Congress and China Part 1 | दुनिया को चीन का डर क्यों दिखा रहे थे नेहरू | Teh Tak
अमेरिका चियांग काई शेक की सरकार को ही असली चीन मानता था। वहीं, नेहरू मान्यता देने की बात माओ वाले पीपुल्स रिपबल्कि ऑफ चाइना को मान्यता देने की बात कह रहे थे।
पूरी दुनिया के लिए चीन हमेशा से एक पहेली बना हुआ है। नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक भारत भी अपने बड़े भाई जैसे लगने वाले पड़ोसी देश को समझ नहीं पाए। वजह साफ है क्योंकि चीन की कम्युनिस्ट सरकार की कथनी और करनी में बड़ा फर्क है, जिसका सबूत उसके नेता बीते 74 सालों में हर मौके पर भारत को धोखा देकर देते रहे हैं। पंडित नेहरू, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी ये वो भारत के प्रधानमंत्रियों के नाम हैं जिन्होंने चीन का दौरा किया और उससे रिश्ते सुधारने की भरसक कोशिश की, लेकिन नतीजा पूरी दुनिया जानती है। भारत देश को आजादी सन 1947 में मिली। चीन को चलाने वाली पीपुल्स रिपबल्कि ऑफ चाइना की स्टैबलिशमेंट 1949 में हुई। जापान की पराजय के साथ ही दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति हो गई। इसके बाद एशिया में दो ही ऐसे बड़े देश रह गए थे जिनमें पोस्ट वर्ल्ड वॉर ऑर्डर को आकार देने की क्षमता थी। एक था चीन, उस वक्त रिपब्लिक ऑफ चाइना था और चांग काई सेक उनके राष्ट्रपति थे। वहीं दूसरी तरफ अपनी आजादी की तरफ जा रहा देश भारत था।
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भारत की आजादी से पहले से ही जवाहर लाल नेहरू का मानना था कि चीन और भारत में काफी समानता हैं और दोनों एक दूसरे के काफी अच्छे दोस्त साबित हो सकते हैं। इसी उम्मीद में शायद प्रधानमंत्री बनने के बाद जब पंडित नेहरू ने साल 1949 में पहली दफा अमेरिका की यात्रा की तो अपने देश के गंभीर मुद्दे के साथ चीन को लेकर भी चर्चा की थी। उन्होंने रिपब्लिक ऑफ चाइना की वकालत करते हुए अमेरिका के सामने उसे मान्यता देने की बात कही थी। नेहरू के पुराने भाषणों पर गौर करें तो अक्सर उनमें विश्व युद्ध के बाद एशिया में भारत की भागीदारी का जिक्र होता था। लेकिन उन्हें मालूम था कि ऐसा अकेले कर पाना मुश्किल है। इसलिए उन्होंने अक्सर इसके लिए दो देशों इंडोनेशिया और चीन का उल्लेख किया। नेहरू का मानना था कि न्यू एशियन ऑर्डर बनाने में एशियाई देश नेतृत्व लेंगे। लेकिन इससे ठीक उलट अगर आप उस वक्त के चीनी नेताओं के भाषणों को सुनेंगे तो वो काफी भिनन थी। उनका मानना था कि विश्व युद्ध में जीतने वाले में हम ही एक एशियाई देश हैं। हमारा ये हक बनता है कि पोस्ट वर्ल्ड वॉर ऑर्डर को आकार लेने पर काम भी हमें ही करना होगा। अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को लेकर दोनों देशों के विचार बिल्कुल विपरीत से थे।
दुनिया को चीन का डर दिखा रहे थे नेहरू
अमेरिका चियांग काई शेक की सरकार को ही असली चीन मानता था। वहीं, नेहरू मान्यता देने की बात माओ वाले पीपुल्स रिपबल्कि ऑफ चाइना को मान्यता देने की बात कह रहे थे। नेहरू को लग रहा था कि कोरियाई युद्ध ज्यादा खतरनाक रुख ले सकता है। उन्हें लग रहा था कि पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना भी उत्तर कोरिया के पक्ष में युद्ध के लिए आ सकता है। उनका सोचना था कि पीआरसी को मान्यता देकर संयुक्त राष्ट्र का स्थायी सदस्य बनाने से कोरिया युद्ध के दायरे को सीमित रखा जा सकता है। उनका मानना था कि यूएनएससी में अगर पीआरसी को जगह मिल जाती है तो उसकी नाराजगी कुछ हद तक दूर हो सकती है। आदर्शवाद और नैतिकता का बोझ पंडित नेहरू पर इतना था कि वो चीन को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिलवाने के लिए पूरी दुनिया में लाबिंग करने लगे। अमेरिका का मानना था कि भारत बिना वजह के पूरी दुनिया को कम्युनिस्ट चीन का खौफ दिखा रहा है। पश्चिमी मीडिया में नेहरू के चीन प्रेम की जमकर आलोचना भी हुई।
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चीन को नहीं नाराज करना चाहते थे नेहरू
लेखक एमजे अकबर ने अपने लेख में बताया था कि 1950 में जब कम्युनिस्टों ने चीन पर कब्जा किया तो अमेरिका ने ये प्रस्ताव दिया कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद यानी यूएनएससी में चीन की जगह भारत को दे दी जाए। इसको लेकर नेहरू की छोटी बहन और भारत में अमेरिका की राजदूत विजय लक्ष्मी पंडित ने एक सीक्रेट लेटर भी लिखा था। जिसमें उन्होंने कहा था कि अमेरिका चाहता है कि चीन को हटाकर भारत को यूएनएससी का सदस्य बनाया जाए। लेकिन नेहरू ने जवाब दिया कि चीन को हटाकर भारत का जगह लेना हर लिहाज से बुरा है। इससे चीन से टकराव बढ़ेगा और इसका असर दोनों देशों के संबंधों पर पड़ेगा। इतना ही नहीं उन्होंने तो चीन के लिए लॉबिग भी की और ये निर्णय लिया था कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन को सीट देने के लिए कहते रहेंगे। 1955 में सोवियत प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन ने सुझाव दिया कि भारत यदि चाहे तो उसे जगह देने के लिए सुरक्षा परिषद में सीटों की संख्या पांच से बढ़ा कर छह भी की जा सकती है। नेहरू ने बुल्गानिन को भी यही जवाब दिया कि कम्युनिस्ट चीन को उसकी सीट जब तक नहीं मिल जाती, तब तक भारत भी सुरक्षा परिषद में अपने लिए कोई स्थायी सीट नहीं चाहता। इससे ठीक उलट चीन ने कभी भी सीमा विवाद पर हमसे सीधी तरह से बात नहीं की। उन्होंने कहा कि ये पिछले सरकार के नक्शे हैं। चीन का पूरा ध्यान अपने राज्य को अच्छी तरह से स्थापित करने पर था। इसलिए वो इस पर टालम-टोल करते रहे।
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