जीकर मरने वाले और मरकर जीने वाले (व्यंग्य)

hindi satire

एक दिन कुछ जीकर मरने वाले, मरकर जीने वालों के पास अपने बदहाल जीवन का दुखड़ा लेकर पहुँचे। वे देश का हाल बदलने के लिए एक मौका चाहते थे। मरकर जीने वाले उस समय जीकर मरने वालों के लिए कोई बिल बना रहे थे।

जिंदगी जीने के दो ही तरीके हैं। जीकर मरो या मरकर जियो। जीकर मरने वालों की जिंदगी पानी के बुलबुलों की तरह होती है। इसमें जय जवान-जय किसान वर्ग के लोग आते हैं। जबकि मर कर जीने वाले कछुए की तरह होते हैं। इसमें भोग-विलासी नेता, अधिकारी, पूंजीपतियों की भरमार होती है। कछुआ, नेता, अधिकारी, पूंजीपतियों में यह समानता होती है कि वे अपनी ऊर्जा बेकार में बर्बाद नहीं करते। इनकी नींद को चिंतन, जागने को क्रांति, भूखे रहने को अनशन, नाखून-बाल कटाने को त्याग और रोने को राष्ट्रीय अवसाद कहते हैं।

इसे भी पढ़ें: चीप दुनिया और चिप दुनिया (व्यंग्य)

एक दिन कुछ जीकर मरने वाले, मरकर जीने वालों के पास अपने बदहाल जीवन का दुखड़ा लेकर पहुँचे। वे देश का हाल बदलने के लिए एक मौका चाहते थे। मरकर जीने वाले उस समय जीकर मरने वालों के लिए कोई बिल बना रहे थे। उन्होंने उनकी बात सुनी, मुँह निपोरते हुए कहा- आपको अपने दुखड़ों की पड़ी है! देखते नहीं हो, हम आपकी भलाई के लिए कितना बड़ा बिल बना रहे हैं। इस पर जीकर मरने वालों में से एक तुनुकमिजाज ने कहा– आप सिर्फ बिल बनाने के सिवाय कर भी क्या सकते हैं? ये बिल आपके भागने के लिए होते हैं। हमें बचाने के लिए नहीं। देश के जितने भी कानून बनते हैं, वे इन्हीं बिलों से बनते हैं। बिल कानून बनाने के लिए नहीं दायित्वों से बचने-बचाने के लिए बनाए जाते हैं। यह सुनते ही मरकर जीने वाले भड़क उठे। वे ताव में आते हुए बोले– ज्यादा चपड़-चपड़ मत करो। ये बिल तो तुम्हारे फायदे के लिए नहीं तो किस लिए बनाए गए हैं? इस पर जीकर मरने वालों में से एक ने चुटकी लेते हुए कहा– बात तो आपकी सही है। गृह हिंसा कानून में गृह हिंसा, शिक्षा कानून में शिक्षा, किसान कानून में किसान, रोजगार कानून में रोजगार वैसे ही हैं जैसे मोतीचूर के लड्डू में मोती। नाम के मोती बाकी सब चूरा ही तो है।

इसे भी पढ़ें: आसमान प्याज का भी है (व्यंग्य)

मरकर जीने वालों का पारा सातवें आसमान पर था। उनमें से एक वकील टाइप ने कहा– देश की रक्षा जवान करता है। उनका पेट किसान भरता है। किसान को बीज, खाद, पानी, सही कीमत हम देते हैं। अगर हम यह नहीं करेंगे तो किसान को किसान और जवान को जवान कौन कहेगा? किसान का काम अपनी जिंदगी के दुखों को सान कर हमें सुख का निवाला खिलाना है। जवानों का काम अपनी जवानी लुटाकर हमारी रवानी बचाना है। जिसकी नियति में टूटना और मिटना लिखा होता है उसे सवाल पूछने का कोई अधिकार नहीं होता। किसान और जवान को मारने के लिए कानूनों की जरूरत नहीं पड़ती। उन्हें केवल किसान और जवान कहना बंद कर दो वे अपने आप मर जायेंगे। देश ऐसे स्वाभिमानी लोगों से नहीं चलता। देश तो चलता है, मोटी खाल ओढ़े गेंडों से। गिद्धी आँखों पर विकास का डुप्लीकेट चश्मा लगाए कपटियों से। गाली-गलौज, बदनामी, थू-थू सहकर भी अविचलित होने वाले निर्लज्जों से। तुम जैसे लोगों से नहीं जो जरा-जरा सी बातों पर देश के लिए मर मिटते हो। अगर सभी ऐसे मरने लगें तो देश को कौन चलाएगा? कोई तो होना चाहिए जो देश की देख-रेख कर सके। इसलिए देश में जो हो रहा है, होने दो। जैसा चल रहा है, चलने दो। ज्यादा बदलने की कोशिश मत करो। वरना इस देश का इतिहास जानते ही हो कि बदलने वालों को ही लोग बदल देते हैं। इतना सुनना था कि जीकर मरने वाले अपना इतना सा मुँह लिए वहाँ से चलते बने।

-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त'

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़