म्यांमार में सेना का शासन आने से भारत पर क्या पड़ेगा असर, दोनों देशों के बीच दोस्ती के दरवाजे की रोचक कहानी
चाहे वो सामरिक हो या कूटनीतिक या फिर आर्थिक तीनों ही दृष्टि से भारत के लिए महत्वपूर्ण है। म्यांमार और भारत के रिश्तें काफी पुराने रहे हैं। यही वजह है कि जवाहर लाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक लगभग सभी प्रधानमंत्रियों ने म्यांमार की यात्रा की है।
अक्सर ये कहा जाता है कि अगर हमारे पड़ोसी अच्छे हैं तो हमारी रोजमर्रा की कई छोटी-बड़ी बातों की फिक्र यूं ही खत्म हो जाती है। यही फाॅर्मूला देशों पर भी लागू होता है। हमारे पड़ोसी देश म्यांमार यानी बर्मा में सैनिक तख्तापलट से उथल-पुथल मची है। म्यांमार संकट पर भारत की निगाहें भी बनी हुई है क्योंकि चाहे वो सामरिक हो या कूटनीतिक या फिर आर्थिक तीनों ही दृष्टि से भारत के लिए महत्वपूर्ण है। म्यांमार और भारत के रिश्तें काफी पुराने रहे हैं। यही वजह है कि जवाहर लाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक लगभग सभी प्रधानमंत्रियों ने म्यांमार की यात्रा की है। ऐसे में आज हम म्यांमार में तख्ता पलट के मायने, सैन्य शासन के साथ भारत के साथ रिश्ते और इसमें चीन के हाथ होने की आशंकाओं का एमआरआई स्कैन करेंगे। साथ ही आपको दो देशों के बीच दोस्ती के दरवाजे की बात बताएंगे जहां से बिना वीजा और पासपोर्ट वाला ठप्पा लगवाए एक दूसरे की सीमा में बाजार में खरीदारी करने, घूमने आ जा सकते हैं।
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भारत की पूर्वोत्तर सीमा से सटा मुल्क है म्यांमार। एक समय इसे बर्मा के नाम से जाना जाता था। इतिहास में जाएंगे तो इसका एक सिरा भारत से जुड़ता है। सम्राट अशोक के दौर में बौद्ध धर्म बर्मा पहुंचा था और बाद में ये यहां कि संस्कृति का हिस्सा बन गया। आधुनिक इतिहास में ये कड़ी ब्रिटिश साम्राज्य से जुड़ती है। 1824 में अंग्रेजों की नजर बर्मा पर पड़ी। लड़ाई फिर संधि 1885 में बर्मा ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा बन गया। ये हिस्सेदारी 1937 तक चलती रही। इस वर्ष ब्रिटिश क्राउन ने वर्मा को अलग घोषित कर दिया। इसके कुछ समय बाद दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ। यहां जापान ने कब्जा जमाया। जापान ने यहां लोकल फोर्स के लिए नौजवानों की भर्ती की और टुकड़ी का नाम रखा बर्मा इंडिपेंडेंस आर्मी। बीआईए ने आंग सांन को अपना नेता मान लिया। आंग सान ने एक नई पार्टी और नाम रखा एंटी फासिस्ट पीपुल्स फ्रीडम लीग। इस लीग ने ब्रिटेन से हाथ मिलाया और 1945 आते-आते जापान की हालात पतली होने लगी। वो युद्ध से बाहर होने लगा। ब्रिटेन से हाथ मिलाना आंग के काम आया। दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन समेत कई देश कमजोर हुए। आंग सान ने मौके का फायदा उठाया। ब्रिटिश सेना के साथ मिलकर बर्मा को जापान से आजाद कराया। फिर ब्रिटिश क्राउन के प्रतिनिधि के तौर पर शासन का अधिकार प्राप्त किया। आंग सान को दोनो पक्षों ब्रिटिश को और अपने लोगों को भी खुश रखना पड़ता था। लेकिन 1947 में ये संतुलन बिगड़ गया। एक धड़े ने आंग सान की हत्या कर दी। आंग सान की हत्या के बाद सत्ता आई यू नू के पास। 4 जनवरी 1948 को बर्मा ब्रिटिश क्राउन से आजाद हो गया। यू ने देश के प्रधानमंत्री बने। कुछ वक्त शांति चली। बर्मा पंडित नेहरू के गुट निरपेक्ष आंदोलन में शामिल हुआ। 1958 में एंटी फासिस्ट पीपुल्स फ्रीडम लीग में फूट पड़ गई। तब यू नू चीफ ऑफ आर्मी स्टाॅफ जनरल ने विन के पास गए और प्रधानमंत्री बनने की पेशकश कर दी। ने विन ने हामी भर दी और ये हामी म्यांमार की राजनीति में सेना के एंट्री की शुरुआत थी। दो साल बाद देश में चुनाव होते हैं और लोकतांत्रिक सरकार बनती है। 1962 में लोकतांत्रिक सरकार का तख्ता पलट हो जाता है और म्यांमार में सैन्य तानाशाही शुरू हुई। सेना का शासन 26 वर्ष तक चला। 26 वर्षों तक चले इस शासन के दौरान मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप भी सरकार पर लगते रहे। देश का संविधान भंग कर दिया गया। सिर्फ एक पार्टी चली। बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी। फ्री प्रेस पर ताला लगा दिया गया। 1987 में ने विन ने देश में नोटबंदी लागू की। बर्मा की सरकार ने यह फैसला बिना सोचे समझे उठाया। इसका खामियाजा देश को उठाना पड़ा। लाखों लोगों की बचत और सपने एक साथ बिखर गए। जुलाई 1988 में विन को पद से इस्तीफा देना पड़ा। प्रदर्शन हुए और फिर शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोली चलवाई गई। इस हिंसा में तीन हजार से ज्यादा लोग मारे गए। सेना ने तो इस प्रदर्शन को दबा दिया लेकिन एक नाम को उभरने से नहीं रोक पाए। अपनी बीमार मार को देखने बर्मा आई 33 वर्षीय आंग सान सू की जापानियों को खदेड़ने वाले कमांडर आंग सान की सबसे छोटी बेटी। देश लौटीं सू की ने सैन्य शासकों को चुनौती देने के लिए अपनी आजादी त्याग दी। 1989 में बर्मा का नाम बदल कर म्यांमार कर दिया गया और इसी तरह म्यांमार के सबसे बड़े शहर रंगून का नाम भी बदल कर बाद में यंगून किया गया था। साल 1991 में नजरबंदी के दौरान ही सू को नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। 2010 में उन्हें रिहा किया गया। 2015 के नवंबर महीने में सू की पार्टी ने चुनाव जीता। म्यांमार का संविधान उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोकता है क्योंकि उनके बच्चे विदेश नागरिक हैं। रोहिंग्या मुसलमानों की नीति पर उनकी आलोचना हुई। पिछले साल नवंबर में उनकी पार्टी फिर जीती। धांधली बताकर सेना ने तख्तापलट किया।
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