Gyan Ganga: विभीषण का परामर्श सुन लक्ष्मणजी को क्यों क्रोध आया?
श्रीलक्ष्मण जी को लगा, कि प्रभु भी किस की सलाह में समय व्यर्थ कर रह हैं। भला यह भी कोई बात हुई, कि आप सर्व समर्थ हों, और तब भी आप किसी की मिन्नतें करते फिरें? माता सीता जी से मिलने में जितना अधिक विलम्भ होगा, मईआ उतनी ही कष्ट में से गुजरेंगी।
भगवान श्रीराम जी ने श्रीविभीषण जी का परामर्श सुन कर कहा, कि हे विभीषण! आपने निःसंदेह बहुत सुंदर नीति कही है। हमें निश्चित ही ऐसा ही करना चाहिए। श्रीलक्षमण ने जैसे ही यह सुना, तो उन्हें तो यह रत्ती भर भी न भाया। केवल मन को भाना तो अलग बात थी। उन्हें तो उल्टा क्रोध हो उठा। क्योंकि उन्होंने जब श्रीराम जी के श्रीमुख से यह सुना, कि देव अगर सहाई हों, तो सफलता प्राप्त हो सकती है। तो श्रीलक्ष्मण जी उग्र हो उठे-
‘सखा कही तुम्ह नीति उपाई।
करिअ दैव जौं होइ सहाई।।
मंत्र न यह लछिमन मन भावा।
राम बचन सुसिन अति दुख पावा।।’
श्रीलक्ष्मण जी को लगा, कि प्रभु भी किस की सलाह में समय व्यर्थ कर रह हैं। भला यह भी कोई बात हुई, कि आप सर्व समर्थ हों, और तब भी आप किसी की मिन्नतें करते फिरें? माता सीता जी से मिलने में जितना अधिक विलम्भ होगा, मईआ उतनी ही कष्ट में से गुजरेंगी। और देव-देव पुकारना तो वैसे भी आलसी लोगों का कार्य है। हम भला किसी देव के सहारे अपना भविष्य क्यों तय करें?
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श्रीराम जी ने देखा, कि अरे! हमारे अनुज को तो क्रोध आ गया। उन्होंने श्रीविभीषण जी के देव प्रार्थना के विचार का भी खंडन कर दिया। ऐसे में तो श्रीविभीषण जी, हतोत्साहित भी हो सकते हैं। उन्हें लग सकता है, कि उनके परामर्श को यहाँ भी तो वैसे ही नकारा जा रहा है, जैसे रावण की सभा में नकारा जा रहा था। ऐसा कुछ विचार कर, श्रीराम जी ने श्रीलक्ष्मण जी को कहा, कि हे अनुज, चिंता क्यों करते हो। अंततः वैसा ही होगा, जैसा तुम कह रहे हो। श्रीराम जी अपने प्रिय अनुज को समझाते हुए सागर के समीप ले गए। श्रीलक्ष्मण जी को, श्रीराम जी का इतना स्नेह प्रयाप्त था, कि वे धैर्य आसन पर बिराजमान हो पायें।
भगवान श्रीराम जी का ऐसा व्यवहार, समस्त मानव जाति के लिए उपदेश है, कि आप को सर्व समर्थ होने के पश्चात भी, किस परिस्थिति में कैसा और क्या व्यवहार करना चाहिए। संसार में हम अक्सरा देखते हैं, कि जीव के पास तनिक सा भी बल व सामर्थ आ जाये, तो उसका व्यवहार ही बदल जाता है। उसे लगने लगता है, मानों वह ही इस धरा पर भगवान है। उसे ऐसा भाव पता नहीं क्यों घुण की तरह लग जाता है, कि अब अन्य मानवों को उसके आदेशों को हर परिस्थिति में अंगीकार करना ही करना होगा। मानों उसके एक इशारे पर सूर्य उदय होना चाहिए, और एक इशारे पर ही अस्त भी होना चाहिए। श्रीराम जी जैसी प्रभुता अगर हममें हो, तो चिंतन कीजिए, क्या हम सागर से प्रार्थना करने पर विचार करेंगे? नहीं न! अपितु हम तो सबसे पहले एक ही बाण में, सागर को सुखा डालने की सोचेंगे। बल का यही दुरुपयोग मानव को अधोगति की और ले जाता है। श्रीराम जी की नम्रता तो देखिए। प्रभु श्रीराम जी, श्रीलक्ष्मण जी को समझाने के तुरन्त बाद, कुशा का आसन ले, सागर किनारे प्रार्थनारत हो बैठ गए।
कहने का तात्पर्य, कि आप में कितना भी बल व सामर्थ क्यों न हो, सर्वप्रथम आप को नम्रता व आग्रह पूर्वक व्यव्हार का ही आर्श्य लेना चाहिए। बल ऐसा हो, कि संसार उस बल का दर्शन करे। न कि ऐसा हो, कि आप अपने बल का, किसी निर्बल पर प्रदर्शन करें। श्रीराम जी अपने इसी सिद्धांत का पालन कर रहे हैं। श्रीराम जी को पता है, कि समुद्र के साथ, निश्चित ही श्रीलक्ष्मण जी का ही व्यव्हार करना होगा। कारण कि अब तक तो, समुद्र को स्वयं ही हाथ जोड़ कर उपस्थित हो जाना चाहिए था, और रास्ता देने का आग्रह करना चाहिए था। लेकिन समुद्र तो मानों गूंगा और बहरा, दोनों ही हो रखा है। नहीं तो ऐसा कैसे हो सकता है, कि कोई आपके द्वार पर इतनी चर्चायें कर रहा हो, और आपको तनिक भी मालूम न हो? श्रीराम जी समुद्र के बिल्कुल किनारे हो सब बातें कर रहे हैं, लेकिन समुद्र तो मानों कुम्भकर्ण की नींद सोया हुआ था। इसीलिए श्रीराम जी ने, श्रीलक्ष्मण जी को पहले ही कह दिया था, कि हे अनुज धीरज धरो, जैसे तुम कह रहे हो, हम वैसे ही करेंगें।
उधर रावण ने भी एक चाल चली थी। जिस समय श्रीविभीषण जी ने लंका का त्याग किया था। उसी समय रावण ने, अपने दूतों को श्रीविभीषण जी के पीछे लगा दिया था। जिनका एक ही कार्य था, कि वे श्रीराम जी के दल में एक-एक घटना की सूचना रावण को दें। ऐसे ही एक-दो रावण दूत श्रीराम जी के आस-पास भिनभिना रहे थे। लेकिन श्रीराम जी की परम लीलायें देख, वे श्रीराम जी से प्रभावित होते हैं, अथवा रावण को सूचनायें देना जारी रखते हैं। यह जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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