टीका से टिकाऊ हुआ टीका (व्यंग्य)
आस्था का टीका हमारे लिए कितने महत्व का है यह हम पुरातन काल से जानते हैं। इतिहास बताता है कि युद्ध में हर योद्धा को उसकी मॉं या पत्नी टीका लगाकर ही भेजती थी जिससे उसकी बाज़ुओं में कई गुना जोश भर जाता था और दुश्मन की शामत आ जाती थी।
उन्होंने टीकाकरण से पहले टीका के डिब्बे को टीका लगाया... टीवी पर यह सीन देख कर दिल बाग़-बाग़ हो गया। ये हुई न बात... मन के भीतर से आवाज आई। हमें विश्वास हो गया कि अब विज्ञानं अपना काम करेगा। विज्ञानं और आस्था हमारे लिए हमेशा से एक दूसरे के पूरक रहे हैं पर विज्ञानं से ज्यादा भरोसा हमें अपनी आस्था पर है। हम अपनी आस्था के मुताबिक ही विज्ञानं पर भरोसा करते हैं। केवल विज्ञानं पर भरोसा करना हमें नहीं आता। इसीलिए हमने जब राफ़ेल मँगाए तो उनके उतरते ही सबसे पहला काम हमने उन पर टीका लगाने का किया। हमारा मानना है कि टीका लगने से राफ़ेल की मारक क्षमता में और वृद्धि हो गई व दुश्मन के मन में भय का भाव दोगुना हो गया।
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आस्था का टीका हमारे लिए कितने महत्व का है यह हम पुरातन काल से जानते हैं। इतिहास बताता है कि युद्ध में हर योद्धा को उसकी मॉं या पत्नी टीका लगाकर ही भेजती थी जिससे उसकी बाज़ुओं में कई गुना जोश भर जाता था और दुश्मन की शामत आ जाती थी। सिर कटने के बावजूद केवल धड़ से ही घंटों युद्ध करते रहते थे हमारे पुराने जमाने के ये योद्धा। बाजुओं में जोश आ जाए तो फिर किसी की क्या बिसात जो सामने टिक जाए। बस पूर्व में हमसे यही गलती हो गई थी कि बाजुओं में जोश भरे बिना ही हमने वायरस को सबक सिखाने की ठान ली और तालियाँ बजवा दी। जैसी आशंका थी वही हुआ... तालियाँ बजीं, खूब बजीं पर कमजोर रह गईं और उनसे इतनी ऊर्जा उत्पन्न नहीं हो सकी कि वायरस भयभीत हो पाता, उलटा वह बेशर्म मेहमान की तरह घर में टिक गया। उस समय हमने ललाट पर टीका लगवा कर तालियाँ बजाने का आव्हान किया होता तो फिर फड़कती भुजाओं से निकली तालियों का असर ही कुछ अलग होता और हमें आज इस विज्ञानी टीके की जरूरत ही नहीं पड़ती।
उसके पहले भी हमसे एक गलती हुई थी। उसी गलती के कारण देश में वायरस के प्रकोप से संक्रमित मरीजों की संख्या करोड़ के आंकड़े को पार गई। देश में जब पहला मरीज़ मिला था तभी हम उसे पकड़ कर माथे पर हल्दी चावल का टीका लगा देते तो उसके अंदर जा घुसे वायरस का दम वहीं निकल जाता। दम नहीं भी निकलता तो कम से कम वह दूसरे पर चिपकने लायक तो नहीं ही बचता और हमें महामारी का इतना दुखद एवं घातक स्वरूप नहीं नहीं देखना पड़ता।
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हमारे यहाँ कहा भी जाता है कि देर आए दुरुस्त आए। सो हमने पिछली दो-दो गलतियों से सबक सीखा और उन गलतियों को सही समय पर सुधार लिया। टीका को टीका लगाकर हमने अपने टीकाकरण अभियान की शुरुआत की। डिब्बे के ऊपर आस्था का टीका क्या लगा, डिब्बे में बंद विज्ञानं के टीका में हमारी आस्था जाग गई। हमें अपनी आस्था पर हमेशा अपनी काबिलियत से ज्यादा भरोसा रहा है। टीकाकरण शुरु हुए दो दिन हो गए और कहीं से कोई शिकायत नहीं मिली... यह सुखद परिणाम आना ही था सो आ रहा है। टीका पर टीका टिप्पणी करने वाले टीका के टिकाऊ सिद्ध हो जाने से चुप हैं।
- अरुण अर्णव खरे
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