World Disability Day: दिव्यांगो को मिले बराबरी का अधिकार

World Disability Day
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विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमान के अनुसार विश्व स्तर पर 15 प्रतिशत आबादी किसी न किसी प्रकार की विकलांगता के साथ रहती है। जबकि उसमें से 80 प्रतिशत से अधिक लोग निम्न और मध्यम आय वाले देशों में रहते हैं।

संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1992 में हर वर्ष 3 दिसम्बर को अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस के रूप में मनाने घोषणा की गयी। इसका उद्देश्य समाज के सभी क्षेत्रों में दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों को बढ़ावा देना और राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में दिव्यांग लोगों के बारे में जागरूकता बढ़ाना था। मगर आज भी लोगों को तो इस बात का भी पता ही नहीं होता है कि हमारे आस-पास कितने दिव्यांग रहतें हैं। उन्हे समाज में बराबरी का अधिकार मिल रहा है कि नहीं। किसी को इस बात की कोई फिकर नहीं हैं।

समाज में दिव्यांगता को एक सामाजिक कलंक के रूप में देखा जाता है। जिसे सुधारने की आवश्यकता है। इस वर्ष का विषय "समावेशी और टिकाऊ भविष्य के लिए विकलांग व्यक्तियों के नेतृत्व को बढ़ावा देना" विकलांग व्यक्तियों को अपने भाग्य को आकार देने और समाज में योगदान देने में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए सशक्त बनाने के महत्व को रेखांकित करता है।

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सरकार द्वारा देश में दिव्यांगो के लिए कई नीतियां बनायी गयी है। उन्हें सरकारी नौकरियों, अस्पताल, रेल, बस सभी जगह आरक्षण प्राप्त है। दिव्यांगो के लिए सरकार ने पेशन की योजना भी चला रखी है। लेकिन ये सभी सरकारी योजनाएं उन दिव्यांगो के लिए महज एक मजाक बनकर रह गयी हैं। जब इनके पास इन सुविधाओं को हासिल करने के लिए दिव्यांगता का प्रमाणपत्र ही नहीं है। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि शारीरिक रूप से अशक्त लोगों के पास एक ‘दिव्य क्षमता’ है और उनके लिए ‘विकलांग’ शब्द की जगह दिव्यांग शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने विकलांगों को दिव्यांग कहने की अपील की थी। जिसके पीछे उनका तर्क था कि शरीर के किसी अंग से लाचार व्यक्तियों में ईश्वर प्रदत्त कुछ खास विशेषताएं होती हैं। विकलांग शब्द उन्हे हतोत्साहित करता है। प्रधानमंत्री मोदी के आह्वान पर देश के लोगों ने विकलांगो को दिव्यांग तो कहना शुरू कर दिया लेकिन लोगों का उनके प्रति नजरिया आज भी नहीं बदल पाया है। आज भी समाज के लोगों द्धारा दिव्यांगों को दयनीय दृष्टि से ही देखा जाता है। भले ही देश में अनेको दिव्यांगों ने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया हो मगर लोगों का उनके प्रति वहीं पुराना नजरिया बरकरार है। 

दुनिया में अनेकों ऐसे उदाहरण मिलेंगे जो बताते है कि सही राह मिल जाये तो अभाव एक विशेषता बनकर सबको चमत्कृत कर देती है। भारत में दिव्यांगो की मदद के लिए बहुत सी सरकारी योजनाएं संचालित हो रही हैं। लेकिन इतने वर्षो बाद भी देश में आज तक आधे दिव्यांगो को ही दिव्यांगता प्रमाण पत्र मुहैया कराया जा सका है। ऐसे में दिव्यांगो के लिए सरकारी सुविधाएं हासिल करना महज मजाक बनकर रह गया हैं। 

दुनिया में बहुत से ऐसे दिव्यांग हुए हैं जिन्होंने अपने साहस संकल्प और उत्साह से विश्व के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अपना नाम लिखवाया है। शक्तिशाली शासक तैमूर लंग हाथ और पैर से शक्तिहीन था। मेवाड़ के राणा सांगा तो बचपन में ही एक आंख गवाने तथा युद्ध में एक हाथ एक पैर तथा 80 घावों के बावजूद कई युद्धों में विजेता रहे थे। सिख राज्य की स्थापना करने वाले महाराजा रणजीत सिंह की एक आंख बचपन से ही खराब थी। सुप्रसिद्ध नृत्यांगना सुधा चंद्रन के दाई टांग नहीं थी। फिल्मी गीतकार कृष्ण चंद्र डे तथा संगीतकार रविंद्र जैन देख नहीं सकते थे। पूर्व क्रिकेटर अंजन भट्टाचार्य मूकबधिर थे। वर्ल्ड पैरा चैम्पियनशिप खेलों में झुंझुनू जिले के दिव्यांग खिलाड़ी संदीप कुमार व जयपुर के सुन्दर गुर्जर ने भाला फेंक प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीत कर भारत का मान बढ़ाया है। 

यह एक कड़वी सच्चाई है कि भारत में दिव्यांग आज भी अपनी जरूरतों के लिए दूसरों पर आश्रित है। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमान के अनुसार विश्व स्तर पर 15 प्रतिशत आबादी किसी न किसी प्रकार की विकलांगता के साथ रहती है। जबकि उसमें से 80 प्रतिशत से अधिक लोग निम्न और मध्यम आय वाले देशों में रहते हैं। जबकि भारत में 140 करोड़ से अधिक लोग है। इस आबादी का 2.2 प्रतिशत से अधिक लोग किसी न किसी रूप में गंभीर मानसिक या शारीरिक विकलांगता से पीड़ित हैं। आज के प्रगतिशील युग में जहाँ सभी लोगों के एकीकरण और समावेशन पर सतत विकास के प्रवेश द्वार के रूप में जोर दिया जाता है। भारत में विकलांग लोगों को वर्गीकृत करने वाले मानदंडों की सूची को 2016 में नया रूप दिया गया था। 2016 के आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम पर आधारित संशोधित परिभाषा में एसिड हमलों से संबंधित शारीरिक विकृति और चोटों को विकलांगता के रूप में मान्यता देना भी शामिल है। जो इन पीड़ितों को विभिन्न प्रकार की सरकारी सहायता और समर्थन का हकदार बनाता है। 

विकलांगों के अधिकारों के लिए काम कर रहे संगठन नेशनल प्लेटफॉर्म फॉर द राइटस ऑफ डिसएबिल्ड ने प्रधानमंत्री मोदी के दिव्यांग शब्द पर उनको पत्र लिखकर कहा कि था कि केवल शब्द बदलने मात्र से ही विकलांगों के साथ होने वाले व्यवहार के तौर तरीके में कोई बदलाव नहीं आएगा। सबसे बड़ी जरुरत है विकलांगों से जुड़े अपयश, भेदभाव और हाशिए पर डालने के मुद्दों पर ध्यान देने की है। ताकि वो देश की राजनीति के साथ साथ आर्थिक, सामाजिक विकास में बेहतर भागीदारी कर सकें।

भारत में आज भी दिव्यांगता प्रमाण पत्र हासिल करना किसी चुनौती से कम नहीं है। सरकारी कार्यालयों और अस्पतालों के कई दिनों तक चक्कर लगाने के बाद भी लोगों को मायूस होना पड़ता है। हालांकि सरकारी दावे कहते हैं कि इस प्रक्रिया को काफी सरल बनाया गया है, लेकिन हकीकत इससे काफी दूर नजर आती है। दिव्यांगता का प्रमाणपत्र जारी करने के सरकार ने जो मापदण्ड बनाये हैं। अधिकांश सरकारी अस्पतालों के चिकित्सक उनके अनुसार दिव्यांगो को दिव्यांग होने का प्रमाण पत्र जारी ही नहीं करते है। जिसके चलते दिव्यांग व्यक्ति सरकारी सुविधायें पाने से वचिंत रह जाते हैं। 

देश में दिव्यांगो को दी जाने वाली सुविधाएं कागजों तक सिमटी हुई हैं। अन्य देशों की तुलना में हमारे यहां दिव्यांगो को एक चौथाई सुविधाएं भी नहीं मिल पा रही है। केन्द्र सरकार ने देशभर के दिव्यांग युवाओं को केन्द्र सरकार में सीधी भर्ती वाली सेवाओं के मामले में दृष्टि बाधित, बधिर और चलने-फिरने में दिव्यांगता या सेरेब्रल पल्सी के शिकार लोगों को उम्र में 10 साल की छूट देकर एक सकारात्मक कदम उठाया है। दिव्यांगता शारीरिक अथवा मानसिक हो सकती है किन्तु सबसे बड़ी दिव्यांगता हमारे समाज की उस सोच में है जो दिव्यांग जनों से हीन भाव रखती है। जिसके कारण एक असक्षम व्यक्ति असहज महसूस करता है। 

आधुनिक होने का दावा करने वाला हमारा समाज अब तक दिव्यांगो के प्रति अपनी बुनियादी सोच में कोई खास परिवर्तन नहीं ला पाया है। अधिकतर लोगों के मन में दिव्यांगों के प्रति तिरस्कार या दया भाव ही रहता है। ऐसे भाव दिव्यांगो के स्वाभिमान पर चोट करते हैं। भारत में दिव्यांगो की इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद इनकी परेशानियों को समझने और उन्हें जरूरी सहयोग देने में सरकार और समाज दोनों नाकाम दिखाई देते हैं। 

अब दिव्यांग लोगों के प्रति अपनी सोच को बदलने का समय आ गया है। दिव्यांगो को समाज की मुख्यधारा में तभी शामिल किया जा सकता है जब समाज इन्हें अपना हिस्सा समझे। इसके लिए एक व्यापक जागरूकता अभियान की जरूरत है। हाल के वर्षों में दिव्यांगो के प्रति सरकार की कोशिशों में तेजी आयी है। दिव्यांगो को कुछ न्यूनतम सुविधाएं देने के लिए प्रयास हो रहे हैं। हालांकि योजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर सरकार पर सवाल उठते रहे हैं। पिछले दिनों क्रियान्वयन की सुस्त चाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार भी लगायी थी। दिव्यांगो को शिक्षा से जोडना बहुत जरूरी है। मूक-बधिरों के लिए विशेष स्कूलों का अभाव है। जिसकी वजह से अधिकांश विकलांग ठीक से पढ़-लिखकर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं बन पाते हैं। 

- रमेश सर्राफ धमोरा

(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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