Gyan Ganga: सुग्रीव ने ऐसा क्या किया था कि भगवान श्रीराम को क्रोध आ गया था ?
सज्जनों है न कितने आश्चर्य की बात! सदैव शाँत रहने वाले श्रीराम जी क्या सच में इतने क्रोधित हुए थे। आप कहेंगे कि राम चरितमानस में अगर लिखा है तो श्रीराम जी क्रोधित हुए, तो अवश्य ही हुए होंगे। सज्जनों यही तो प्रभु की लीला है।
यह वह समय था जब सुग्रीव तो महलों के भीतर समस्त भोग विलासों का आनंद ले रहा था और श्रीराम जी वनों में प्रकृति से लड़ रहे थे, या यूँ कहें कि लड़ नहीं रहे थे, अपितु प्रकृति संग लाड़ लड़ा रहे थे। वर्षा ऋतु बीतने में भी कौन-से युग बीतने थे। मानो पलक झपकते ही, वह बीत भी गई। अब शरद ऋतु की कद्मचाल प्रत्यक्ष सुनी जा सकती थी। पक्षी अपने घोंसलों से आसमाँ की उड़ान भरने में अब समय लगा रहे थे। लेकिन शायद यह हमारा भ्रम ही था क्योंकि पशु पक्षी वास्तव में कोई अलसा नहीं रहे थे, अपितु वे श्रीराम जी के दर्शनों में मगन ही इतने हो जाते थे, कि उन्हें भान ही न रहता कि हमें दाना भी चुगने जाना है। निश्चित उन्हें यह ज्ञान हो चुका था कि तन की भूख मिटाते-मिटाते तो जन्मों बीत गए, लेकिन यह भूख किसकी मिटी जो आज हमारी मिट जायेगी। लेकिन श्रीराम जी के दिव्य दर्शनों से जो तृप्ति आत्मिक स्तर पर मिल रही है, भला उसका मुकाबला कहाँ हो सकता था।
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हालाँकि इन पक्षियों को सुर ताल का तो कोई ज्ञान ही नहीं था, लेकिन तब भी इनके द्वारा रचित व कंठों में आकंठ डूबे राग व रागनियां, माँ सरस्वती को भी सोचने पर विवश कर देती थीं। चिड़ियों का चहचहाना याँ कबूतरों की गुटरगुँ किसी के भी मन को सकून दे रही थी। सब श्रीराम जी को कहानियाँ सुना रहे थे और साथ में श्रीराम जी की गाथा सुन रहे थे। सब श्रीराम जी के अनुकूल थे, उनकी आज्ञा में थे। लेकिन एक सुग्रीव ही था, जो प्रभु से कन्नी काट रहा था। ईद का चाँद भी कुछ समय पाकर दर्शन तो दे देता है, लेकिन सुग्रीव था कि प्रभु के ठिकाने का रास्ता ही भूल गया था। भूल गया था कि जिस राज सिंघासन पर वह मद्मस्त है, वह श्रीराम जी की कृपा से ही मिला था। और सुग्रीव की इस स्थिति यह था कारण यह था कि सुग्रीव विषयों के अधीन जो हो गया था। श्रीराम जी से अधिक उसे काम का आकर्षण अधिक श्रेष्कर लगा, और काम मानो बलपूर्वक अपनी तरफ खींच ले गया। शेर के पंजों से कोई उसका शिकार खींच कर ले जाये, तो भला इसमें शेर की प्रभुता की क्या शोभा? लेकिन काम तो ऐसी ही शोभा पा रहा था। और प्रभु को मानो चिढ़ा रहा था कि देखो प्रभु, जिस सुग्रीव के कल्याण हेतु आपने लकड़हारा बनना व हड्डियां तक उठाना स्वीकार किया, वही सुग्रीव आपसे मिलने तक नहीं आ रहा। राज पद् क्या मिला वह आपके श्रीपदों के प्रभाव को ही भूल गया। जिन श्रीपदों से साक्षात गंगा का प्रवाह हुआ, वहीं से सुग्रीव गंगामृत पान करने की बजाये, विषयों का सेवन कर बैठा। यही तो जीव की विचित्र प्रकार की वृति है कि कभी तो वह उच्च कोटि का भक्त होता है और कभी सिर से नख तक विषयों में अनुरक्त प्रतीत होता है। बिल्कुल उस मक्खी की तरह, जो बैठे तो सदा शहद पर ही बैठी रहे, अैर बैठे तो कभी तपाक से विष्ठा पर भी बैठ जाती है।
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सुग्रीव ने ठीक ऐसा ही किया। भगवान श्रीराम जी के भगवान होने की परीक्षा तो उसने क्या खूब ली, लेकिन जब स्वयं के भक्त होने की परीक्षा देने की बारी आई, तो सौ अंकों में से शून्य अंक प्राप्त किया। मूर्ख भक्त होने का नाटक तक भी न कर पाया। भला यह क्या बात हुई कि आप विषयों में इस स्तर तक धँस जायें कि भगवान को छोड़ शैतान के ही भक्त बन जायें। पैंडूलम की तरह मन अवश्य इधर-उधर डोला करता है। लेकिन पैंडूलम अगर कहीं एक दिशा में ही अटक जाये तो फिर समय के साथ तो वह चल ही नहीं पाया न। और जो पैंडूलम समय के साथ स्वयं को गतिमान नहीं रख पाया, उसे निश्चित ही दीवार की घड़ी का हिस्सा बनने कर कोई अधिकार नहीं होता। परिणाम वह कि पैंडूलम किसी कूड़ा दान में पड़ा मिलता है। शायद सुग्रीव का निकट भावी भविष्य कुछ ऐसा ही था या फिर उससे भी भयानक। प्रभु सुग्रीव के इस व्यवहार से रुष्ट हो गए। श्रीराम जी लक्ष्मण जी से कहते भी हैं कि सुग्रीव को राज्य व पत्नी क्या मिली, वह तो हमें भूल ही गया-
‘सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी।
पावा राज कोस पुर नारी।।’
तभी प्रभु अचानक से ऐसी वाणी की गर्जना करते हैं, जिसे सुनकर एक बार तो आश्चर्य-सा होता है कि श्रीराम जी को ऐसा कहते तो हमने कभी देखा ही नहीं। भगवान श्रीराम जी क्रोध से भर उठे और अपना धनुष उठा कर ऐसा प्रण कर लेते हैं जो सुग्रीव की नींद उड़ाने के लिए काफी था-
‘जेंहि सायक मारा मैं बाली।
तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली।।’
अर्थात् तिस बाण से मैंने बालि का वध किया था, उसी बाण से कल मैं सुग्रीव का भी वध कर दूँगा। यह प्रण का तात्पर्य था कि सुग्रीव तो अब निश्चित ही प्राणों से हाथ धो डालेगा। कारण कि श्रीराम जी को सचमुच में क्रोध जो आ गया था। सज्जनों है न कितने आश्चर्य की बात! सदैव शाँत रहने वाले श्रीराम जी क्या सच में इतने क्रोधित हुए थे। आप कहेंगे कि राम चरितमानस में अगर लिखा है तो श्रीराम जी क्रोधित हुए, तो अवश्य ही हुए होंगे। सज्जनों यही तो प्रभु की लीला है। भगवान शंकर भी जब श्रीराम जी की यह पावन गाथा माता पार्वती जी को सुना रहे हैं, तो यही तर्क दे रहे हैं-
‘जासु कृपाँ छूटहिं मद मोहा।
ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा’
अर्थात् हे उमा! जिनकी कृपा से मद और मोह छूट जाते हैं, भला उनको स्वप्न में भी कभी क्रोध आ सकता है? भगवान शंकर के कहने का तात्पर्य है कि भगवान श्रीराम जी को कोई क्रोध वगैरह नहीं आया। यह तो उनकी लीला मात्र है। और यह लीला वही समझ सकता है, जिसे भगवान श्री राम जी के श्री चरणों में प्रीति हो चुकी है-
‘जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी।
जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी’
जी हाँ सज्जनों! वास्तव में ही भगवान श्रीराम जी के हृदयाँगण में क्रोध प्रवेश नहीं कर पाता। लेकिन हाँ! प्रभु जब ऐसी आज्ञा कर दें कि हे क्रोध देवता! आओ अब हम तुम्हें आज्ञा देते हैं कि तुम हमारे भीतर प्रवेश करो। तभी कहीं जाकर क्रोध दास की भूमिका निभाते हुए उपस्थित होता है। यही मर्म योगी जन समझते होते हैं, कि क्रोध के साथ क्या व्यवहार करना चाहिए, उसे उद्दण्ड की भाँति हृदय में घुसने देना चाहिए अथवा नौकर की भाँति रखना चाहिए। जिसे हमारा आदेश मानने की लत व विवशता दोनों हों। जब हम कहें वह भीतर प्रवेश करे और जब हम कहें तो वह बाहर द्वार पर ही हमारे अगले आदेश का इन्तज़ार करे। बस यही अंतर होता है एक विषयी व्यक्ति में और ईश्वर में कि विषयी व्यक्ति क्रोध का दास होता है और ईश्वर के संदर्भ में दास स्वयं क्रोध ही होता है।
भगवान श्रीराम का यह क्रोध क्या रंग लाता है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम!
-सुखी भारती
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