Gyan Ganga: बालि ने प्रभु श्रीराम से अंगद की बाँह पकड़ने को क्यों कहा था ?
बालि कहता है कि हे प्रभु! आप से विनती है, कि आप मेरे पुत्र की बाँह पकड़ लीजिए, और इसे अपना दास स्वीकार कीजिए। बालि यह भी तो कह सकता था, कि मैं अंगद को बोलता हूँ कि वह आपकी बाँह पकड़ ले और आपको स्वामी स्वीकार करे।
श्रीराम बालि को मृत डगर पर निकलने से निरंतर रोकते रहे, लेकिन बालि था कि कहाँ रूकने वाला था। और रूका तो वह करता है, जो चला हो। बालि चला थोड़ी था, अपितु उसने तो छलाँग लगाई थी। छलाँग भला बीच में कहाँ रूकती है। वास्तव में बालि ने छलाँग तो उसी समय लगा दी थी, जब श्रीराम जी का बाण उसकी छाती में जा धँसा था। ज़रा-सा कूदना फाँदना होता तो अलग बात थी, यहाँ तो सीधे-सीधे धरा से परम धाम् की छलाँग थी। सो बालि रूक ही नहीं पाया, और सीधा प्रभु के निज धाम जाकर ही रूका। कयेंकि श्रीराम तो बालि को जब देना ही परम् धाम चाहते थे, तो बालि भला इससे इतर और रूकता भी कहाँ- ‘राम बालि निज धाम पठावा’
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बालि के मरते ही समस्त ओर शोक की लहर दौड़ उठी। प्रत्येक दिशा से चीतकार व क्रन्दन ने हृदयों को मानों बीचों बीच चीर कर रख दिया। कौन-सा मुख था जो पीड़ा के चिन्हों से सूना हो। लेकिन मात्र एक ही मुख था, जो किसी भी प्रकार से रोग शोक से हीन था, और वह मुख था मृत पड़े बालि का। चेहरा इस अवस्था में भी दैदीप्यमान व तेज से लबालब था। बालि के जीवन पर्यन्त किये पाप कर्मों की कालिख, प्रभु के दिव्य दर्शनों के क्षणिक क्षणों के महाप्रताप में कहीं खोकर रह गई। मातम् की छिड़ी इस रागनी में हर कोई बहे जा रहा था। लेकिन बालि के ठंडे पड़ चुके हृदय की धड़कनों में एक अजीब-सी दिव्य ठंडक थी। होती भी क्यों न! क्योंकि बालि मरते मरते एक बहुत बड़ा खेल जो खेल गया था। वह यह कि पुत्र अंगद को लेकर उसने ऐेसी भक्तिमय व्यूह रचना की बाड़ लगाई, कि चाहकर भी अंगद श्रीराम जी के पावन चरणों से विलग नहीं हो सकता था। बालि ने देखा कि हमने तो नाहक ही जीवन पर्यन्त श्रीराम जी का बिछोह झेला। परन्तु मेरे पुत्र के भाग्य में इस कष्ट व पीड़ा का हर स्थिति में हरण होना चाहिए। लेकिन यक्ष प्रश्न तो यही था कि यह संभव कैसे हो? तो बालि ने जो दाँव खेला, उसकी कल्पना बड़े-बड़े ऋषि भी नहीं कर सकते थे, और बालि की यह भक्तिमय चतुराई निःसंदेह प्रशंसा की पात्र है। जी हां! चतुराई यह कि बालि जब श्रीराम जी से अपने पुत्र वीर अंगद का नाता ज़ोडने लगा तो जो शब्द उसने कहे, सारा रहस्य व खेल ही उसमें छुपा हुआ है। बालि कहता है- ‘गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिये।'
बालि कहता है कि हे प्रभु! आप से विनती है, कि आप मेरे पुत्र की बाँह पकड़ लीजिए, और इसे अपना दास स्वीकार कीजिए। बालि यह भी तो कह सकता था, कि मैं अंगद को बोलता हूँ कि वह आपकी बाँह पकड़ ले और आपको स्वामी स्वीकार करे। क्या अंतर पड़ता है, बाँह ही तो पकड़नी है, भले श्रीराम जी अंगद की पकड़ें या फिर अंगद श्रीराम जी की पकड़े। सज्जनों आप अंतर की बात करते हैं? इस बाँह पकड़ने के फेर में ज़रा-सा अंतर हो जाये तो चल जाए, परन्तु यहाँ तो अंतर नहीं अपितु महाअंतर हो जाता है। आप कहेंगे कैसे? तो वह ऐसे कि वीर अंगद, अगर श्रीराम जी की बाँह पकड़े तो तात्त्विक दृष्टिकोण कहता है कि वीर अंगद बल व सामर्थ्य में भले कितना भी उत्तीर्ण व श्रेष्ठ क्यों न हो, किंतु माया के दुष्प्रभाव व चक्रकाल से निश्चित ही परे नहीं है। आज निश्चित ही वीर अंगद, की श्रद्धा व भावना का भले कोई पार न हो। किंतु बदलते कर्म-संस्कारों के प्रभावों का, कोई पता नहीं कि कब मतिभ्रम उत्पन्न हो जाये और भगवान की पावन मूर्ति में भी शैतान प्रतीत होने लगे। इस स्थिति में अगर वीर अंगद श्रीराम जी की बाँह पकड़ता है, तो पूरी संभावना है कि माया के वशीभूत हो वह ईश्वर को भी छोड़ सकता था। आज की मज़बूत पकड़ कल ढीली भी पड़ सकती थी। बालि ऐसा कच्चा व अधूरा कार्य भूल कर भी नहीं करना चाहता था। क्योंकि प्रभु से बिछुड़ने के दुष्प्रभावों को, उससे बेहतर भला कौन जान सकता था। पकड़ ऐेसी होनी चाहिए कि एक बार पकड़ो तो यमराज भी उसे न छुडा पाये। कोई विषय भी उसे प्रभावित न कर सके। और ऐसी पकड़ भला किसकी हो सकती है। कौन ऐसा बलशाली है जो यमराज अथवा माया को भी मात दे पाये। वे तो फिर मात्र और मात्र ईश्वर ही हैं। जिन्हें माया व्यापती नहीं, अपितु माया उनकी दासी है। ईश्वर जिनकी बाँह पकड़ लें, फिर भला किसमें दम कि उनसे अपनी अथवा किसी की बाँह छुड़वा सके। बालि का बस यही परम् चातुर्य है कि वह इस सिद्धांत को भांप गया। उसने कहा ही नहीं कि प्रभु अंगद आपकी बाँह पकड़ेगा। बालि ने ऐसी कोई कमज़ोर कड़ी छोड़ी ही नहीं कि बाद में पछताना पड़े। बालि तो सीधा मर्म पर ऊँगली रखता है कि हे प्रभु! अंगद आपकी बाँह पकड़े, इस विषय पर क्या चिंतन करना, कृपया आप तो अविलम्ब अंगद की बाँह पकड़ लीजिए। क्योंकि किसी भी अमुक कारण के चलते, अगर कल अंगद आपसे अपनी बाँह छुड़ाना भी चाहे तो छुड़ा न पाये।
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यही भक्ति का वास्तविक सूत्र है। अपने डूबने का आधार ही ना दो। स्वयं पर अति विश्वास करना ही नहीं है, कि अरे कोई नहीं, हमारे हाथों की पकड़ में भी कौन-सा कम दम है। माया कौन-सी चिड़िया का नाम है। ऐसी डींग हाँकने में कुछ नहीं रखा। सज्जनों! कयोंकि माया के एक थप्पड़ से बड़े-बड़े तपस्वियों की मनः स्थिति डगमग हो जाती है। सदैव हृदय से यही प्रार्थना प्रस्फुटित होनी चाहिए, कि हे प्रभु! हम तो निर्बल हैं। हमारे बल की भला क्या औकात! हमें तो बस आप ही पकड़िए और आप ही पार लगाईए। यही भक्ति का सूत्र है, इसलिए अन्य भक्तों ने भी इसी सूत्र का अनुपालन किया। केवट भी श्रीराम जी को गंगा पार लगाते समय जब नौका को ड़गमग-ड़गमग करवाता है तो श्रीराम जी कहते हैं कि हे केवट! हमें असुविधा हो रही है। नौका ठीक से चलाओ, अन्यथा हम गिर जायेंगे। यहाँ केवट भी यही कहता है, कि प्रभु आप मेरा हाथ पकड़ लीजिए। इससे आप सुलभता महसूस करेंगे। जबकि वास्तविक कारण यही था, कि अगर प्रभु हमारा हाथ पकड़ेंगे तो हम ही सुरक्षित रहेंगे, प्रभु नहीं। भक्त प्रह्लाद भी इसी सूत्र की अनुसरण करते हैं। पिता हिरण्यकश्यिपु ने जब भक्त प्रह्लाद को अथाह कष्ट दिये, तो किसी ने भक्त प्रह्लाद से कहा कि तुम भगवान विष्णु की भक्ति छोड़ क्यों नहीं देते? क्यों उन्हें यूँ कसकर पकड़ के रखा है। तो भक्त प्रह्लाद कहते हैं कि मेरा वश चले तो मैं भगवान विष्णु को अभी छोड़ दूँ। परन्तु भगवान विष्णु मुझे छोड़ें तब न, क्योंकि भगवान को मैंने नहीं, अपितु भगवान ने ही मुझे पकड़ रखा है। निःसंदेह ईश्वर के अगर हम अनुगामी हैं तो हमें भी यही सूत्र का अनुसरण करना होगा। कयोंकि यही भक्ति पथ का सार है।
बालि के जीवन से मानव जनों के लिए और भी कुछ शिक्षाएं अभी शेष हैं। जानेंगे अगले अंकों में---
क्रमशः---
जय श्रीराम
-सुखी भारती
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