मेरे मित्र नौरंगी लाल (व्यंग्य)

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Prabhasakshi

आपको लगता होगा कि हममें इतनी समानताएँ हैं इसीलिए हम दोनों में गहरी छनती है। पर आप गलत हैं। हमारी छनती इसलिए है कि हम कभी अपनी ताजी लिखी रचनाओं को एक दूसरे के घर आ-जाकर सुनाने की गुस्ताखी नहीं करते।

मेरे एक पक्के मित्र हैं नौरंगी लाल। उनमें और मुझमें बहुत सी समानताएँ हैं। सबसे पहली तो यही कि हम दोनों को ही कागज रँगने का शौक है। इस शौक को मेरी भार्या ने यही नाम दिया है यद्यपि कुछ सभ्रांत किस्म के लोग इसे लेखकीय कर्म कहते हैं, सो इस लिहाज से हम दोनों लेखक हुए। दूसरा हम दोनों की विधा भी एक है। तीसरा हम दोनों को ही मुगालता है कि हम बहुत पहुँचे हुए लेखक हैं। यह एक अलग मसला है कि हम दोनों स्वांत: सुखाय लिखते हैं। ऐसा हम मानते नहीं, जताते हैं। जताना इसलिए पड़ता है कि जहाँ भी हम रचनाएँ भेजते हैं वहाँ के संपादकों को ऐसा ही लगता है। वे अपने पाठकों को दुखी देखना नहीं चाहते सो जताना अपनी भी मजबूरी है। चौथी बड़ी समानता, हम दोनों ही अनेक आनलाइन साहित्यिक समूहों के सक्रिय सदस्य हैं। कुछ के तो बकायदा एडमिन भी हैं। एडमिन इसलिए बनना पड़ा ताकि एक दूसरे की रचनाएँ अपने-अपने समूहों में वाह-वाही के लिए पोस्ट कर सकें। कुछ छिछोरे और घुन्ना टाइप के रचनाकार इसे "तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी खुजाऊँ" वृत्ति कहते हैं लेकिन हमारा मत भिन्न है। हम इसे महज अपने प्रोडक्ट के प्रमोशन कैम्पेन की तरह लेते हैं। जो सदस्य हमारी इस भावना को नहीं समझ पाते उनकी रचनाओं की छीछालेदर हम अपने स्लीपर सदस्यों से करवाते रहते हैं। दो-चार बार ऐसा करने से बेचारे लाइन पर आ जाते हैं और "वाह वाह क्या बात है" जैसे जुमले रचनाओं के नीचे चिपकाने लगते हैं।

आपको लगता होगा कि हममें इतनी समानताएँ हैं इसीलिए हम दोनों में गहरी छनती है। पर आप गलत हैं। हमारी छनती इसलिए है कि हम कभी अपनी ताजी लिखी रचनाओं को एक दूसरे के घर आ-जाकर सुनाने की गुस्ताखी नहीं करते। हमारा मानना है कि हम जब बिना पढ़े ही रचना को अपने-अपने समूहों में हिट करवा देने की दैवीय प्रतिभा से लबरेज हैं तब क्यों बेकार के चोंचलों में पड़कर अपनी दोस्ती में दरार डालें। लेकिन एक बात है जो इतनी समानधर्मिता के बावजूद हमें अलग करती है। जहाँ मैं दब्बू किस्म का हूँ वहीं नौरंगी लाल थोड़े फेंकू किस्म के हैं। फेंकू वो वाले नहीं जो आप समझ रहे हैं, वे सच्चे किस्म के साहित्यिक फेंकू हैं। अन्य समूहों में जब-जब किसी लेखक की रचना की बहुत ज्यादा तारीफ होने लगती है उन्हें अपच होने लगता है और वह यह लिखने से बाज नहीं आते- "इसी विषय पर मैंने भी कुछ समय पूर्व एक रचना लिखी थी जो फलां-फलां पेपर में छपी थी। अनेक लोगों ने व्यक्तिगत मैसेज भेजकर उसे बहुत ही मारक रचना बताया था।" उनकी इस बेजा हरकत का मुझे समर्थन करना पड़ता और शब्दों की कसीदाकारी करते हुए कुछ ऐसी पंक्तियाँ चेंपनी पड़ती जिन्हें पढ़कर अच्छे-खासे भक्त भी शर्माने लगें।

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आज सुबह-सुबह उनका फोन आ गया- "यार इक मुसीबत हो गई है.. अब तुम्हीं इससे उबार सकते हो"

मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि "कल रात एक लेखक की रचना की तारीफ पढ़कर मैंने सहज रूप में लिख दिया था- कि ऐसी ही रचना मैंने भी कभी लिखी थी जो धर्मयुग में छपी थी। लोगों को बहुत पसंद आई थी। कुछ ने तो उसे परसाई से भी बेहतर करार दिया था। अब वह लेखक उस रचना को समूह में डालने की जिद्द कर रहा है .. क्या करूँ .." 

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सुनकर मेरे मस्तिष्क की संवेक कोशिका उद्दीपित हो उठी। कुछ मिनट तक सोचा और फिर उस समूह में जाकर रोष जताते हुए लिखा- "दोनों मित्रों की पोस्ट पढ़ी... किसी लेखक से उसकी पुरानी रचना पोस्ट करने का आग्रह इस समूह की नीति नहीं है... ऐसे आग्रह में एक तरह की ईर्ष्या-वृत्ति या लेखकीय जलन ध्वनित हो रही है जिससे समूह को बचना होगा अन्यथा यहाँ भी दूसरे समूहों की तरह अराजकता फैलने लगेगी।"

बंदा स्वाभिमानी निकला। कुछ ही मिनटों में उसने समूह को विदा कह दिया। नौरंगी लाल के साथ मैंने भी राहत की सांस ली।

- अरुण अर्णव खरे

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