Gyan Ganga: हनुमानजी ने रावण के समक्ष श्रीराम के शौर्य का बखान कैसे किया था?
श्रीहनुमान जी ने वे नाम गिना दिए, जिनको श्रीराम जी ने सहज ही मार डाला था। और यह भी कह दिया था, कि देवताओं की रक्षा के लिए नाना प्रकार के अवतार लेने वाले का तो तुम्हें पता ही होगा। तुम्हें यह भी पता होगा, कि उन्होंने शिवजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला।
विगत अंक में हमने जाना, कि मेघनाद ने श्रीहनुमान जी पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। जिसका सम्मान करते हुए, श्रीहनुमान जी ने स्वयं को इच्छा पूर्वक बाँधना स्वीकार कर लिया। अब पवनपुत्र श्रीहनुमान जी, रावण की सभा में कुछ यूँ खड़े हैं, जैसे सौ कुत्तों के झुण्ड में एक सिंह निर्भय खड़ा होता है। रावण श्रीहनुमान जी को देखता है, तो उसके मुख से स्वाभाविक ही दुर्वचन निकलने लगते हैं-
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‘कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद।।’
रावण श्रीहनुमान जी को अपमानित शब्द बोलता-बोलता, अचानक शोक में डूब जाता है। क्योंकि उसे अपने मृत पूत्र अक्षय कुमार के वध का स्मरण हो उठता है। मूर्ख रावण का दुर्भाग्य देखिए। तात्विक चिंतन से देखा जाये, तो उसके समक्ष मात्र श्रीहनुमान जी ही नहीं खड़े, अपितु उनके वेश में साक्षात भगवान शंकर जी ही उपस्थित हैं। कारण कि श्रीहनुमान जी, भगवान शंकर जी के ही वर्तमान काल में अवतार हैं। अब क्योंकि भगवान शंकर जी, रावण के गुरु हैं, तो इस परिपाटी के अनुसार श्रीहनुमान जी भी तो रावण के गुरु ही तो हुए। और रावण ने अपने संपूर्ण तप व हठ-जप से, बस इतना-सा ज्ञान अर्जित किया है, कि उसके अनुसार अपने बल व सामर्थ्य का इतना घमण्ड करो, कि अगर किसी क्षण आपके समक्ष आपके गुरु भी आन खड़े हों, तो आप उन्हें भी अपशब्द कह कर ही संबोधन करो। निश्चित रावण को श्रीसीता जी का अपमान तो शायद लेकर डूबे अथवा न डूबे, किन्तु अपने गुरु का अपमान उसे अवश्य ले डूबेगा। रावण की स्थिति किसी विक्षिप्त से व्यक्ति जैसी हो रखी है। कारण कि रावण श्रीहनुमान जी को अपशब्द कहता-कहता हँसता-हँसता, अचानक अपने मृत पुत्र के वध को याद कर रोने लगता है। अचानक हँसते-हँसते रोने लगना, यह तो एक विक्षिप्त व्यक्ति के ही चिह्न हैं। तब रावण अचानक बात ही बात में, एक ऐसी काम की बात भी कह जाता है, कि श्रीहनुमान जी को प्रभु की महिमा गाने का बहाना सुलभ हो जाता है। रावण कहता है-
‘कह लंकेस कवन तैं कीसा।
केहि कें बल घोलेहि बन खीसा।।
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही।।’
रावण श्रीहनुमान जी को अभी भी इतने हलके में ले रहा है, कि उसे स्वीकार ही नहीं हो रहा, कि एक वानर भला मेरी सुंदर अशोक वाटिका को उजाड़ भी कैसे सकता है। अवश्य ही इस वानर के बल के पीछे किसी और का हाथ है। रावण पूछता भी है, कि हे वानर! तूं यह तो बता, कि तूने किसके बल से इस वन को उजाड़ा है? तो श्रीहनुमान जी बड़े पते की बात कहते हैं। वे कहते हैं, कि हे रावण, मात्र मैं ही क्यों? मैंने तो संपूर्ण सृष्टि में देखा है, कि किसी के पास भी अपना स्वयं का बल तो है ही नहीं। मैं तो श्रीब्रह्मा जी, श्रीविष्णु जी एवं श्रीमहेश जी के अथाह बल को भी उनका स्वयं का बल नहीं मानता। भले ही वे तीनों देव सृष्टि की रचना, पालन व विध्वँस की शक्ति धारण किये हों। लेकिन तब भी वह समस्त शक्तियां, उनकी अपनी नहीं, अपितु किसी अन्य शक्ति की ही देन है। त्रिदेव ही क्यों, समस्त ब्रह्माण्ड को सिर पर धारण करने वाले, सहस्त्रमुख धारी, श्रीशेष जी भी अगर यह पराक्रम का पा रहे हैं, तो यह भी उनका अपना बल नहीं है, अपितु किसी अन्य शक्ति का ही बल है-
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‘जाकें बल बिरंचि हरि ईसा।
पालत सृजत हरत दससीसा।।
जा बल सीस धरत सहसानन।
अंडकोस समेत गिरि कानन।।’
रावण के समक्ष श्रीहनुमान जी ने जिन नामों का वर्णन किया और साथ में कहा, कि उनका बल भी किसी और की देन है। तो रावण सोच में पड़ गया, कि कमाल है। वानर सीधा-सीधा उत्तर देने की बजाय, पूरी कथा ही छेड़ बैठा है। लेकिन उसे क्या पता था, कि जब स्वयं रावण का नाम सभा में लिया जाता है, तो अधिक से अधिक अलंकारों के प्रयोग के साथ लिया जाता है। जैसे महाबली, महातपस्वी, दसानन लंकापति रावण की जय हो। ऐसे संबोधन जब एक पापी राक्षस के लिए प्रयोग हो रहे थे। तो भला यह कैसे हो सकता था, कि श्रीहनुमान जी प्रभु श्रीराम जी के बल का परिचय ऐसे ही सीधे-सीधे दे देते। श्रीहनुमान जी ने केवल त्रिदेवों का नाम ही थोड़े न लिया। वे तो ओर आगे बढ़ कर गुणगान में लगे हैं-
‘धरइ जो बिबिध देह सुरत्रता।
तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता।।
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा।
तेहि समेत नृप दल मद गंजा।।
खर दुषन त्रिसिरा अरु बाली।
बधे सकल अतुलित बलसाली।।’
श्रीहनुमान जी ने वे नाम गिना दिए, जिनको श्रीराम जी ने सहज ही मार डाला था। और यह भी कह दिया था, कि देवताओं की रक्षा के लिए नाना प्रकार के अवतार लेने वाले का तो तुम्हें पता ही होगा। तुम्हें यह भी पता होगा, कि उन्होंने शिवजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला, और भरी सभा में समस्त राजाओं के समूह का गर्व चूर-चूर कर डाला। फिर खर दूषण का तो तुम्हें विशेष कष्ट होगा ही। क्योंकि उन्हें, उसी परम शक्ति ने ही तो मारा था। केवल खर दूषण ही क्यों, त्रिशिरा और महाबली बाली के नाम से तो तुम्हें विशेष ध्यान होगा ही। उन्होंने उनको भी तो अपने नन्हें से प्रयास से ही मार डाला था। और सबसे विशेष तो यह है, कि जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत् को जीत लिया। और जिनकी प्रिय पत्नी श्रीसीता जी को तूने चोरी से हर लिया। मैं उन्हीं का ही दूत हूँ। श्रीहनुमान जी ने प्रभु श्रीराम जी का संपूर्ण परिचय देने का मानों ऐसा प्रयास किया, कि रावण सुनता ही रह गया। हालांकि श्रीहनुमान जी ने, प्रभु श्रीराम जी का इतना-सा ही परिचय दे पाये थे, मानो वे गागर में सागर को समेटने का प्रयास कर रहे हों।
रावण प्रभु श्रीराम जी के संबंध में ऐसा संबोधन सुन कर क्या प्रतिक्रिया करता है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती
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