्ष बने। 1951-52 के आम चुनाव में भारतीय जनसंघ के तीन सांसद चुने गए।
परमिट राज राज विरोध और मुखर्जी का कश्मीर दौरा
महाराजा हरि सिंह के जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के बावजूद नेहरू और शेख अब्दुल्ला के समझौते के तहत अनुच्छेद-370 पूर्ण विलय में बाधा बन गया था। यहां तक कि राज्य में प्रवेश के लिए भी परमिट लेना पड़ता था। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी धारा 370 के उस प्रावधान के सख्त खिलाफ थे जिसके तहत भारत सरकार से परमिट लिए बगैर कोई भी भारतीय जम्मू कश्मीर की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता था। 8 मई 1953 को सुबह साढ़े छह बजे दिल्ली रेलवे स्टेशन से अपने समर्थकों के साथ एक पैसेंजर ट्रेन में सवार होकर डॉ. मुखर्जी पंजाब के रास्ते जम्मू के लिए निकले। श्यामा प्रसाद मुखर्जी जम्मू कश्मीर में लागू परमिट सिस्टम तोड़ने के लिए आए थे। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ बलराज मधोक और अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा कुछ पत्रकार भी थे। रास्ते में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की एक झलक पाने के लिए लोगों का जनसैलाब उमड़ पड़ता था। जालंधर में डॉ मुखर्जी ने बलराज मधोक को वापस भेज दिया और अमृतसर के लिए ट्रेन पकड़ ली। हैरानी की बात ये थी की मुखर्जी कश्मीर जा रहे थे लेकिन सरकार न तो उन्हें रोक रही थी और न ही गिरफ्तार कर रही थी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन का आरोप है कि यहीं से असली साजिश शुरू हुई थी। 10 मई 1953 को जैसे ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी जम्मू पहुंचे उन्हें पुलिस ने पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत लखनपुर में गिरफ्तार कर लिया। कहा गया कि उनके यहां आने से शांति में खलल पड़ सकता है और माहौल बिगड़ सकता है। गिरफ्तारी के बाद मुखर्जी को श्रीनगर ले जाया गया। लेकिन जेल की जगह उन्हें एक सेफ हाउस में नजरबंद कर दिया गया। पीर पंजाल की पहाड़ियों के बीच डॉ मुखर्जी को गिरफ्तार करके रखा गया। उन्हें कश्मीर में 44 दिन जेल में रखा गया, जहां 23 जून, 1953 को रहस्यमय हालात में उनकी मौत हो गई।
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लगातार बिगड़ती गई सेहत
लेकिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत की कहानी इतनी सरल नहीं है। इसको लेकर कई कहानियां हैं, दावे हैं, जिसका जिक्र गृह मंत्री अमित शाह से लेकर बीजेपी अध्यक्ष तक ने कई बार विभिन्न मंचों पर किया है। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नजरबंदी के दौरान सरकार की तरफ से उन पर लगातार नजर रखी जाती थी। वो अपनी कैद के दौरान लगातार चिट्ठियां भी लिखते थे जिसकी भाषा बंगाली होती थी। सरकार इसकी जांच के लिए उन चिट्ठियों को ट्रांसलेट भी करवाती थी। नजरबंदी के दौरान डॉ मुखर्जी से न कोई उनका रिश्तेदार मिल सकता था और न कोई उनका दोस्त।
इंजेक्शन के बाद मौत
एक महीने से ज्यादा वक्त तक कैद डॉ मुखर्जी की सेहत लगातार बिगड़ रही थी। उन्हें बुखार और पीठ में दर्द की शिकायते थीं। 19 और 20 जून की दरमियानी रात को उन्हें प्लूराइटिस हो गया। उन्हें 1937 और 1944 में भी हो चुका था। डॉ. अली मोहम्मद ने उनकी जांच की और फिर उन्हें एक इंजेक्शन दिया। जिसके कुछ घंटों बाद ही उनकी मौत हो गई। डॉक्टर अली मोहम्मद ने उन्हें स्ट्रेप्टोमाइसिन का इंजेक्शन दिया था। मुखर्जी ने डॉ. अली को बताया था कि उनके फैमिली डॉक्टर का कहना रहा था कि ये दवा मुखर्जी के शरीर को सूट नहीं करती थी, फिर भी अली ने उन्हें भरोसा दिलाकर ये इंजेक्शन दिया था। ढाई बजे रात को उनका देहांत हुआ। लेकिन हॉस्पिटल की रिपोर्ट में चार बजे का वक्त दिखाया गया।
नेहरू ने मौत की जांच क्यों नहीं कराई?
बीजेपी के राज्यसभा सांसद राकेश सिन्हा दावा करते हैं कि जब डॉ मुखर्जी जेल में थे उस वक्त पंडित जवाहर लाल नेहरू कश्मीर गए थे। उनके साथ तत्कालीन गृह मंत्री भी थे। लेकिन एक बार भी नेहरू ने अपने पूर्व मंत्रिमंडल के सदस्य के हालचाल के बारे में पूछताछ नहीं की। हिरासत में मुखर्जी की मौत की खबर ने पूरे देश में खलबली पैदा कर दी थी। कई नेताओं और समाज व सियासत से जुड़े कई समूहों ने मुखर्जी की मौत की निष्पक्ष जांच कराए जाने की मांग की थी। मुखर्जी की मां जोगमाया देवी ने भी तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू को इस मांग संबंधी चिट्ठी लिखी। लेकिन जवाब में नेहरू ने यही कहा कि मुखर्जी की मौत कुदरती थी, कोई रहस्य नहीं कि जांच करवाई जाए।
बहरहाल सात दशक बीत गए कई सरकारें आईं और चलीं गई लेकिन राष्ट्रवादी शख्सियत डॉ मुखर्जी की डेथ मिस्ट्री से जुड़े सवाल आज भी इंतजारों में घूम रहे हैं।
- अभिनय आकाश
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