अभी सियासी संक्रांति बाकी है (व्यंग्य)

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इस पर्व के अवसर पर कुछ राज्यों में कुक्कुटनाथों के बीच जोरदार भिड़ंत करवाते हैं। इस बार यह भिडंत कुछ कोरोना के चलते तो कुछ बर्ड फ्लू के चलते नदारद रही। वैसे भी हमारे देश में भिड़ंत के अवसर थोड़े न लुप्त होते हैं! जब जी चाहा जहाँ चाहा शुरू हो गए।

सूर्य देवता बहुत दिनों के बाद मकर राशि में प्रविष्ट हुए। चलिए कोई एक तो हैं जो समय पर अपना काम करते हैं, वरना चुनावी वायदों की तरह मुकरने वाले कुकुरमुत्ते की भला दुनिया में कोई कमी है। सूर्य देवता की मकर राशि में प्रविष्टि को लेकर भारत भर में एक ही तरह के अलग-अलग नाम वाले त्यौहार मनाए जाते हैं। अब भला सूर्य के संक्रांत को लोहड़ी कह लीजिए या फिर पोंगल, गुड़ी पड़वा कह लीजिए या फिर बिहू क्या फर्क पड़ता है। नाम बदलने से काम बदलने लगें तो देश का भला कब का हो जाता। वैसे भी यही एक त्यौहार है जिसका किसी राक्षस देवी-देवता के जन्म अथवा राक्षस संहार से कोई कनेक्शन नहीं है। यह तो चौबीस कैरेट वाला प्योर लोगों का त्यौहार है, स्त्रियों का त्यौहार है और बच्चों का त्यौहार है।

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इस पर्व के अवसर पर कुछ राज्यों में कुक्कुटनाथों के बीच जोरदार भिड़ंत करवाते हैं। इस बार यह भिडंत कुछ कोरोना के चलते तो कुछ बर्ड फ्लू के चलते नदारद रही। वैसे भी हमारे देश में भिड़ंत के अवसर थोड़े न लुप्त होते हैं! जब जी चाहा जहाँ चाहा शुरू हो गए। विशेष बात यह रही कि जिन किन्हीं राज्यों में यह कुक्कुट भिड़ंत होती है वहाँ के तुगलकी प्रशासकों ने यह फरमान जारी कर दिया कि कुक्कुटों के मुख पर मास्क का कवच धारण करवाना अनिवार्य होगा। जहाँ इंसानों की मौत की कोई वैल्यू नहीं वहाँ कुक्कुटों की चिंता करने वाले इन तुगलकी महाप्रभुओं की जितनी प्रशंसा की जाए कम है।

हमारे त्यौहारों का राजनीति के साथ चोली-दामन-सा संबंध है। अब देखिए न शीतलहर के बीच सूर्य देवता का मकर राशि में प्रवेशोत्सव के रूप में मनाने के लिए हमारे किसान महीनों से दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर चाकचौबंद बैठे हैं। वह भी पूरे लंगर के साथ! कोई माई का लाल उन्हें हटा के दिखाएँ! लोगों के लिए सूर्य मकर राशि में जब प्रवेश करेगा तब करेगा, लेकिन किसानों के चलते सियासी सूर्य कब का प्रवेश कर चुका है। कर्नाटक में येडुरप्पा सरकार ने कैबिनेट विस्तार कर अपनी सियासी पोंगली खिलाने में तनिक भी चूक नहीं की। कइयों की लपलपाती जीभें इस पोंगली के लिए तरसकर रह गयीं।

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वैसे भी वर्ष में मकर संक्रांति पर्व एक बार आता है। किंतु चुनावों का संक्रांत पर्व वर्ष के बारह महीनों कहीं न कहीं चलता ही रहता है। कहीं साधारण चुनाव तो कहीं नगर निकाय के चुनाव, कहीं ग्राम चुनाव तो कहीं कुछ। सूर्य एक बार के लिए पूर्व की जगह पश्चिम से उदित हो जाएगा लेकिन हमारे चुनावों की निरंतरता को रोकने की हिम्मत भगवान के पास भी नहीं है। विश्वास न हो तो बिहार का चुनाव ही ले लो। लाख दुनिया कोरोना से मर रही थी, लेकिन बिहार के चुनावों ने कोरोना को ही मार दिया। मानो ऐसा लगता है कि इस देश में चुनाव को छोड़कर सब परिवर्तनशील है। अब देखिए न बंगाल में सभी अपनी-अपनी पतंग उड़ाने में लगे हैं। सभी एक-दूसरे को काटने पर तुले हैं। कोई पतंग कटकर इस पाले में गिर रही है तो कोई पतंग उस पाले में। तमिलनाडु में एक पोंगली समाप्त हुई कि नहीं चुनावी पोंगली की सुगबुगाहट जोरों पर है। वही हालत असोम के बिहू की है। जाने वहाँ कौन कैसा नाचेगा पता नहीं, लेकिन किसी न किसी का बिहू निकलना पक्का है। किंतु पर्व मनाने का जो जिगरा केंद्र सरकार के पास है, वह और किसी के पास नहीं है। तभी तो किसानों को एक साथ शिवरात्रि, होली पर्व मनाने के लिए डेरा डाले ऱखने के लिए परोक्ष रूप से कह चुकी है। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। न सरकार किसानों की माँगें मानेगी न किसान आंदोलन समाप्त करेंगे।

सारी दुनिया एक तरफ तो ट्रंप की दुनिया एक तरफ है। सारे लोग हवा के संग पतंग उड़ाते हैं तो वे उल्टी दिशा में अपनी पतंग उड़ाने की जिद पर अड़े हैं। उनसे तो अच्छे दुधमुंहे बच्चे हैं जो एक बार के लिए समझाने पर समझ तो जाते हैं। ट्रंप, ट्रंप न हुए कचरा डंप करने वालों के मसीहा हो गए हैं। ये सब सियासी संक्रांति है। जनता के लिए असली संक्रांति युगों से बाकी है। न वे संक्रांत होंगे और न उनका फेर बदलेगा। उनके भाग्य का सूर्य अभी भी संक्रांत होने के लिए तरस रहा है।

-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

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