आचार संहिता का अचार (व्यंग्य)
जीभ कहती है कि खाने का जो मज़ा, मनचाहे स्वाद वाले अचार के साथ खाने का है वह बिना अचार कहां। कितनी मेहनत, योजना और धन से विज्ञापन लोगों की नज़रों में चढ़वाए जाते हैं लेकिन चुनाव में उतरवाने पड़ते हैं।
चुनाव जारी है, आचार संहिता सख्ती से लगी हुई है लेकिन सरकारी सड़क की तरह यहां, वहां और कहां कहां टूट फूट भी रही है। संहिता कांच की होती है जिसे तोड़ने के लिए लोकतान्त्रिक बेकरारी का नटखट ‘कन्हैया’, इसके लगने की घोषणा के साथ ही अवतरित हो जाता है। उधर विकासजी निढाल रहते हैं, घोषणाओं की योजनाओं और योजनाओं की घोषणाओं का अचार जो डलने से रह जाता है। विपक्ष को चाहे पूरा विश्वास हो कि सरकार बनाना उसके बस में नहीं लेकिन सरकार बनाने की घोषणाएं ‘मुफ्त’ में करता है।
जीभ कहती है कि खाने का जो मज़ा, मनचाहे स्वाद वाले अचार के साथ खाने का है वह बिना अचार कहां। कितनी मेहनत, योजना और धन से विज्ञापन लोगों की नज़रों में चढ़वाए जाते हैं लेकिन चुनाव में उतरवाने पड़ते हैं। वैसे विचार किया जाए तो महंगे विज्ञापन बोर्ड उतरवाने की ज़रूरत नहीं है इन पर वैधानिक चेतावनी चिपका देनी चाहिए, ‘नई सरकार के गठन तक इन्हें पढ़ना असवैंधानिक है कृपया इस बोर्ड की तरफ न देखें’। इन बोर्ड्स को सफ़ेद कपडे से ढक दें तो शांति का विशाल प्रतीक बन सकता है। पुरानी सरकार लौट आए तो यही विज्ञापन प्रयोग कर राष्ट्रीय दौलत भी बचाई जा सकती है।
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इस मौसम में अनाधिकृत निर्माण करने वाले भी राजनीतिक चटखारे ले लेकर नवनिर्माण करने में लगे हैं क्यूंकि नगरपालिका के कर्मचारी भी आचार संहिता के अनुसार चुनाव करवाने में व्यस्त हो गए हैं। संज्ञान लेकर किसी को भी हमेशा की तरह ‘सख्त’ नोटिस भेजने का समय उनके पास नहीं है। इस दौरान धारा एक सौ चवालिस लगा दी जाती है, न भी लगाएं तो क्या, लोकतान्त्रिक अनुशासन तो हमारे रोम रोम में रचा बसा हुआ है। इस अंतराल में वोटरों को मुस्कुराहटों में तली वायदों की मसालेदार स्वादिष्ट चाट खाने को मिलती है जिससे उनका स्वास्थ्य भी दरुस्त हो जाता है। चुनाव तो संहिता के अनुसार ही होता है लेकिन हर अचार डालने के अपने अपने सिद्धहस्त फार्मूले होते हैं लेकिन स्वादिष्ट वही डाल सकता है जिसके हाथ में संतुलन, अनुभव और प्रतिबद्धता रहती है। संहिता लगते ही पेड ‘खबरें’ ही नहीं, पेड चैनल भी ‘रुक’ जाते हैं। शायद सोशल मीडिया पर भी फर्क पड़ जाता है। क्या इस दौरान सच्चे देशभक्त बढ़ जाते हैं। हमारे देशप्रेमी राजनेता इस अंतराल का ग़लत फायदा तो नहीं उठाते होंगे ?
यह बात हमेशा लागू है कि व्यवसाय में लाभ कमाने के लिए साम, दाम, दंड और भेद का अचार प्रयोग करना ही पड़ता है। अचार स्वाद से भरपूर रहे और बाज़ार पर किसी तरह कब्जा कर ले इसके लिए हर कुछ करना ही पड़ता है। समय पर उपयोग न हो तो स्वादिष्ट आम भी सड़ जाता है। बुद्धिजन फरमाते रहे हैं अचार खाने के बाद झूठे आरोप न लगाएं। व्यवहार की संहिता कहती है सच्चे आरोपों की खटास से भी गला खराब हो सकता है।
- संतोष उत्सुक
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