विधानसभा के चुनावों के निहितार्थ
महाराष्ट्र के चुनावों का असर कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति पर भी पड़ सकता है। लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र में 13 सीटें जीतकर बड़ा दल बनने के बाद पार्टी ने ग्रेस सबसे बड़ा दल बनकर उभरी। इसके चलते पार्टी में गुरूर दिखने लगा।
हर राज्य की अपनी अहमियत है। लेकिन राजनीतिक लिहाज से देखें तो उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा महत्व अगर किसी राज्य का है तो वह महाराष्ट्र है। देश की आर्थिक राजधानी इस राज्य की राजधानी है। उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों के मुकाबले 48 सीटों के साथ दूसरा बड़ा राज्य महाराष्ट्र है। राजनीतिक हलकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी होने के लिए भारतीय जनता पार्टी सदा विपक्षी निशाने पर रहती है, उस संघ का मुख्यालय भी इसी राज्य में है। इस लिहाज से महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों का असर दूरगामी होना स्वाभाविक है। मराठी मानुष ने जो जनादेश दिया है, उसका असर देश की राजनीति पर तो पड़ेगा ही, अर्थनीति पर भी पड़ेगा। इसके साथ ही स्थानीय स्तर पर भी कई बदलाव नजर आ सकते हैं। देश की राजनीति पर झारखंड के चुनाव नतीजों का भी पड़ना ही है। इसका असर दिखने लगा है। इंडिया गठबंधन की अगुआई राहुल गांधी से छीनने को लेकर आवाज उठने लगी है। तृणमूल कांग्रेस की ओर से मांग आ भी गई है कि मोदी को चुनौती देने के लिए जरूरी है कि इंडिया गठबंधन की कमान राहुल गांधी की बजाय ममता बनर्जी को दी जाय।
महाराष्ट्र के क्षत्रप शरद पवार को लेकर हाल ही में कहा जाने लगा था कि उनके बिना महाराष्ट्र की सत्ता की कल्पना नहीं की जा सकती। इस धारणा को ढाई साल पहले बीजेपी ने तोड़ दिया था। एकनाथ शिंदे की अगुआई में शिवसेना में टूट हुई और सबसे ज्यादा 104 विधायक होने के बावजूद बीजेपी ने अपने कद्दावर नेता देवेंद्र फणनवीस को शिंदे का सहयोगी बनने के लिए राजी कर लिया। इस सरकार के कार्यकाल में हुआ लोकसभा चुनाव में बीजेपी की अगुआई वाली महायुति को समर्थन नहीं मिला। बीजेपी और शिवसेना-शिंदे- दोनों को लोकसभा सीटों का नुकसान झेलना पड़ा। लेकिन इससे बीजेपी और शिवसेना दोनों ने सीख ली। बीजेपी ने अपने पारंपरिक गढ़ विदर्भ पर फोकस तो किया ही, गैर मराठा वोटरों पर भी अपना ध्यान लगाया। मराठवाड़ा में शिवसेना शिंदे और अजित पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी पर भरोसा जताया। नतीजा सामने है। पार्टी ने इस बीच एक काम और किया। उसने माझी लड़की बहीण योजना लागू की। इसके तहत 21 से 65 साल तक की उम्र वाली पात्र महिलाओं को पंद्रह सौ रूपए महीने दिए जाने लगे हैं। राज्य की करीब एक करोड़ महिलाओं को इस योजना का लाभ मिलने लगा है। इसका फायदा महाराष्ट्र की महायुति सरकार को हुआ है। माना जा रहा है कि राज्य की महिलाओं ने महायुति की अगुआई वाली सरकार को अपना समर्थन दिया है।
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मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की तरह कई अन्य राज्य सरकारें महिलाओं को आर्थिक सहयोग देना शुरू कर चुकी हैं। माना जा रहा है कि महाराष्ट्र के नतीजों के बाद इस चलन को और बढ़ावा मिलेगा। बाकी राज्य सरकारें भी तेजी से इस दिशा में कदम बढ़ाएंगी और महिला वोटरों को रिझाने की कोशिश करेंगी। हालांकि झारखंड में एनडीए का यह फॉर्मूला नहीं चल पाया है। झारखंड की 81 में से 68 सीटों पर पुरूषों की तुलना में साढ़े पांच लाख से ज्यादा महिला वोटरों ने मतदान किया है। बीजेपी वहां के लिए ढाई हजार रूपए की माई सम्मान योजना का प्रस्ताव लेकर आई थी. लेकिन वहां की महिलाओं ने हेमंत सोरेन की गोगो दीदी योजना पर ही ज्यादा भरोसा जताया।
महाराष्ट्र के चुनावों का असर कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति पर भी पड़ सकता है। लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र में 13 सीटें जीतकर बड़ा दल बनने के बाद पार्टी ने ग्रेस सबसे बड़ा दल बनकर उभरी। इसके चलते पार्टी में गुरूर दिखने लगा। विधानसभा चुनावों के लिए सीट बंटवारे में पार्टी खुद को सबसे आगे रखने और सहयोगी दलों को पीछे रखने की रणनीति पर काम करने लगी। चुनाव नतीजे आने से पहले ही मुख्यमंत्री पद को लेकर जिस तरह खींचतान सामने आई, उससे साफ था कि कांग्रेस की अगुआई वाले गठबंधन में सबकुछ ठीक नहीं था। इसका असर चुनाव नतीजों पर साफ नजर आ रहा है। इसकी तुलना में झारखंड में पार्टी ने हेमंत की सहयोगी की भूमिका में रखा तो वहां के नतीजे अलग तरीके से आए। साफ है कि पार्टी जहां खुद का वर्चस्व रखती है, वहां उसे मुंह की खानी पड़ रही है, लेकिन जहां वह सहयोगी दलों की बैसाखी पर आगे बढ़ने की कोशिश करती है, उसे फायदा होता है। साफ है कि आने वाले दिनों में पार्टी को इस नजरिए से सोचना होगा। महाराष्ट्र के नतीजों से दिल्ली में कुछ महीने बाद होने जा रहे विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी उत्साह में होगी। कांग्रेस जहां उसके साथ जाने का दबाव बना सकती है, वहीं आम आदमी पार्टी कुछ और मुफ्तिया वादों के साथ मैदान में मजबूती से उतर सकती है।
महाराष्ट्र के चुनावों में असली उत्तराधिकारी कौन का सवाल भी हावी था। शिवसेना को दोनों धड़े हों या राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के दोनों खेमे, सभी खुद को ही असली शिवसेना और असली एनसीपी बता रहे थे। इस चुनाव में बेशक अजित पवार के खेमे की सीटें कम हुई हैं, लेकिन शरद पवार की एनसीपी से उसके ज्यादा ही विधायक जीते हैं। इसी तरह एकनाथ शिंदे की शिवसेना की सीटें बढ़ी हैं, जबकि हिंदुत्ववादी की बजाय सेकुलर चोला धारण करने वाले उद्धव ठाकरे की शिवसेना पिछड़ गई है। अब इन नतीजों के आधार पर अजित पवार की पार्टी असली एनसीपी होने का दावा करेगी तो एकनाथ शिंदे की शिवसेना भी खुद को असली और बाला साहब ठाकरे की असल उत्तराधिकारी बताएगी। ऐसे में शरद पवार और उद्धव ठाकरे के सामने अपनी पार्टियों के वजूद को बचाए रखने का संघर्ष होगा। सत्तावादी राजनीति में विधायक लंबे समय तक सत्ता से दूर नहीं रह सकते। आने वाले दिनों में शरद पवार और उद्धव ठाकरे का विधायक दल टूटे तो हैरत नहीं होनी चाहिए।
शरद पवार का कहना है कि कटेंगे तो बंटेंगे का असर भी महाराष्ट्र के चुनावों में दिखा। बीजेपी की अगुआई वाले गठबंधन के खिलाफ राज्य का 11 फीसद मुस्लिम वोट बैंक एकजुट हुआ। इसकी वजह से हिंदू वोट बैंक महायुति की ओर गोलबंद हुआ। वैसे जानकारों का मानना है कि मराठा आरक्षण की मांग रखने वाले मनोज जरांगे का पहले चुनाव लड़ने का ऐलान करना और बाद में शरद पवार आदि के दबाव में चुनाव से पैर पीछे खींचना भी महायुति की सफलता की वजह बना। इससे मनोज जरांगे की साख कमजोर हुई और मराठा वोटर महायुति की ओर लौट आया, जो लोकसभा चुनाव के दौरान उससे दूर हो गया था।
महाराष्ट्र के नतीजों से महायुति की अंदरूनी राजनीति पर भी असर पड़ने की संभावना है। भारतीय जनता पार्टी महाराष्ट्र को बिहार की राह पर ले चलना नहीं चाहेगी। ऐसे संकेत उसने दिए भी हैं। यानी वह देवेंद्र फणनवीस को मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश करेगी। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या एकनाथ शिंदे आसानी से मुख्यमंत्री पद छोड़ देंगे। इस मसले पर महायुति में तनाव दिख सकता है। जिसे खत्म करने के लिए बीजेपी आलाकमान को ऊर्जा लगानी पड़ेगी। यह देखना दिलचस्प होगा कि इस मसले पर राजनीतिक ऊंट किस करवट बैठता है।
झारखंड के नतीजों ने एक रिकॉर्ड बनाया है। राज्य के गठन के बाद कोई भी सरकार दोबारा सत्ता में नहीं आ पाई है। हेमंत सोरेन यह रिकॉर्ड बनाने में कामयाब रहे हैं। इससे उनका राजनीतिक कद बढ़ेगा। इन नतीजों ने साबित किया है कि उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को झारखंड की जनता ने स्वीकार नहीं किया। झारखंड की कमान बीजेपी की ओर से हिमंत विश्वशर्मा और शिवराज सिंह चौहान को दी गई थी। उत्तर पूर्व से बाहर हिमंत को पार्टी की ओर से पहला असाइनमेंट मिला था। इसमें अगर वे सफल होते तो उनकी राष्ट्रव्यापी छवि बनती। लेकिन वे इसमें नाकाम रहे हैं। अगर बीजेपी को झारखंड में कामयाबी मिलती तो शिवराज का भी कद बढ़ता। लेकिन फिलहाल इसमें ब्रेक लगता दिख रहा है। बीजेपी को चंपई सोरेन के जरिए कोल्हान में चमत्कार की उम्मीद थी, लेकिन चंपई कोई कमाल नहीं दिखा पाए। इसका असर उनके राजनीतिक कद पर भी पड़ेगा। बीजेपी ने आदिवासी समुदाय की शख्सियत को राष्ट्रपति पद तक पहुंचाया, इसके बावजूद लोकसभा और विधानसभा चुनावों में उसे आदिवासी सीटों पर समर्थन ना मिलना चिंता का विषय होगा। बीजेपी को अपनी रणनीति पर विचार करना पड़ेगा और आदिवासी वोटरों के बीच भरोसा कायम करने के लिए सोचना पड़ेगा।
उपचुनावों में वायनाड से प्रियंका गांधी की जीत संभावित थी। लेकिन महाराष्ट्र की नांदेड़ सीट उसके हाथ से निकल गई। इससे साफ है कि कांग्रेस को अभी निन्यानबे के ही फेर में रहना होगा। सौ का आंकड़ा पार करने का उसका सपना पूरा नहीं हुआ। उपचुनावों में सबसे हंगामा उत्तर प्रदेश की नौ विधानसभा सीटों को लेकर रहा। इनमें बीजेपी की बढ़त का मतलब साफ है कि योगी सरकार का मकबूल बना हुआ है। वैसे राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ दलों को ही समर्थन मिला है। दरअसल आज के वोटरों को यह समझ है कि उपचुनावों के नतीजों से सरकारों की सेहत पर खास असर नहीं पड़ता, इसलिए ज्यादातर मामलों में वे सत्ताधारी दलों के ही विधायकों को चुनते हैं, ताकि उनके इलाके की विकास गतिविधियां जारी रह सकें। इसका असर उपचुनाव नतीजों में दिख रहा है। हां, पश्चिम बंगाल के बारे में कहा जा सकता है कि वहां के उपचुनावों में आरजी कर मेडिकल कॉलेज कांड से उपजे क्षोभ का असर नहीं दिखा, जिसकी वजह से ममता बनर्जी बैकफुट पर नजर आ रही थीं। बिहार में प्रशांत किशोर का करिश्मा नजर नहीं आया, अलबत्ता एनडीए एक बार फिर मजबूती से उभरा है। इसका असर बिहार के अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों पर भी दिखेगा।
वैसे झारखंड की जीत में झारखंड मुक्ति मोर्चा की बजाय राज्य के कुर्मी वोटरों का आजसू की बजाय नवगठित जेएलकेएम पार्टी की ओर खिसकता गया। अगर ऐसा नहीं होता तो राज्य की कहानी कुछ और होती। इसकी तस्दीक चुनावी आंकड़े भी करते हैं। जैसे इचागढ़ की सीट पर जेएमएम की जीत हुई। यहां उसे 57125 वोट मिले, जबकि दूसरे नंबर पर रहे आजसू प्रत्याशी को को 45070 वोट हासिल हुए। यहां पर जेएलकेएम को 38974 वोट मिले। सोचिए, अगर ये वोट आजसू को मिले होते तो क्या होता। इसी तरह जुगसलाई पर भी जेएमएम की जीत हुई, जिसे 120230 वोट मिले, जबकि आजसू को 77105 और जेएलकेएम को 36698 वोट मिले। इसी तरह कांके में विजयी रही कांग्रेस को 133499 और बीजेपी को 132531 वोट मिले। जबकि नवेली पार्टी जेएलकेएम को 25965 वोट मिले। इसी तरह खरसावां में हेमंत का प्रत्याशी जीता, जिसे 85772 वोट मिले। दूसरे नंबर पर रहे बीजेपी प्रत्याशी को 53157 वोट और जेएलकेएम को 33841 वोट मिले। इसी तरह तमाड़, रामगढ़, सिल्ली, खिजरी, चंदनक्यारी, गोमियों, सिंदरी, टुंडी, निरसा, बोकारो, गिरीडीह, बेरमो और डुमरी में अगर जेएलकेएम प्रत्याशी नहीं होते तो शायद झारखंड की कहानी अलग होती। अगर सोलह सीटें इंडिया गठबंधन की बजाय एनडीए के खाते में जातीं तो कहानी ठीक उलट होती। झारखंड के चुनाव के बाद तय है कि झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा के नेता जयराम महतो बड़े नेता बनकर उभरे हैं। आने वाले दिनों में हो सकता है कि वे बीजेपी के साथ जाएं। क्योंकि सुदेश महतो की बजाय बीजेपी के लिए वे ज्यादा मुफीद साबित हो सकते हैं।
-उमेश चतुर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
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