Munshi Premchand ने बना लिया था कलम को ही औजार
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की रचनाएँ अद्भुत और कालजयी हैं, उन जैसे संसार में विरले ही हुए जिन्होंने सृजन को इतनी उत्कट बेचैनी लेकर जीवन जिया। उनके शब्दों में जादू था और जीवन इतना विराट कि देश-काल की सीमाएं समेट नहीं पाईं उनके वैराट्य को।
मुंशी प्रेमचंद की साहित्यकार, कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में चर्चा इसलिये होती है कि उनकी कहानियां-उपन्यास जीवंत, अद्भुत एवं रोमांचकारी हैं, लेकिन एक बड़ा सच यह भी है कि उनके वास्तविक जीवन की घटनाएं उससे भी अधिक विलक्षण, प्रेरक एवं अविस्मरणीय हैं। वे अपनी जिन्दगी की किताब के किरदारों में कहीं अधिक सशक्त, साहसी, आन्दोलनकारी एवं प्रेरणादायी रहे हैं। बनारस के लमही में 31 जुलाई 1880 को पैदा हुए इस महान् लेखक-कहानीकार-पत्रकार ने अपनी रचनाओं के लिए ब्रिटिश हुकूमत की सजा भी भोगी, लेकिन पीछे नहीं हटे, अपना नाम भी बदला। उनकी पत्रकारिता भी क्रांतिकारी थी, लेकिन उनके पत्रकारीय योगदान को लगभग भूला ही दिया गया है। जंगे-आजादी के दौर में उनकी पत्रकारिता ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध ललकार की पत्रकारिता थी। वे समाज की कुरीतियों एवं आडम्बरों पर प्रहार करते थे तो नैतिक मूल्यों की वकालत भी उन्होंने की। आजादी की लड़ाई में उनका योगदान भी कम नहीं था। लेकिन इन विविध भूमिकाओं एवं विलक्षण अदाओं के बावजूद ऐसा ही लगता है कि वे कहानियां सुनाने ही धरती पर आए थे। आज जब हम बहुत ठहर कर बहुत संजीदगी के साथ उनका लेखन देखते हैं तो अनायास ही हमें महसूस होता है कि वे अपने आप में कितना विराट संसार समेटे हुए हैं।
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की रचनाएँ अद्भुत और कालजयी हैं, उन जैसे संसार में विरले ही हुए जिन्होंने सृजन को इतनी उत्कट बेचैनी लेकर जीवन जिया। उनके शब्दों में जादू था और जीवन इतना विराट कि देश-काल की सीमाएं समेट नहीं पाईं उनके वैराट्य को। उन्होंने हिन्दी कथा-साहित्य के क्षेत्र में कथ्य और शिल्प दोनों में आमूलचूल बदलाव किया। लेखन की एक सर्वथा मौलिक किन्तु सशक्त धारा जिनसे जन्मी, वे हैं मुंशी प्रेमचन्द। इतिहास और साहित्य में ऐसी प्रतिभाएं कभी-कभी ही जन्म लेती हैं। वाल्मीकि, वेदव्यास, कालिदास, तुलसीदास, कबीर और इसी परम्परा में आते हैं प्रेमचन्द। जिनसे भारतीय साहित्य का एक नया और अविस्मरणीय दौर शुरू हुआ था। जिनके सृजन एवं साहित्य की गूंज भविष्य में युग-युगों तक देश और दुनिया में सुनाई देती रहेगी। आज मुंशी प्रेमचंद की तुलना दुनिया के चोटी के साहित्यकार मोरित्ज, गोर्की, तुर्गनेव, चेखब और टॉल्स्टोय आदि के साथ करते हुए हमें उन पर गर्व होता है।
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मुंशी प्रेमचंद ने अपने 36 वर्षों के साहित्यिक जीवन में करीब तीन सौ कहानियाँ, एक दर्जन उपन्यास, चार नाटक और अनेक निबन्धों के साथ विश्व के महान् साहित्यकारों की कुछ कृतियों का हिन्दी में अनुवाद भी किया और उनकी यह साहित्य-साधना निश्चय ही उन्हें आज भी अमरता के शीर्ष-बिन्दु पर बैठाकर उनकी प्रशस्ति का गीत गाते हुए उन्हें ‘उपन्यास सम्राट्’ और कालजयी कहानीकार की उपाधि से विभूषित कर रही है। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर ही बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें ‘उपन्यास सम्राट्’ से संबोधित किया। मुंशी प्रेमचंद सही मायने में आज भी सच्ची भारतीयता की पहचान हैं। उनका कहना था कि साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं अपितु उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है। यह बात उनके साहित्य में उजागर हुई है। उन्होंने कुछ महीने तक मर्यादा पत्रिका का संपादन किया और फिर लगभग छह साल तक माधुरी पत्रिका का संपादन किया। 1932 में उन्होंने अपनी मासिक पत्र हंस शुरू की। 1932 में जागरण नामक एक और साप्ताहिक पत्र निकाला। गोदान उनकी कालजयी रचना है।
वह अनूठा एवं आन्दोलनकारी दौर में जब राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर महात्मा गांधी भारतीय स्वाधीनता आंदोलन को सविनय अवज्ञा, भूख हड़ताल और असहयोग जैसे सर्वथा नये औजारों से लैश कर रहे थे। काशी में भी प्रेमचंद-जयशंकर प्रसाद और आचार्य रामचंद्र शुक्ल की त्रयी पुराने जीर्ण शीर्ण मूल्यों की जगह नये मूल्यों-संस्कारों से साहित्य के आंगन को सजा-संवार रहे थे। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘मन की बात’ रेडियो कार्यक्रम में प्रेमचन्द की कहानियों की विशेषताओं की लम्बी चर्चा करते हुए आधुनिक सन्दर्भों में उन्हें जीवंत कर दिया। उनकी लगभग सभी रचनाओं का हिंदी, अंग्रेजी में रूपांतर किया गया और चीनी, रूसी आदि विदेशी भाषाओं में कहानियां प्रकाशित हुईं। मरणोपरांत उनकी कहानियों का संग्रह मानसरोवर आठ खंडों में प्रकाशित हुआ। मुंशी प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में सामाजिक कुरीतियों का डटकर विरोध किया है। मुंशी प्रेमचंद जनजीवन और मानव प्रकृति के पारखी थे। बाद में उनके सम्मान में डाक टिकट भी निकाला गया। उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। गोरखपुर में प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गयी जहां भित्तिलेख हैं व उनकी प्रतिमा भी स्थापित है।
प्रेमचन्द का जीवन अनेक संघर्षपूर्ण घटनाओं का समवाय रहा है, उन्होंने 1923 में बनारस में ‘सरस्वती प्रेस’ की स्थापना की। सरस्वती प्रेस घाटे में चलने लगी। इसी बीच वह माधुरी के भी सम्पादक बने। प्रेमचन्द भारतीयता एवं राष्ट्रीयता के लेखक थे और उनके साहित्य की प्रमुख धाराएं भारतीय संस्कृति, राष्ट्र-भाव, सामाजिक जाग्रति, लघु मानव का उत्कर्ष, समरसता एवं कल्याण, भेदरहित संतुलित समाज की रचना, रूढ़ि-मुक्ति, नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों की स्थापना एवं आदर्श जीवनशैली की रचना थी। प्रेमचन्द को ‘आदर्शोंन्मुख यथार्थवाद’ से ही समझा जा सकता है, न कि केवल यथार्थवाद से। उनके साहित्य की आत्मा है- ‘मंगल भवन अमंगल हारी।’ इस दृष्टि से तुलसीदासजी एवं प्रेमचन्द एक ही राह के पथिक हैं और यही कारण है कि प्रेमचन्द को तुलसीदास के ही समान लोकमानस में प्रतिष्ठा एवं अमरत्व प्राप्त है। गांधी ने जब स्वराज्य आन्दोलन की एक नई राजनीतिक चेतना उत्पन्न की तो प्रेमचन्द इस नई सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना के सबसे सशक्त कथाकार के रूप में उभरकर सामने आये। लगभग चौदह वर्षों तक केवल उर्दू में लिखने के बाद उन्होंने जब हिन्दी की ओर अपना पहला कदम रखा, तभी हिन्दी साहित्य जगत ने अनुभव किया गया कि हिन्दी कथा-उपन्यास साहित्य के क्षेत्र में एक युगांतरकारी परिवर्तन आ गया है। इस साहित्यिक क्रांति का यह आश्चर्यजनक पहलू था कि यह ऐसे लेखक की कलम से उपजी थी, जो उर्दू से हिन्दी में आया था।
अंग्रेजों के शासन से मुक्ति ही उनका ध्येय नहीं था। भारतीय जनमानस की वास्तविक स्वतंत्रता चाहते थे, अंग्रेजी शासन के साथ-साथ प्रचलित कुरीतियों, सामंती सोच, शोषण-उत्पीड़न एवं असंतुलित समाज रचना से मुक्ति चाहते थे। उन्होंने भारतीय समाज में सर्वाधिक शोषित तीन तबकों किसान, दलित और औरतों पर अपने लेखन को केंद्रित किया और पूरी पक्षधरता के साथ उनकी मुक्ति के हिमायती बने रहे। उनकी ‘बांका जमींदार’, ‘विध्वंस’, ‘सवा सेर गेहूं’, ‘घासवाली’, ‘ठाकुर का कुआं’, ‘गुल्ली डंडा’, ‘दूध का दाम’, ‘सद्गति’ आदि कहानियों में दलित जीवन की पीड़ा एवं वेदना के चित्र हैं। उनके साहित्य में स्त्री-विमर्श का व्यापक संसार भी है। उनकी लगभग 50 कहानियों में किसानी जिन्दगी एवं संस्कृति का मर्मस्पर्शी चित्रण भी देखने को मिलता है। जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र या समस्या नहीं है जिस पर उन्होंने कलम न चलाई हो। ‘रंगभूमि’ (1925) प्रेमचंद का सबसे बड़ा उपन्यास है। सूरदास इस उपन्यास का सबसे गौरवमयी पात्र है। सूरदास एक प्रकार से गांधीजी के अहिंसात्मक आंदोलनों का नायक और उनकी नीतियों के प्रतिनिधि के रूप में पाठकों के बीच पैठ बनाता है। सूरदास के चरित्र चित्रण से प्रेमचंद ने गांधी युग के अहिंसात्मक आदर्शों का एक प्रतीक खड़ा किया है। वहीं उन्होंने ‘कर्मभूमि’ उपान्यास के एक पात्र अमरकांत के माध्यम से चरखा को आत्मशुद्धि का साधन बताकर उसकी महत्ता इस तरह प्रस्तुत कि-‘चरखा रुपये के लिए नहीं चलाया जाता। यह आत्मशुद्धि का एक साधन है। चरखा मनुष्यता को नंगा होने से बचाने का औजार है। गांधीजी के अस्पृश्यता निवारण का संदेश भी इस उपन्यास में है। तभी तो एक पात्र सुखदा वंचितों के मंदिर प्रवेश को लेकर जान जोखिम में डालकर आंदोलन करती है।
गांधी को अपना आदर्श मानने वाले प्रेमचन्द ने आत्मकथ्य में इस बात को स्वीकारा है कि महात्मा गांधी के दर्शन का यह प्रताप था कि मुझ जैसा मरा हुआ आदमी भी चेत उठा। उसके दो-चार दिन बाद मैंने बीस वर्ष पुरानी नौकरी छोड़ दी। मैं दुनिया में महात्मा गांधी को सबसे बड़ा मानता हूं। उनका भी उद्देश्य यही है कि मजदूर और काश्तकार किसान सुखी रहें। वह इन लोगों को आगे बढने के लिए आंदोलन करते हैं। मैं लिखकर उनको उत्साह दे रहा हूं। उनका ‘कर्मभूमि’ उपन्यास गांधी के अहिंसा और सत्याग्रहमूलक आंदोलन का लेखा-जोखा है। प्रेमचंद की तीन दर्जन कहानियों में गांधीवाद की प्रेरणा है। अपने सात उपन्यासों में प्रेमचंद ने गांधी विचार को कहीं न कहीं स्थान दिया है। भारतीय हिन्दी साहित्य को दुनिया के हर कोने तक पहुंचाने वाले प्रेमचंद कभी अतीतजीवी नहीं हो सकते। वह तो हमेशा हम पाठकों के लिए ‘वर्तमान’ रहेंगे।
- ललित गर्ग
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