सोचना भी मत... BRICS देशों ने कैसे उड़ा दिए अमेरिका के होश, बौखलाए ट्रंप ने भारत-रूस-चीन को धमका दिया
ट्रंप ने ऐसी धमकी दी है। दुनियाभर में देशों के बदलते समीकरण भी अमेरिकी चिंता का एक बड़ा कारण है। ट्रम्प ने ये धमकी क्यों दी और डॉलर पर आंच आते ही अमेरिका इतना घबरा क्यों जाता है तमाम मुद्दों का आज एमआरआई स्कैन करते हैं।
किसी की जेब में किसी की तिजोरी में छोटे-बड़े बैंक में, बटुए से लेकर एटीएम तक में हर जगह मौजूद खास तरह के कागज से बने नोट हर दौर में लोगों की सबसे बड़ी जरूरत रहा है। इसलिए तो दुनिया कहती भी है कि 'बाप बड़ा न भइया, सबसे बड़ा रुपैया'। हर चीज से बढ़कर है ये, जिसके सिक्कों की खनक हो या करारे नोटों की खुश्बू हर कोई इसका दीवाना है। एक पुरानी लोकोक्ति है कि हाथी के पांव में सबका पाव होता है। जिसका अर्थ है बड़ों के साथ छोटों की भी निभ जाती है। अमेरिकी डॉलर वैश्विक व्यापार का ऐसा ही हाथी है। ब्रिक्स देश अब इस हाथी को चुनौती देने की तैयारी में हैं। यही वजह है कि अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने खुलकर ब्रिक्स देशों को धमकी दे दी।उन्होंने साफ कह दिया कि अगर ब्रिक्स देशों ने अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व को चुनौती देने की कोशिश की तो उन्हें 100 प्रतिशत टैरिफ झेलना पड़ेगा। यही नहीं यहां तक कह दिया कि फिस वे देश अमेरिकी बाजार तक पहुंचने का ख्वाब छोड़ दें। इस धमकी को गहराई से देखें तो समझ में आता है कि अमेरिका को अपने डॉलर का दबदबा घटता नजर आ रहा है। तभी तो ट्रंप ने ऐसी धमकी दी है। दुनियाभर में देशों के बदलते समीकरण भी अमेरिकी चिंता का एक बड़ा कारण है। ट्रम्प ने ये धमकी क्यों दी और डॉलर पर आंच आते ही अमेरिका इतना घबरा क्यों जाता है तमाम मुद्दों का आज एमआरआई स्कैन करते हैं।
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ब्रिक्स क्या है
BRICS 2009 में स्थापित एक अंतरराष्ट्रीय ग्रुप है। इसके सदस्य देश है. ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका। 2024 में इसका विस्तार हुआ और ईरान, इजिप्ट, इथियोपिया और UAE भी इसमें शामिल हुए। ब्रिक्स देशों ने वैश्विक व्यापार के लिए अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता कम करने की दिशा में कदम उठाए हैं। इसका जाता उदाहरण भारत और चीन द्वारा रूस से तेल खरीदना है। इस सौदे के लिए डॉलर का उपयोग नहीं किया गया। रूस यूक्रेन युद्ध के बीच मॉस्को पर अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के बाद उसे लग रहा था कि बिना डॉलर रूस का तेल बिक नहीं पाएगा, मगर ऐसा हुआ नहीं। भारत और चीन ने रूस से ताबड़तोड़ तेल खरीदा।
ब्रिक्स देशों ने ऐसा क्या किया, जिस पर भड़के हैं ट्रम्प?
रूस और चीन ने अमेरिकी डॉलर का विकल्प लाने की कोशिश की है। ब्राजील ने भी एक साझा करंसी का प्रस्ताव रखा था, लेकिन इस पर कोई ठोस प्रगति नहीं हुई। ब्रिक्स समिट से पहले रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने कहा था कि रूस डॉलर को छोड़ना या उसे हराना नहीं चाहता है। उसे डॉलर के साथ काम करने से रोका जा रहा है। इसलिए डॉलर की जगह किसी दूसरे विकल्प को ढूढ़ना मजबूरी है। डॉलर की वैल्यू कम करने की ब्रिक्स देशों की इन्हीं कोशिशों से ट्रंप भड़के हुए हैं।
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ट्रंप ने धमकाते हुए क्या मांग की है?
ट्रंप ने ब्रिक्स देशों को धमकाते हुए एक्स पर लिखा कि हमें इन देशों से ये कमिटमेंट चाहिए कि वो न तो नई ब्रिक्स करेंसी बनाएंगे। न ही शक्तिशाली अमेरिकी डॉलर की जगह किसी दूसरी करेंसी का समर्थन करेंगे। ट्रंप ने कहा कि अगर ब्रिक्स देश ऐसा करते हैं तो उन्हें 100 प्रतिशत टैरिफ का सामना करना पड़ेगा। इसके साथ ही उन्हें शानदार अमेरिकी अर्थव्यवस्था में प्रोडक्ट बेचने को को गुडबॉय कहने के लिए तैयार रहना चाहिए। वे किसी और मूर्ख को खोज सकते हैं। इस बात की कोई संभावना नहीं है कि ब्रिक्स अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अमेरिकी डॉलर की जगह ले लेगा। जो भी देश ऐसा करने की कोशिश करेगा उसे अमेरिका को अलविदा कह देना चाहिए। ट्रंप ने आगे कहा कि अमेरिका से व्यापार करने के लिए डॉलर का इस्तेमाल करना जारी रखना होगा।
रुपये के अंतर्राष्ट्रीयकरण की दिशा में भारत के प्रयास
ट्रम्प की धमकी ऐसे समय में आई है जब रूस पर अमेरिकी प्रतिबंधों के परिणामस्वरूप रूसी तेल को यूरोप से एशिया में पुनर्निर्देशित किया गया था। यूक्रेन युद्ध के बीच रूस पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद, अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता कम करने और भारतीय रुपये का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने के प्रयास में, भारतीय रिजर्व बैंक ने 2022 में भारतीय रुपये में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए चालान और भुगतान की अनुमति दी। बीआईएस त्रिवार्षिक सेंट्रल बैंक सर्वेक्षण 2022 के अनुसार, विदेशी मुद्रा बाजार का कारोबार (दैनिक औसत), दर्शाता है कि अमेरिकी डॉलर प्रमुख वाहन मुद्रा है, जो वैश्विक विदेशी मुद्रा कारोबार का 88 प्रतिशत हिस्सा है। रुपये की हिस्सेदारी 1.6 फीसदी रही है। सर्वेक्षण में कहा गया है कि अगर रुपये का कारोबार वैश्विक विदेशी मुद्रा कारोबार में गैर-अमेरिकी, गैर-यूरो मुद्राओं की हिस्सेदारी 4 प्रतिशत के बराबर हो जाता है, तो इसे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा माना जाएगा। ट्रंप को लगता है कि टूड मे डॉलर का कद घट रहा है और वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडन इस खतरे को अनदेखा कर रहे है।
पूरे मामेल पर भारत का क्या रुख है?
ट्रंप की चेतावनी खासतौर पर रूस और चीन के लिए है। भारत ने स्पष्ट रूप से ब्रिक्स की साइझा करंसी के विचार को खारिज कर दिया है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अक्टूबर में कहा था कि भारत अपने व्यापारिक हितों को आगे बढ़ा रहा है, लेकिन अमेरिकी डॉलर के इस्तेमाल से बचना भारत की आर्थिक नीति का हिस्सा नहीं है। जयशंकर ने कहा कि अमेरिकी नीतियां अक्सर कुछ देशों के साथ व्यापार को जटिल बनाती हैं, और भारत कुछ अन्य देशों के विपरीत, डॉलर से दूर जाने का इरादा किए बिना समाधान की तलाश कर रहा है। हालाँकि, मंत्री ने कहा कि एक बहुध्रुवीय दुनिया अंततः मुद्राओं और आर्थिक लेनदेन में परिलक्षित होगी। जयशंकर ने साफ कहा था कि मैं जो कहूंगा वह यह है कि हमारी स्वाभाविक चिंता है। हमारे पास अक्सर ऐसे व्यापार भागीदार होते हैं जिनके पास लेनदेन के लिए डॉलर की कमी होती है। इसलिए, हमें यह तय करना होगा कि क्या उनके साथ लेन-देन छोड़ देना चाहिए या वैकल्पिक समाधान ढूंढना चाहिए जो कारगर हों। डॉलर के प्रति कोई दुर्भावनापूर्ण इरादा नहीं है। वहीं फेडरेशन ऑफ इंडियन एक्सपोर्ट ऑर्गेनाइजेशन (FIEO) के महानिदेशक और सीईओ अजय सहाय ने कहा कि ब्रिक्स देशों के बीच आर्थिक शक्ति में असमानता को देखते हुए, स्थानीय मुद्रा पहल का समर्थन करते समय, भारत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ढांचा चीन का असंगत रूप से पक्ष न ले।
डॉलर पर आंच आते ही इतना विचलित क्यों हो जाता है अमेरिका
विश्वयुद्ध के बाद से दुनियाभर में डॉलर का दबदबा है, क्योंकि इसे ही व्यापार के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। हर देश अपने रिजर्व में डॉलर को रखना चाहता है, क्योंकि किसी भी स्थिति में इसे इस्तेमाल किया जा सकता है। दुनियाभर के देश आपस में व्यापार करने के लिए अमेरिका के स्विफ्ट नेटवर्क का इस्तेमाल करते हैं। इसके जरिए अमेरिका बैठे-बिठाए अरबों कमाता है। सभी देशों को मिलाकर ये पैसा करीब 7.8 ट्रिलियन डॉलर है। यानी भारत की इकोनॉमी से भी दोगुना ज्यादा। ट्रंप का बयान यह बयान ब्रिक्स देशों और अमेरिका के बीच आर्थिक और कूटनीतिक संबंधों को प्रभावित कर सकता है। गौरतलब है कि चीन जैसे देश जानबूझकर अपनी करेंसी को कमजोर रखते हैं, ताकि उन्हें सस्ता निर्यात करने का मौका मिले और साथ ही लार्ज ट्रेड सरप्लस का लाभ भी मिलेगा।
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