महाशक्तियों की कब्रगाह, जिसे 750 अरब डॉलर से ज्यादा खर्च करने के बाद भी अमेरिका जीत न सका
अरबी भाषा में एक शब्द है- तालिब, जिसका अर्थ होता है छात्र और इसी तालिब का बहुवचन है तालिबान। इसका मतलब है- छात्रों का समूह। अफ़ग़ानिस्तान के नक़्शे पर सबसे पहले तालिबान 90 के दशक में उभरा था।
सदियों पुरानी एक कहानी है, सिकंदर महान की जिसे दुनिया विश्व विजेता का तमगा पहनाती थी। जब सिकंदर ने अपने अभियान की शुरुआत की। उसके रास्ते में पड़ने वाले साम्राज्य एक-एक कर नतमस्तर होते चले गए। एक साल के भीतर उसने एंटोलियो, मेसोपोटामिया और पर्सिया पर कब्जा कर लिया। आगे अफगानिस्तान था। सिकंदर को लगा ये तो कुछ दिनों की बात है। लेकिन वहां पहुंचने पर उसका गणित उल्टा पड़ गया। एक अंतहीन जंग शुरू हो गई। छोटे-छोटे अफगान कबिलों ने सिकंदर की सेना को हांफने पर मजबूर कर दिया। इसमें तीन बरस बीत गए। कुछ लोगों का मानना है कि सिंकदर के हिंदुस्तान न जीत पाने की एक वजह ये भी थी। अफगानिस्तान की सेना ने उसे खूब थका दिया था। उसी समय से एक कुख्यात लाइन चलने लगी " Afghanistan is the graveyard of empiers"
ये केवल सिकंदर की बात नहीं है 19वीं सदी में ब्रिटिश राज में भी यही रवायत देखने को मिली। दुनिया के तमाम मुल्कों पर कब्जा करने वाले अंग्रेज अफगानिस्तान पर कभी तसल्ली से शासन नहीं कर पाए। हालिया इतिहास की बात करे तो दुनिया की दो महाशक्तियां सोवियत संघ और अमेरिका दोनों अफगानिस्तान में बड़े-बड़े अरमान लेकर आए लेकिन उन्हें बेहिसाब बर्बादी और निराशा के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ। चाहे वो 19वीं सदी में ब्रिटिश राज हो, 20वीं सदी में सोवियत संघ हो या 21वीं सदी में अमेरिका, किसी भी विदेशी महाशक्ति को आज तक अफगानिस्तान में उस तरह की राजनीतिक सफलता नहीं मिल सकी, जिसकी मंशा से वो अपनी सैन्य शक्ति के साथ अफगानिस्तान में घुसे। दो दशक के बाद अपना बोरिया बिस्तर लेकर अमेरिका अफगानिस्तान से रफूचक्कर हो गया। अमेरिका का पाखंड देखिए कि अफगानिस्तान में करोड़ों लोगों को संकट में डालने के बाद यही देश तालिबानियों से कह रहे हैं कि आप हमारे दूतावास को बस छोड़ दीजिए। हमारे लोगों को जिंदा छोड़ दीजिए और अफगानिस्तान में आपको जो करना है करिए। अब हम आपको नहीं रोकेंगे। ऐसा लगता है जैसे अमेरिका और उसके मित्र देशों ने तालिबान के साथ एक समझौता किया है। ऐसे में आपको बताएंगे कि क्या है तालिबान और इसके शासन से अफगानिस्तान में क्या बदल जाएगा। भारत पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा।
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क्या है तालिबान?
अरबी भाषा में एक शब्द है- तालिब, जिसका अर्थ होता है छात्र और इसी तालिब का बहुवचन है तालिबान। इसका मतलब है- छात्रों का समूह। अफ़ग़ानिस्तान के नक़्शे पर सबसे पहले तालिबान 90 के दशक में उभरा था। उस वक़्त देश भयंकर गृह युद्ध की चपेट में था। तमाम ताक़तवर कमांडरों की अपनी-अपनी सेनाएं थीं। सब देश की सत्ता में हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ रहे थे। अचानक ही अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान बेहद ताक़तवर हो गया था। देश की सत्ता पर क़ब्ज़े के लिए उन्होंने भी दूसरे लड़ाकों से जंग छेड़ दी थी। उन्हें हर मोर्चे पर जीत मिल रही थी। 1994 का साल शुक्रवार का यानी जुमे का दिन। एक दरगाह जिसके कई दरवाजे और तालों के भीतर रखा था एक प्राचीन चोगा। जिसे लोग पैगंबर मुहम्मद का चोगा कहते हैं। जिसे दशकों पहले एक राजा द्वारा बड़ी हिफाजत के साथ उस दरगाह के अंदर रखवाया था। कराची मदरसे में पढ़ने वाले मुहम्मद उमर ने दरगाह के भीतर दाखिल होकर सभी दरवाजे और तालों से दो-चार होते हुए आखिरकार उस चोगे को अपने अधिकार में लिया और इसके साथ ही मुनादी करवा दी कि अगले जुम्मे की रोज सभी सुबह 7 बजे पुरानी मस्जिद पहुंच जाएं। अगले जुमे के दिन अपने हाथों में चोगे को फंसाए उमर खड़ा था और उसे देखकर सभी ने एक स्वर में नारा लगाया- अमीर उल मोमिनीन-अमीर उल मोमिनीन। जिसका अर्थ होता है इस्लाम में आस्था रखने वालों का लीडर। सत्ता में आने पर तालिबान ने पहला काम किया कि राष्ट्रपति नज़ीबुल्लाह को सरेआम फांसी दे दी। जल्द ही तालिबानी पुलिस ने अपना निज़ाम क़ायम करना शुरू कर दिया था। औरतों के घर से निकलने पर पाबंदी लगा दी गई। उनकी पढ़ाई छुड़वा दी गई। तालिबान ने जल्द ही देश में गीत संगीत, नाच-गाने, पतंगबाज़ी से लेकर दाढ़ी काटने तक पर रोक लगा दी।
काम कैसे करता है?
किसी देश की सरकार की माफिर तालिबान भी काम करता है। इसमें एक मुखिया होता है। उसके बाद तीन डिप्टी लीडर होते हैं। इकी एक लीडरशिप काउंसिल (रहबरी शूरा) होती है। सभी प्रांतों के लिए अलग-अलग गवर्नर और कमांडर की भी नियुक्ति की जाती है।
अफगान शांति समझौता
29 फरवरी 2020 को दुनिया की एक बड़ी ताकत, दुनिया के दरोगा की हैसियत रखने वाला अमेरिका ने दुनिया के एक छोटे से भूभाग में तालिबान के आगे घुटने टेक दिए। अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौते पर मुहर लग गई। समझौते के बाद अमेरिका का लक्ष्य होगा कि वो चौदह महीने के अंदर अगानिस्तान से सभी बलों को वापस बुला ले। 14 अप्रैल को अमेरिका सेना की वापसी का ऐलान किया गया था। उसके बाद अब 15 अगस्त को यानी 124 दिनों में तालिबान ने अफगान सरकार को घुटनों पर ला दिया है।
ऐसे बदले हालात
- 14 अप्रैल- अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा 11 सितंबर तक अमेरिकी सैनिकों की वापसी का ऐलान किया गया।
- 4 मई- तालिबान के लड़ाकों ने हेलमंद समेत छह प्रांत में सुरक्षा बलों के खिलाफ हमला बोला।
- 11 मई- काबुल के नजदीक नर्ख जिले पर तालिबान ने कब्जा कर लिया।
- 2 जुलाई- अमेरिकी सैनिकों ने आधी रात को अपना प्रमुख ठिकाना बगराम एयरबेस खाली कर दिया, जिससे तालिबान का हौसला बढ़ा।
- 21 जुलाई- तालिबान ने लड़ते हुए करीब आधे अफगानिस्तान पर अपना कब्जा जमा लिया।
- 6 अगस्त- तालिबान ने जरांग इलाके पर कब्जा किया। जरांग पहली प्रांतीय राजधानी थी जिस पर तालिबान का कब्जा हुआ था।
- 12-13 अगस्त- तालिबान ने कंधार, हेरात समेत चार प्रांत की राजधानियों पर कब्जा कर लिया।
- 14 अगस्त- तालिबान ने राजधानी काबुल के दक्षिण में लोगार प्रांत पर भी कब्जा कर लिया है। फिर आतंकी संगठन ने पूर्व का जलालाबाद शहर कब्जा लिया और काबुल को घेर लिया।
- 15 अगस्त- 100 से अधिक दिनों से जारी संघर्ष के बाद तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा जमाया है।
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तालिबान का कब्जा
7 अगस्त- जरांज (निमरोज)
8 अगस्त- शेबेरगन ( जॉबजान), कुंदुज, तालोकान, सर ए पोल
9 अगस्त- ऐबक
10 अगस्त- पुल ए खुमरी
11 अगस्त- फैजाबाद
12 अगस्त- गजनी
13 अगस्त- कलत, तेरेंकोट, लश्कर गाह, बदगीश, पुल ए आलम
आर्थिक नुकसान
750 अरब डालर से ज्यादा खर्च तालिबान के खिलाफ जंग में हुआ।
1.5 अरब डालर हर साल अफीम की खेती से कमाता है तालिबान
सैन्य बल
39 नाटो सदस्य देशों व अमेरिका की सेना तैनात
31 हजार सेना तैनात, जिसमें 14 हजार अमेरिकी सैनिक
हिंसा
2009 से 2019 के बीच 32 हजार अफगान नागरिक मारे गए।
60 हजार से अधिक अफगान नागरिक घायल हो गए।
2014 से अगस्त 2019 तक 45 हजार सैनिक इस युद्ध में मारे गए।
बीते 18 सालों में 3459 अमेरिकी और नाटो सैनिक मारे गए।
18 वर्षों में 31 हजार से ज्यादा तालिबानी लड़ाके मारे गए।
तालिबान के बड़े चेहरे
मुल्ला महमूद याकूब- 2015 में तालिबान ने अपने सुप्रीम कमांडर अमीर मुल्ला मोहम्मद उमर की मौत का ऐलान किया था। कहा गया कि मुल्ला उमर पाकिस्तान के पेशावर में 2013 से ही बीमार थे। हालांकि क्या बीमारी थी और कब मरे इन बातों का खुलासा नहीं हुआ। उसी समय पहली बार तालिबान के एक आंख वाले मुल्ला उमर का बेटा मोहम्मद याकूब सामने आया था।मुल्ला याकूब के बारे में कहा जाता है कि उसे सऊदी अरब के राजशाही सउद परिवार का पूरा समर्थन हासिल है और तालिबान को जिस धन की जरूरत है, वो सऊदी अरब से मिलता है।
सिराजुद्दीन हक्कानी- 1970-80 के दशक में सोवियत सेनाओं के खिलाफ गोरिल्ला हमले करने वाले जलालुद्दीन हक्कानी का बेटा है सिराजुद्दीन हक्कानी। तालिबान में इसकी हैसियत नंबर दो मानी जाती है। अमेरिका जिस हक्कानी नेटवर्क को नेस्तनाबूद करना चाहता है, उसका लीडर सिराजुद्दीन हक्कानी ही है।
तालिबान के इन कमांडरों ने लिखी अफगानिस्तान में आतंक की कहानी #TalibanTakeover #TalibanCapturesAfghanistan #Taliban #Afghanistan #AfghanistanCrisis pic.twitter.com/r3X2Xpp6WX
— Prabhasakshi (@prabhasakshi) August 19, 2021
हैबतुल्लाह अखून जादा- अखुंदजादा अल-कायदा के चीफ अयमान अल जवाहिरी का करीबी समझा जाता है। कहा तो ये भी जाता है कि जवाहिरी ने उसे ‘अमीर’ का ओहदा सौंपा था। यह पदवी भी धार्मिक मामलों में फैसला करने वाले सर्वोच्च नेता की थी।- अभिनय आकाश
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