Gyan Ganga: हनुमानजी से अपने बल का बखान सुन कर भी क्यों परेशान हो गया था रावण
श्रीहनुमान जी रावण के अनेकों रण कथाओं में से केवल उन्हीं भिड़ंतों की चर्चा करते हैं, जिनमें रावण को ऐसी मार पड़ी थी, कि समस्त जगत में उसका उपहास हुआ था। श्रीहनुमान जी कहते हैं, कि मैं सहस्त्रबाहु और बालि के साथ हुई तुम्हारी लड़ाई के बारे में जानता हूँ।
श्रीहनुमान जी रावण के समक्ष अभय व अखण्ड खड़े हैं और प्रभु श्रीराम जी के पावन गुणगान का पुण्य कमा रहे हैं। रावण ने सोचा, कि यह कैसा मूर्ख वानर है। मेरे ही सामने मेरे शत्रु के बल की महिमा गाए जा रहा है। इसे तनिक भी भान नहीं, कि मेरा बल भी कुछ मायने रखता है। श्रीहनुमान जी रावण के इस भाव को समझ गए। उन्होंने सोचा कि चलो रावण को भी उसके बल की महिमा सुना कर प्रसन्न कर ही देते हैं। लेकिन श्रीहनुमान जी जिस प्रकार से रावण के बल का बखान कर रहे हैं, उसे समझने के लिए, इतने से विवेक का होना तो अतिअंत आवश्यक है ही, कि क्या श्रीहनुमान जी, सच में रावण को महिमामंडित कर रहे हैं, अथवा उसके बल की पोल खोल रहे हैं। श्रीहनुमान जी कहते हैं-
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‘जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।
सहसबाहु सन परी लराई।।
समर बालि सन करि जसु पावा।
सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा।।’
श्रीहनुमान जी रावण के अनेकों रण कथाओं में से केवल उन्हीं भिड़ंतों की चर्चा करते हैं, जिनमें रावण को ऐसी मार पड़ी थी, कि समस्त जगत में उसका उपहास हुआ था। श्रीहनुमान जी कहते हैं, कि मैं सहस्त्रबाहु और बालि के साथ हुई तुम्हारी लड़ाई के बारे में जानता हूँ। जिसमें तुमने अथाह यश प्राप्त किया था। सज्जनों, श्रीहनुमान जी के इसी अंदाज को बोला जाता है, कि कड़वी तुमड़ी पर मीठे का लेपन करके खिलाना। रावण के उपहास को ही, श्रीहनुमान जी प्रशंसा कह कर सुना रहे हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि सहस्त्रबाहु के साथ रावण का कोई युद्ध वगैरह थोड़ी न हुआ था। क्योंकि युद्ध की संज्ञा तो उसे दी जाती है, जिसमें दो योद्धा आपस में भिड़ रहे हों। लेकिन रावण-सहस्त्रबाहु की लड़ाई में, रावण तो किसी योद्धा के चरित्र में मानो है ही नहीं। कारण कि सहस्त्रबाहु ने रावण के बल को बस इतना-सा आँका था, जैसे सिंह अपने समक्ष मेंढक के बल को आँकता है। तभी तो सहस्त्रबाहु ने रावण को अपने घर के आँगन में, एक विचित्र-सा जीव समझ कर, महीनों मूसल से बाँध कर रखा था। यह तो भला हो ऋर्षि पुलस्तय का, जिनके आग्रह पर सहस्त्रबाहु ने रावण को छोड़ दिया था। दादा होने के नाते, उस समय ऋर्षि पुलस्तय ने रावण को खूब समझाया था, कि यूँ ही स्वयं को महाबलशाली समझने का मिथ्या भ्रम नहीं पाल लेना चाहिए। इससे सदैव कष्ट ही प्राप्त होता है। छिपकली अगर यह सोच ले, कि उसकी बनावट भी तो मगरमच्छ जैसी ही है। तो निश्चित ही मेरा बल भी तो वैसा ही होगा, जैसा मगरमच्छ का है। और यह सोच कर वह सागर में किसी मगरमच्छ से भिड़ जाये, तो सिवा मुत्यृ के भला उसे क्या प्राप्त होना है। हे रावण, वही हाल तो तुम्हारा है। भला क्या सोच कर तुम कार्तवीर्य के महान पुत्र से भिड़ने चले गए थे। सुनो बच्चे, कभी तरबूज़ के प्रहार से पर्वत का सीना छलनी नहीं हुआ करता। हाँ, यह अवश्य है, कि तरबूज़ के चिथड़े अवश्य उड़ जाते हैं।
रावण ने श्रीहनुमान जी से विसतार से, जब अपने अपमान पर व्यंग्य से सजी सामर्थय की महिमा सुनी, तो खिसखिसा कर रह गया। उसने सोचा, कि चलो अब मैं बात का रुख ही बदल देता हूँ। लेकिन उसे क्या पता था, कि उसके सामने तो उसके स्वयं गुरु जी ही विराजमान हैं। भला उनसे क्या छुपा था। इससे पहले कि रावण कुछ कह पाता, श्रीहनुमान जी ने बालि की चर्चा छेड़ दी। श्रीहनुमान जी बोले, कि हे रावण! बालि और तुम्हारा युद्ध तो और भी रोचक था। मैंने सुना है, कि उसने तुम्हें पीटा तो भयंकर था ही। साथ में अपनी कांख में दबा कर छः मास तक तुम्हें समस्त विश्व में भ्रमण करवाया था। तुम्हारा ऐसा यश सुन कर तो कुछ कहते नहीं बनता है। रावण श्रीहनुमान जी की बातें सुन कर हँस कर रह जाता है। और रावण कर भी क्या सकता था। अगर वह क्रोध दिखाता, तो सबको पता लग जाता, कि रावण इस बात को स्वीकार करता है, कि सहस्त्रबाहु और बालि ने उसकी भयंकर पिटाई की थी। इसलिए रावण हँस कर यह प्रमाणित कर रहा है, कि सभासदों को यह लगे, कि यह वानर तो बस यूँ ही व्यर्थ की हाँक रहा है। और इसकी हाँकने पर तो केवल हँसा ही जा सकता है।
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श्रीहनुमान जी रावण पर भला क्यों दया करने वाले थे। बड़ी मुश्किल से तो रावण हाथ लगा था। वे रावण को एक भी मौका नहीं दे रहे थे, कि रावण उन्हें यह कहे, कि उनकी भी कोई गलती है। इसीलिए श्रीहनुमान जी बोले, कि हे रावण, रही बात यह कि मैंने तुम्हारे वन प्रदेश को क्यों उजाड़ा, और तुम्हारे राक्षसों को क्यों मारा। तो बात यूँ है, कि भई हमें तो लगी थी बहुत भारी भूख। सो हमने फल खा लिए। और मेरे वानर स्वभााव के कारण मैंने वन भी उजाड़ा। भला इसमें इतना उखड़ने वाली क्या बात थी। तुम्हें भी तो भूख लगती ही होगी, तो तुम कौन से अखण्ड व्रतधारी बन जाते हो। तुम भी तो खाते हो न। और तुम तो मानव अथवा जानवर किसी को भी नहीं छोड़ते। मैंने तो केवल वन ही उजाड़ा है। तुम तो उन जीवों की जिंदगी ही उजाड़ देते हो। फिर मुझे यह बताओ, कि तुम्हारे राक्षसों को इतना भी ज्ञान नहीं, कि कम से कम वे आकर मुझ से बात तो करते। वे तो सीधे मुझे मारने ही आ पहुँचे। अब तुम ही बताओ रावण। अपने प्राण भला किसको प्रिय नहीं होते। उन्होंने मुझे मारना चाहा, तो मैंने भी उन्हें मार डाला-
‘खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा।
कपि सुभाव तें तोरेउँ रुखा।।
सब कें देह परम प्रिय स्वामी।
मारहिं मोहि कुमारग गामी।।’
रावण ने श्रीहनुमान जी के तर्क सुने तो एक बार तो वह गहरी सोच में डूब गया, कि भई वानर केवल तन से ही बलशाली नहीं है, बल्कि बुद्धि से भी अतिअंत प्रखर है।
आगे श्रीहनुमान जी रावण को क्या लताड़ लगाते हैं? जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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