अपनों के निशाने पर आने के बाद क्या अब नीतियों में बदलाव लाएगी कांग्रेस?
अगर ईवीएम पर इतना ही संदेह है तो संदेह करने वाले दलों को चाहिए कि वे ईवीएम के जरिए होने वाले चुनावों का बहिष्कार करें। इसके बाद अगर चुनाव होगा तो निश्चित है कि इस चुनाव की पवित्रता सवालों के घेरे में आ जाएगी।
संविधान पर संसद में विशेष बहस पर अपने नेताओं प्रियंका वाड्रा और राहुल गांधी के भाषणों को लेकर जिस वक्त कांग्रेस गद्गगद् हो रही थी, उसी वक्त उस पर कश्मीर की वादियों से सियासी गर्मी का जबर्दस्त झोंका आया। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कांग्रेस को सीधे-सीधे सलाह दे डाली कि ईवीएम का रोना छोड़ो और अपनी हार को स्वीकार कर लो। दिलचस्प यह है कि लोकसभा के अपने पहले भाषण में संविधान पर चर्चा के दौरान प्रियंका वाड्रा ने कहा था कि ईवीएम हटा दो, दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। प्रियंका के इस बयान के ठीक बाद सामने आए उमर अब्दुल्ला के ये शब्द महज बयान नहीं है, बल्कि इसके कई राजनीतिक अर्थ हैं।
उमर के इस बयान को ममता बनर्जी और रामगोपाल यादव की अभिव्यक्ति की अगली कड़ी के रूप में रखा जा सकता है। यहां एक बार फिर दोहरा देना उचित ही होगा कि इंडिया गठबंधन के अघोषित अगुआ को रूप में राहुल गांधी को नकार चुकी हैं और समाजवादी पार्टी के महासचिव रामगोपाल यादव कांग्रेस की अगुआई को ही नकार चुके हैं। उमर अब्दुल्ला ने अपने बयान के जरिए एक तरह से साफ कर दिया है कि कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व में उनका भरोसा नहीं है। आज की राजनीति जिस बिंदु पर पहुंच चुकी है, उसमें अगुआ की हर गलत-सही बात का समर्थन करना ही अनुयायियों की पहली शर्त बन गई है। तार्किक
आधार पर समर्थन और विरोध की सोच को हमारे समाज ने सिरे से नकार दिया है। यह नकार राजनीति में सबसे ज्यादा नजर आता है। अगुआ की बात को अनुयायी ने स्वीकार नहीं किया तो उसे सीधे-सीधे नाफरमानी या अनुशासनहीनता माना जाता है। दलीय व्यवस्था में ऐसे नकार की सजा निष्कासन और निलंबन तय है। चूंकि इंडिया गठबंधन औपचारिक कोई दल नहीं, बल्कि दलों का समूह है, लिहाजा यहां वैसी अनुशासनिक व्यवस्था नहीं है। इसके बावजूद मोटे तौर पर गठबंधनों के बीच एक समझ रही है कि गठबंधन और उसके अगुआ की सेहत पर असर ना पड़े, ऐसी बयानबाजी से दूर रहा जाए।
लेकिन ममता बनर्जी, रामगोपाल यादव और उमर अब्दुल्ला के बयान के संदेश साफ हैं। संदेश यह है कि कांग्रेस की अगुआई में उन्हें नरेंद्र मोदी को चुनौती दे पाने की ताकत राहुल गांधी में नहीं दिखती। इन बयानों का एक संदेश यह भी है कि राहुल गांधी की अगुआई में इन दलों का कम से कम राष्ट्रीय स्तर पर कोई भविष्य नहीं है। लेकिन उमर अब्दुल्ला इससे आगे का भी संकेत दे रहे हैं। ईवीएम के बहाने वे कांग्रेस को यह भी संदेश दे रहे हैं कि ‘मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू’ की वैचारिक सोच वाली राजनीति लंबे समय तक नहीं चल सकती। यह कैसे हो सकता है कि जिस ईवीएम के सहारे आप अमेठी और वायनाड जीतने के बाद आप जश्न में डूब सकते हैं, जिसके सहारे 55 से 99 सीटों पर पहुंच जाते हैं तो इसे अपनी भारी जीत बताते हैं, जिस ईवीएम के ही सहारे जब आप कर्नाटक, हिमाचल और झारखंड और यहां तक कि कश्मीर जीत जाते हैं तो इसे नरेंद्र मोदी की हार बताने लगते हैं, लेकिन अगर चुनावी रणनीति में मात खाने के बाद सत्ता की दौड़ में पीछे रह जाते हैं तो ईवीएम को दोषी ठहराने लगते हैं। यह दोहरापन नहीं चलने
वाला। इसे जनता भी समझने लगी है।
अगर ईवीएम पर इतना ही संदेह है तो संदेह करने वाले दलों को चाहिए कि वे ईवीएम के जरिए होने वाले चुनावों का बहिष्कार करें। इसके बाद अगर चुनाव होगा तो निश्चित है कि इस चुनाव की पवित्रता सवालों के घेरे में आ जाएगी। अगर ईवीएम पर संदेह करने वाले दल चुनाव प्रक्रिया से बाहर हो जाएं तो विपक्ष विहीन चुनाव को जनता भी स्वीकार नहीं कर पाएगी और उस चुनाव को सहज लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अंग नहीं माना जा सकेगा।
ऐसे में सरकार और चुनाव आयोग दबाव में आ सकते हैं। लेकिन ऐसा करने के लिए ईवीएम पर संदेह करने वाले दलों में साहस होना चाहिए। दुर्भाग्य से ऐसा साहस कोई दल दिखाता नजर नहीं आ रहा। इसकी वजह यह है कि कोई भी दल संसदीय राजनीति के उस रसूख को छोड़ने का साहस नहीं रखता, जो उसे सांसद या विधायक बनने के बाद हासिल होता है। इन दलों और उनके नेताओं को पता है कि संसद और विधानमंडल से बाहर रहने के बाद उनकी बातें गौर से सुनीं नहीं जातीं और उनके शब्दों को तवज्जो भी नहीं मिलता। इसलिए वे ईवीएम पर सवाल भी उठा रहे हैं और उसी ईवीएम के जरिए संसदीय कुर्सियों पर भी
काबिज रहना चाहते हैं। यह भी एक तरह से चारित्रिक दोहरापन ही है और उमर अब्दुल्ला का यह बयान उस दोहरापन से खुद को अलग करने की कोशिश भी हो सकता है।
वैसे कांग्रेस के लोगों से ऑफ द रिकॉर्ड बात कीजिए तो वे भी मानते हैं कि चाहे ईवीएम का मुद्दा हो या किसानों का आंदोलन, उनके लिए सिर्फ कवरअप के मुद्दे हैं। कवरअप यानी बचाव का मुद्दा। पार्टी के अंदरूनी सूत्र भी मानते हैं कि जिन कृषि कानूनों के विरोध में कांग्रेस राजनीति कर रही है, उन्हें उसकी ही सरकार ने तैयार किया था। ईवीएम का चलन 2004 में पूरी तरह शुरू हुआ। जिसमें कांग्रेस की अगुआई वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए को जीत मिली थी और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे। तब तो कांग्रेस को यह जीत बहुत पसंद आई थी। इसके अगले यानी 2009 के चुनाव में भी यूपीए को दूसरी
बार जीत मिली। तब भी ईवीएम पर कम से कम कांग्रेस की ओर से सवाल नहीं उठा। तब लालकृष्ण आडवाणी खेमे की ओर से ईवीएम पर सवाल उठा तो उसे सिरे से खारिज कर दिया गया। इसके बाद आडवाणी के लोगों ने उसे तूल नहीं दिया। लेकिन 2014 के बाद से लगातार ईवीएम पर कांग्रेस की ओर से लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं। जबकि कांग्रेस भी जानती है कि ईवीएम में दोष नहीं है, उसकी नीतियों में ही कमी है, जिसकी वजह से वोटर उसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है।
ऑफ द रिकॉर्ड अगर कांग्रेसी नेताओं से बात होती है तो वे मानते हैं कि किसान कानून और ईवीएम का विरोध दरअसल उसके लिए बचाव के मुद्दे हैं। कांग्रेस इन मुद्दों के जरिए अपनी नाकामियां छिपाती रहती है। उदाहरण के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति शेखर यादव के हालिया बयान को लेकर उनके खिलाफ कपिल सिब्बल की अगुआई में महाभियोग चलाना कुछ-कुछ वैसा ही मामला होने जा रहा है, जैसा 1986 में शाहबानो को गुजारा भत्ता देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए संसद से नया कानून बना दिया गया था। बहुसंख्यक सोच जबकि इसके खिलाफ थी, कुछ इसी तरह शेखर यादव के बयान को
लेकर महाभियोग चलाने के फैसले से बहुसंख्यक वोट बैंक सहमत नहीं है। कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को लेकर बहुसंख्यक समाज में विरोध के सुर भले ही खुले तौर पर ना उठें, लेकिन चुनावी मैदान में इसे लेकर बहुसंख्यक वोट बैंक अपना गुस्सा निकाल सकता है। फिर भी कांग्रेस अपनी हार के लिए अपने रूख को लेकर सवाल नहीं उठाएगी, अपने भीतर झांकने की कोशिश नहीं करेगी,बल्कि वह ईवीएम को ही बहाना बनाएगी।
बहरहाल उमर अब्दुल्ला के बयान के बाद कांग्रेस को सबक सीखना होगा। उसे स्वीकार करना होगा कि उसकी बेतुकी बयानबाजी पर सिर्फ सत्ता पक्ष ही नहीं, उसके साथियों को भी एतराज है। उसे यह भी स्वीकार करना होगा कि अगर उसने नीतियां नहीं बदलीं तो उसके नेतृत्व को लेकर विपक्षी गठबंधन में भरोसा कायम नहीं रह पाएगा। जिसका असर आने वाले दिनों में होने जा रहे दिल्ली और बिहार जैसे राज्यों के चुनाव नतीजों में दिख सकता है।
-उमेश चतुर्वेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
अन्य न्यूज़