धर्म और आध्यात्म एक ऐसा विषय है जिसकी हर व्यक्ति को तलाश रहती है। भारत के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है सबरीमाला का मंदिर। यहां हर दिन लाखों लोग दर्शन करने के लिए आते हैं। इस मंदिर को विश्व के सबसे बड़े तीर्थ स्थानों में से एक माना जाता है। इस मंदिर में महिलाओं का आना वर्जित है।
राम मंदिर बाबरी मस्जिद मामले में सुप्रीम कोर्ट अपना ऐतिहासिक फैसला सुना चुका है और जल्द ही केंद्र सरकार द्वारा राम मंदिर ट्रस्ट का गठन भी हो जाएगा। अयोध्या मामले पर फैसले के बाद देश एक अन्य बड़े मामले, सबरीमाला पर टकटकी लगाए देख रहा है और जानना चाहता है कि सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर कोर्ट क्या मत रखता है। सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस की अगुवाई वाली 9 सदस्यीय बेंच, जिसमें जस्टिस आर भानुमति, जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एल नागेश्वर राव, जस्टिस एम एम शांतनगौडर, जस्टिस एस ए नजीर, जस्टिस आर सुभाष रेड्डी, जस्टिस बी आर गवई और जस्टिस सूर्यकांत शामिल हैं, मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर फैसला सुनाएगी। फैसला इस बात पर होगा कि महिलाएं मंदिर में प्रवेश करेंगी या नहीं। विभिन्न धर्मों की महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव को लेकर सुप्रीम कोर्ट की 9 सदस्यीय बेंच 10 दिन में सुनवाई करेगी।
सबरीमाला विवाद को समझने के लिए आज हम आपको 30 साल पहले ले जाएंगे। जो आज के बवाल की जड़ बनी हुई है। सबसे पहले आपको एक तस्वीर दिखाते हैं। यह तस्वीर 19 अगस्त 1990 को एक अखबार में छपी थी। सबरीमाला मंदिर के भीतर की यह तस्वीर 30 साल पुरानी है। इस तस्वीर में केरल की तत्कालीन सरकार द्वारा पदस्थ की गईं देवस्वम बोर्ड कमिश्नर चंद्रिका का परिवार दिखाई दे रहा है। यहां चंद्रिका की नातिन का मंदिर के भीतर चोरुनु संस्कार (बच्चे को पहली चावल (अन्न) खिलाए जाने की परंपरा) किया जा रहा है। इस परंपरा को उत्तर भारत के अन्नप्राशन संस्कार से मिलाकर समझा जा सकता है। तस्वीर में चंद्रिका के अलावा उनकी बेटी, जो कि बच्ची की मां हैं वो भी दिखाई दे रही है। इसके अलावा परिवार के अन्य सदस्य, जिनमें महिलाएं शामिल हैं, वे भी मौजूद हैं। ये तस्वीर 19 अगस्त 1990 को केरल के दैनिक अखबार में छपी तो बवाल मच गया।
केरल के चंगनशेरी में रहने वाले एस. महेंद्रन नामक शख्स ने 24 सितंबर 1990 को जनहित याचिका के जरिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और वीआईपी महिलाओं को परंपरा तोड़कर मंदिर में प्रवेश की छूट देने का विरोध किया। केरल हाईकोर्ट ने तस्वीर की गवाही को मानते हुए मामले का संज्ञान लिया और लोगों की आस्था को प्राथमिकता दी। 5 अप्रैल 1991 को केरल हाईकोर्ट ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध का फैसला सुनाते हुए कहा कि ये आस्था का विषय है, इसलिए संविधान के दायरे से बाहर है। केरल हाईकोर्ट के फैसले के बाद 2006 में यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। इस बार दलील महिलाओं के हक में दी जा रही थी। 12 साल चली सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 28 सितंबर 2018 को फैसला सुनाते हुए मंदिर में महिलाओं के जाने पर उम्र की बाध्यता को खत्म कर दिया।
धर्म और आध्यात्म एक ऐसा विषय है जिसकी हर व्यक्ति को तलाश रहती है। हर व्यक्ति इस दिशा में आगे बढ़ना चाहता है। भारत के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है सबरीमाला का मंदिर। यहां हर दिन लाखों लोग दर्शन करने के लिए आते हैं। इस मंदिर को विश्व के सबसे बड़े तीर्थ स्थानों में से एक माना जाता है। इस मंदिर में महिलाओं का आना वर्जित है। इसके पीछे मान्यता ये है कि यहां जिस भगवान की पूजा होती है (श्री अयप्पा), वे ब्रह्मचारी थे इसलिए यहां 10 से 50 साल तक की लड़कियां और महिलाएं नहीं प्रवेश कर सकतीं। सबरीमाला मंदिर में भगवान का स्वरूप नैश्तिका ब्रह्मचारी का है। यह भगवान का वह स्वरूप है जो परंपराओं और पुराणों में है। इसी को आधार बनाकर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगाई गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर दायर 60 पुनर्विचार याचिकाओं पर फैसला बड़ी बेंच को सौंप दिया है।
जहां तक बात सबरीमाला की है तो इस मामले पर केंद्र से लेकर राज्य तक जमकर राजनीति चलती रही है। केरल में भाजपा और कांग्रेस मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के खिलाफ हैं और पिनराई विजयन की कम्युनिस्ट सरकार समर्थन में नजर आ रही थी। जिसके पीछे वो दलील देते नजर आते थे कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू कराना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। लेकिन वर्तमान दौर में सीपीएम ने अपने स्टैंड से अलग रूख में बदलाव किया। सीपीएम राज्य सचिवालय ने केरल की एलडीएफ सरकार को सलाह दी है कि उसे सभी आयु वर्गों की महिलाओं को मंदिर में एंट्री दिलाने पर ज्यादा जोर नहीं देना चाहिए। सीपीएम ने राज्य सरकार को केरल में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए ऐसा करने की सलाह दी है। सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद केरल सरकार ने तमाम विरोध के बीच महिलाओं को मंदिर में एंट्री दिलवाई थी और उसका वीडियो भी जारी किया था। इसके पीछे की वजह राज्य में 2021 में होने वाले विधानसभा चुनाव भी हैं।
लोकसभा चुनाव के दौरान राज्य में जिस तरह से कांग्रेस ने अपनी स्थिति को मजबूत किया है, इसके पीछे सबरीमाला पर पार्टी के स्टैंड ने भी अहम भूमिका निभाई है। ज्ञात हो कि सबरीमाला के मुद्दे पर कांग्रेस की राज्य ईकाई और केंद्रीय नेतृत्व दोनों की राय भिन्न थी। लेकिन आम चुनाव में कांग्रेस को मिली सफलता और उनके साफ्ट हिंदुत्व पर लोगों का भरोसा जागने से सीपीएम जो कभी महिलाओं के दर्शन करने की वीडियो जारी करती थी, घबरा गई है। सूत्रों के मुताबिक पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने केरल की पिनराई विजयन सरकार को सलाह दी है कि वह सबरीमाला मंदिर जाने वाली महिलाओं को सुरक्षा देने को लेकर बहुत ज्यादा दिलचस्पी न ले।
कई बार टूटते रहे सबरीमाला के नियम
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार और मुख्य सचिव रह चुके थोट्टुवेल्ली कृष्णा पिल्लाई अय्यपन नायर ने भी सबरीमाला मंदिर को लेकर एक बड़ा खुलासा किया था। उन्होंने बताया था कि 1940 के दौरान उनका चोरुनु संस्कार (अन्नप्राशन) भी सबरीमाला मंदिर में ही हुआ था. उस दौरान उनकी मां भी मंदिर में मौजूद थीं।
कन्नड फिल्मों की अभिनेत्री और बाद में राजनीति में आने वाली जयमाला ने भी दावा किया था कि जब वह 28 साल की थीं तो 1987 में वह सबरीमाला मंदिर के भीतर गई थीं। उनके इस बयान के बाद तो केरल सरकार ने मामले की जांच की आदेश तक दे दिए थे, लेकिन बाद में उस केस की छानबीन रोक दी गई।
अब आते हैं इसके राजनीतिकरण और अखाड़ा बनाने के एजेंडे पर। सबरीमाला में चर्चित महिला एक्टिविस्ट तृप्ति देसाई जिन्होंने सबरीमाला में प्रवेश करने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो सकी है। ये बात सही है कि महिलाओं के हितों के लिए 10 से 50 साल के बीच की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की अनुमति सुप्रीम कोर्ट ने दे दी है और ये एक तरह से सही भी था कि महिलाओं को आखिर क्यों इस परंपरा के लिए बाध्य माना जाए जिसे न जाने कितनी शताब्दी पूर्व बनाया गया था। लेकिन ये किन महिलाओं के लिए किया गया? वो जो सबरीमाला में जाने की इच्छुक इसलिए थीं क्योंकि उनके मन में आस्था थी। इसलिए नहीं कि सबरीमाला को एक अखाड़ा बनाकर शक्ति प्रदर्शन किया जाए। जहां तक तृप्ति देसाई की बात है तो वो चाहती हैं कि उन्हें प्रार्थना करने दी जाए। लेकिन अगर उनका ट्रैक रिकॉर्ड देखा जाए तो वो हर उस जगह जाने की कोशिश करती हैं जहां मनाही होती है यहां धर्म द्वारा मनाही की बात की जा रही है। क्या तृप्ति को सनी शिंग्नापुर में भी आस्था थी जब उन्होंने वहां गर्भगृह में प्रवेश किया, या फिर उन्हें हाजी अली और त्रयंबकेश्वर मंदिर में जब वो गई थीं। हर जगह तृप्ति ने महिलाओं के प्रार्थना करने के हक को आगे बढ़ाया है, लेकिन अब ये किसी आंदोलन की शक्ल ले चुका है जिसमें महिलाओं को आजादी देने की बात नहीं रह गई है। इसके पहले वो जहां भी गईं वहां महिलाएं खुद जाकर प्रार्थना करना चाहती थीं, लेकिन क्या सबरीमाला के साथ भी ऐसा ही है? सबरीमाला के बारे में अभी तक जितनी भी जानकारी मैंने पढ़ी, सुनी या देखी है उससे तो यही लग रहा है कि जिन महिलाओं की यहां आस्था है वो तो अंदर जाना ही नहीं चाह रही हैं। हो सकता है कुछ डर भी गई हों और वो अंदर जाना चाहती हों, लेकिन सच्चाई क्या है वो जो आंखों से दिख रही है या फिर वो जो सिर्फ लोगों को ख्यालों में है।
गांधी जयंती यानी 2 अक्टूबर का दिन। इसी दिन सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा रिटायर हुए। और इसी दिन उनके एक फैसले के विरोध में जनता सड़क पर उतर आई थी। ये फैसला था सबरीमाला मंदिर से जुड़ा। जब 28 सितंबर को दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली 5 जजों की बेंच ने सबरीमाला मंदिर पर फैसला सुनाया। महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की इजाजत मिल गई। पूरे देश ने इसे महिलाओं के हक में माना और इसे महिलाओं की जीत की तरह सेलिब्रेट भी किया। लेकिन केरल की सड़कों पर इसी फैसले का विरोध करने के लिए हजारों की संख्या में महिलाएं उतर आईं। कुछ ने फैसले का विरोध करते हुए खुद को आग के हवाले तक करने की कोशिश की।
ऐसा नहीं है कि महिलाओं के लिए हक की लड़ाई जायज नहीं है, लेकिन ये हक हमें किस कीमत पर चाहिए? आस्था के नाम पर सबरीमाला के विवाद को लेकर क्यों राजनीतिक मुद्दा बनाया जा रहा है। बहरहाल, देश के इस दूसरे सबसे पेचीदा मामले पर फिलहाल फैसला कोर्ट पर निर्भर है इसलिए अभी इस पर कुछ बात करना जल्दबाजी होगी।