आम आदमी की ज़रूरत नहीं (व्यंग्य)
यह विडंबना का विकसित स्वरूप ही है कि अभी तो कृत्रिम बुद्धि ने अपना सिक्का जमाना शुरू ही किया है और इसके बनाने वाले ही परेशान होने लगे हैं। विकास होता ही ऐसा है। विकास करने और करवाने के लिए हर कोई तडपता है।
आम आदमी की ज़रूरतों बारे, बातें और विचार विमर्श करने के लिए, बदलावों की जननी राजनीतिजी तैयार बैठी रहती हैं। उनके हुक्म के बिना सूखा पत्ता भी नहीं गिरता, वह बात दीगर है कि ज़िंदगी की ज़रूरतें शोर मचाती रहती हैं। उधर ख़ास लोग अपने काम में जुटे रहते हैं। अब ख़ास बुद्धि का ज़माना आ चुका है जिसे आम बुद्धि की ज़रूरत नहीं है। नई, विशेष, स्वादिष्ट, चमकती, शान बढ़ाऊ बुद्धि बाज़ार में बिक रही है ।
यह विडंबना का विकसित स्वरूप ही है कि अभी तो कृत्रिम बुद्धि ने अपना सिक्का जमाना शुरू ही किया है और इसके बनाने वाले ही परेशान होने लगे हैं। विकास होता ही ऐसा है। विकास करने और करवाने के लिए हर कोई तडपता है। अपने पराए हो जाते हैं और पराए, अपनों को छोड़कर अपना विकास करवाने इधर आ जाते हैं। विकास होने लगे और होता जाए, ज़्यादा हो जाए तो पता नहीं चलता कि कब विकास के भेस में विनाश जीवन में प्रवेश कर जाता है। फिर हाय तौबा मचती है कि इतने विकास की क्या ज़रूरत थी।
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अभी तो बुद्धिपार्टी शुरू हुई है और इसे पहले से ही धर्म, जाति, कुराजनीति से परेशान बेचारी मानवता के लिए खतरा बताया जा रहा है। अब तो अंग्रेज़ी की ‘मस्क’ भी डर युक्त बदबू बिखेर रही है लेकिन बदलाव का मौसम तो इसे पूरी तरह ओढ़ लेने की फिराक में है। तकनीक ने इंसान को सहयोग देते देते उसे अपना दास बना लिया है। इंसान को सही दिखना बंद हो गया है। कहा भी तो गया है कि दुर्घटना से पहले दिखना बंद हो जाता है। नकली अकल द्वारा लाई जा रही असली बेरोजगारी की बाढ़ में आम आदमी ही बहेगा, ख़ास बंदे तो पैसों की नाव में तैरते रहेंगे।
व्यावसायिक दुनिया के सामाजिक प्रशासकों को कुछ न मांगने वाला रोबोट चाहिए। इंसान तो खाना, मोबाईल, दवाई, जूते, पकवान, बोनस, यूनियन, वेतन और उसमें निरंतर बढ़ोतरी बारे हमेशा शोर मचाता रहता है। जब चतुर, चालाक, नकली बुद्धि का शासन दूर दूर तक कायम हो जाएगा तो नैसर्गिक, असली बुद्धि दुखी हो जाएगी। नकली के लिए असली भावना, सद्भावना, दुर्भावना प्रेम, प्यार, रोमांस सब कूड़ा कचरा हो जाएगा। कृत्रिम बुद्धि ढूंढ ढूंढ कर शिकार करेगी। मानवीय जाति को तबाह कर देगी। जब इंसान से भी शातिर, नकली बुद्धि का पूर्ण राज्य स्थापित हो जाएगा तो उसके पास करने के लिए कुछ नहीं बचेगा। फिर एक दिन उसके अपने हिस्सों में ही अंतर्द्वंद्व आरम्भ होकर, युद्ध शुरू हो सकता है। फिर अतिकृत्रिमता का समय आएगा और वर्चस्व के लिए लड़ाई होगी। एक दूसरे को खत्म करने पर उतारू हो जाएंगे।
कहीं असली वृक्ष के नीचे बैठा इंसान ज़रूर सोचेगा कि इंसान को इतने तकनीकी विकास की ज़रूरत नहीं थी। उसके दिमाग और शरीर को लगेगा कि विकास ज़्यादा हो गया। हो सकता है तब नालायक हो चुकी कृत्रिम बुद्धि, एक दिन ऐसी मशीन विकसित कर दे जो यह निर्णय लेना शुरू कर दे कि समाज में कौन सा शरीर उसके लायक है और कौन सा नहीं। जो काबिल न हो, जिसके पास धन, सुविधाएं और पहुंच नहीं, उसे खत्म कर दिया जाए। क्या नैसर्गिक बुद्धि इस सन्दर्भ में कुछ भी सोचने समझने लायक है।
- संतोष उत्सुक
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