धीमी न्यायिक प्रक्रिया के विकल्प पर सोचना होगा
सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर कार्रवाई को नियंत्रित करते वक्त एक तथ्य पर ध्यान नहीं दिया है। हमारे यहां आपराधिक मामलों की सुनवाई की जो प्रक्रिया है और उसमें जिस तरह की देर लगती है, उसे अपराध करने वालों ने अपने लिए आड़ बना रखा है।
उलेमा बनाम उत्तरी दिल्ली मामले पर सुनवाई के दौरान जिस तरह सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणियां की थीं, इस मामले पर आए फैसले का अंदेशा उनसे हो गया था। सबसे बड़ी अदालत ने बुलडोजर कार्रवाई पर पूरी रोक तो नहीं लगाई है, लेकिन इसके लिए मानक प्रक्रिया बनाकर राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों के हाथ जरूर बांध दिए हैं। जैसा कि हर फैसले के साथ होता है, हर पक्ष अपने-अपने हिसाब से इसकी व्याख्या कर रहा है। बुलडोजर कार्रवाई के विरोधी इसे अपनी जीत बता रहे हैं, वहीं इसके समर्थक इस फैसले में भी कार्रवाई के लिए राह खोज रहे हैं। इससे साफ है कि बुलडोजर न्याय सिर्फ स्पीड ब्रेकर का काम करेगा, ब्रेक नहीं बन पाएगा। स्पीड ब्रेकर तेज रफ्तार वाहनों की रफ्तार को धीमी करता है, जबकि ब्रेक गाड़ी को रोक देता है। यह फैसला भी कुछ इसी तरह का साबित होने जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर कार्रवाई को नियंत्रित करते वक्त एक तथ्य पर ध्यान नहीं दिया है। हमारे यहां आपराधिक मामलों की सुनवाई की जो प्रक्रिया है और उसमें जिस तरह की देर लगती है, उसे अपराध करने वालों ने अपने लिए आड़ बना रखा है। बरसों तक धीमी गति से चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया का एक संदेश यह है कि ताकतवर चाहे तो अपराध करने के बावजूद प्रक्रिया की घुमावदार गलियों में न्यायिक फैसले को टाल सकता है। यह टालना इतना लंबा हो जाता है कि एक तरह से वह न्याय से इनकार हो जाता है। देर है पर अंधेर नहीं की सोच भी उबाऊ और धीमी न्यायिक प्रक्रिया के सामने धुंधली होते-होते समाप्त हो जाती है। इसी घुमावदार और लंबी-धीमी न्यायिक प्रक्रिया का विकल्प बनकर बुलडोजर न्याय उभरा था। राज्य सरकारों ने इसे त्वरित न्याय के साधन के तौर पर अपनाया और देखत ही देखते अपराधमुक्त समाज की चाहत रखने वालों की चहेती बन बैठीं।
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सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर कार्रवाई की मानक प्रक्रिया बनाते हुए त्वरित न्याय के विकल्प या न्यायिक प्रक्रिया की घुमावदार गलियों को पूरी तरह नजरंदाज किया है। यही वजह है कि इस फैसले के बाद अपराधियों, गैंगस्टरों, असामाजिक तत्वों के उभार को लेकर समाज का एक बड़ा वर्ग सशंकित हो उठा है। देश की सबसे बड़ी अदालत होने के चलते सुप्रीम कोर्ट को इस सामाजिक सोच का भी संज्ञान लेना चाहिए और उसे भी आश्वस्त करना चाहिए कि उसके फैसले के बावजूद किसी गैंगस्टर, कोई अपराधी या समाज विरोधी तत्व को कमजोर तबके की जमीनों या सार्वजनिक संपत्तियों के अतिक्रमण का हक नहीं मिल जाता।
सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला उत्तरी दिल्ली के एक मामले में दिया है। अप्रैल 2022 में दिल्ली के जहांगीर पुरी में रामनवमी के दिन निकले जुलूस पर एक मस्जिद और उस इलाके से जुलूस पर हुए पथराव और उससे उपजी हिंसा के जवाब में दिल्ली नगर निगम ने अवैध अतिक्रमणों को हटाने के लिए बुलडोजर कार्रवाई की थी। इस कार्रवाई को सांप्रदायिक कार्रवाई का रंग देते हुए सेकुलर धारा के दिग्गज वकीलों मसलन कपिल सिब्बल आदि ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। भले ही सुनवाई इसी मामले की होती रही, लेकिन संदेश ऐसा गया मानो उत्तर प्रदेश की सरकार की बुलडोजर कार्रवाई के खिलाफ सुनवाई हो रही है। इसकी वजह यह रही कि उत्तर प्रदेश की सरकार ने त्वरित न्याय के विकल्प के रूप में इसे अपनाया। तब उत्तर प्रदेश सरकार को लेकर यह छवि बनाई गई कि वह सिर्फ अल्पसंख्यक यानी मुस्लिम तबकों के खिलाफ ही बुलडोजर कार्रवाई करती है। जबकि योगी सरकार ने बिरादरी से ब्राह्मण लेकिन कर्म से माफिया और गैंगस्टर विकास दुबे के खिलाफ भी इस कार्रवाई को किया। भदोही के बिरादरी से पंडित गैंगस्टर और राजनेता विजय मिश्रा की अतिक्रमित संपत्तियां भी उत्तर प्रदेश सरकार के निशाने पर रहीं। लेकिन प्रचारित सिर्फ अतीक, मुख्तार जैसे मुस्लिम दबंगों और माफियाओं की संपत्तियों के खिलाफ हुई कार्रवाई ही की जाती रहीं। इस बहाने त्वरित न्याय के इस सरकारी विकल्प को हिंदुत्ववादी राजनीतिक दर्शन का ना सिर्फ नतीजा बताया गया, बल्कि यह नैरेटिव स्थापित कर दिया गया। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर आम लोगों के बीच संदेश यही गया है कि यह उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ आया फैसला है।
बुलडोजर कार्रवाई को लेकर प्रचारित सिर्फ योगी सरकार रही, लेकिन अवैध अतिक्रमण के खिलाफ आंध्र, तेलंगाना, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश आदि सरकारों ने भी की है। एक आंकड़े के मुताबिक, पिछले सात सालों में करीब 2000 अवैध अतिक्रमण बुलडोजर कार्रवाई में ढहाए गए। जिनमें सबसे ज्यादा करीब डेढ़ हजार मामले उत्तर प्रदेश के ही रहे। लेकिन उत्तर प्रदेश में इस कार्रवाई से खाली कराई गई जमीनों को कमजोर तबकों में बांटा भी गया है। करीब सात सौ ऐसे प्लॉट बांटे जा चुके हैं। इसकी चर्चा कम हो रही है।
निश्चित तौर पर इससे किसी को इनकार नहीं होगा कि किसी अपराधी के अपराध की कीमत उसका पूरा परिवार अपना घर गवांकर क्यों चुकाए। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि अपराधी का घर भी अगर सरकारी तंत्र के निशाने पर बना तो उसकी वजह उसका नियमित निर्माण नहीं, बल्कि अवैध कब्जा और अतिक्रमण रहा।
अब तक बुलडोजर कार्रवाई नगर पालिकाओं, पंचायती राज संस्थाओं का विषय रहा है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इसे में स्थानीय जिला अधिकारी और उप जिलाधिकारी भी शामिल हो गए हैं। अवैध कब्जे और अतिक्रमण के खिलाफ बुलडोजर कार्रवाई जिला अधिकारी की निगरानी में होगी और इसके लिए मान्य प्रक्रिया और नोटिस आदि देने की अवधि का पूरी तरह निर्वहण किया जाएगा। इस प्रक्रिया की राह में एक बाधा नजर आ रही है। जिला प्रशासन समय और काम के बोझ का बहाना बनाकर ऐसी कार्रवाइयों को टाल सकता है। अपराधी, माफिया और गैंगस्टर कब्जे करते रहेंगे, और धीमी न्यायिक प्रक्रिया के चलते वे अपने अपराध को प्रकारांतर से स्थापित करते रहेंगे। इससे त्वरित न्याय प्रक्रिया की वैकल्पिक सोच भी कुंद होगी। ऐसे में न्याय की उम्मीद भी धुंधली होगी। ऐसे में आपराधिक तत्वों पर लगाम लगा पाना आसान नहीं रह जाएगा।
बुलडोजर कार्रवाई के माननीकरण वाले फैसले के बाद खास नैरेटिव को बढ़ावा मिलेगा। यह धारणा बलवती होगी कि सिर्फ हिंदुत्ववादी सरकारें ही बुलडोजर न्याय पर भरोसा करती हैं। सुप्रीम कोर्ट तो खुद मीडिया के बीच इस छवि के खंडन के लिए जा नहीं सकता। इसलिए दूसरे जिम्मेदार तंत्र को इस दिशा में प्रयास करना चाहिए। लगे हाथों सुप्रीम कोर्ट को न्याय में देरी और उसकी धीमी प्रक्रिया को भी नियंत्रित करने की कोशिश करनी चाहिए। ताकि बुलडोजर न्याय की जरूरत ही ना पड़े। अगर न्यायिक प्रक्रिया सामान्य तरीके से चलती रहे तो शायद ही कोई होगा, जो बुलडोजर कार्रवाई को ही न्याय का अंतिम विकल्प माने।
-उमेश चतुर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
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