चुनावी राजनीति में सॉफ्ट टारगेट क्यों बनती जा रही हैं महिलाएं ? कब होगी असली मुद्दों की बात ?

Women Voters
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संतोष पाठक । Dec 16 2024 12:52PM

भारत जैसे कल्याणकारी राज्य में इस तरह की योजनाओं की प्रासंगिकता पर सवाल नहीं उठाए जाने चाहिए लेकिन यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि राजनीतिक दल इसे चुनाव जीतने के लिए एक टूल की तरह इस्तेमाल करने लग गए हैं।

भारत की राजनीति में महिलाएं राजनीतिक दलों के लिए एक सॉफ्ट टारगेट बनती जा रही हैं। देश के सभी राजनीतिक दलों को यह लगने लगा है कि महिला मतदाताओं को लुभा कर चुनावी जीत हासिल की जा सकती है। यही वजह है कि एक के बाद एक कई राज्यों में राजनीतिक दलों ने खासकर सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों ने महिलाओं के खाते में सीधे कैश पहुंचा कर सत्ता में फिर से वापसी करने में कामयाबी हासिल कर ली है।

मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री रहने के दौरान शिवराज सिंह चौहान, लाडली बहना योजना चलाकर अपने आपको पूरे राज्य की महिलाओं के लिए भाई और बच्चों के लिए मामा के रूप में स्थापित कर चुके हैं। शिवराज सिंह चौहान सरकार के नक्शे-कदम पर चलते हुए हाल ही में महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की महायुति गठबंधन सरकार और झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार ने सत्ता में जोरदार वापसी की है। 

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राजनीतिक दल चुनावी राजनीति के हिसाब से किस तरह से महिलाओं को सॉफ्ट टारगेट मान रहे हैं, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विभिन्न राज्यों में सत्तारूढ़ सरकारें अब चुनाव से पहले महिलाओं के खाते में एक निश्चित रकम भेजने की योजना लाते हैं और अगर संभव होता है तो एक-दो क़िस्त भेज भी देते हैं और फिर महिलाओं से यह वादा करते हैं कि अगर वे उनकी पार्टी को चुनाव जीता दें तो फिर से सरकार बनने के बाद वे उस राशि को बढ़ा देंगे। अब इसे महिला सम्मान योजना का नाम दिया जाए या लाडली बहना योजना का नाम दिया जाए या फिर कोई और नाम दिया जाए लेकिन सही मायनों में यह एक चुनावी रिश्वत से ज्यादा कुछ नहीं होता है। 

हाल ही में दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार ने भी यही किया। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले अरविंद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री महिला सम्मान योजना के नाम पर हर महिला के खाते में एक हजार रुपए भेजने की घोषणा की, हालांकि वे और दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी, दोनों ही इस बात को बखूबी समझते हैं कि चुनाव से पहले महिलाओं के खाते में पैसे जाने की संभावना बहुत ही कम है। लेकिन उस पर भी तुर्रा देखिए कि केजरीवाल ने एक तरह से महिलाओं को चुनावी लालच देते हुए यह भी घोषणा कर दी है कि विधानसभा चुनाव जीतवा दो तो इसे बढ़ाकर 2100 रुपए कर दिया जाएगा। हालांकि दिल्ली सरकार के वित्त विभाग ने इस योजना में होने वाले खर्च की राशि को लेकर कई तरह की गंभीर चिंताएं व्यक्त की हैं।

भारत जैसे कल्याणकारी राज्य में इस तरह की योजनाओं की प्रासंगिकता पर सवाल नहीं उठाए जाने चाहिए लेकिन यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि राजनीतिक दल इसे चुनाव जीतने के लिए एक टूल की तरह इस्तेमाल करने लग गए हैं। चुनावी शोर, चुनावी वादें और चुनावी जीत की गहमा-गहमी के बीच असली मुद्दे कहीं गौण होते नजर आ रहे हैं। 

सवाल यह खड़ा हो रहा है कि आखिर इस तरह की योजनाएं चुनाव के पहले ही क्यों शुरू की जाती है ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या 1000, 1500, 2100 या 3000 रुपए की राशि से सभी समस्याओं का स्थायी समाधान हो जाता है। वास्तव में एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में फ्री शिक्षा, फ्री स्वास्थ्य और फ्री नौकरी निहित होती है लेकिन विडंबना देखिए कि सरकारों ने इन मुद्दों पर स्थायी काम करने की बजाय कामचलाऊ हल ढूंढ लिया है।

सरकार और देश के राजनीतिक दल, लोगों को फ्री शिक्षा, फ्री स्वास्थ्य और फ्री नौकरी देने से बचने के लिए बाकी हर चीज मुफ्त में देने को तैयार है। ऐसे में अब वक्त आ गया है कि महिला मतदाताओं को ही आगे बढ़कर, नेताओं से यह सवाल पूछना चाहिए कि सरकारी स्कूलों और कॉलेजों की हालत इतनी खराब क्यों हैं ? प्राइवेट स्कूलों और कॉलेजों की फीस बेतहाशा क्यों बढ़ती जा रही है ? जिस देश में बड़े पैमाने पर डॉक्टरों की कमी है, उस देश में एमबीबीएस की पढ़ाई का खर्च सालाना एक करोड़ रुपए से भी ज्यादा कैसे हो गया है ? सरकारी अस्पताल में समय पर उचित और फ्री इलाज क्यों नहीं मिल पा रहा है ? नौकरी तक का फॉर्म भरने के लिए बेरोजगार बच्चों से सैकड़ों-हजारों रुपए क्यों लिए जा रहे हैं ? क्योंकि अगर आप जोड़ कर देखेंगी तो ये सभी खर्च मिलाकर आपको महिला सम्मान या लाडली बहना योजना के नाम पर मिलने वाली राशि से कई हजार गुना ज्यादा बैठ जाएगी।

- संतोष पाठक

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।)

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