Gyan Ganga: धर्म से प्रेरित राजनेता की धर्ममय राजनीति से समाज को अधिक लाभ मिलता है
कहने का तात्पर्य कि वैदिक इतिहास में बिना धर्म के केवल राजनीति ही नहीं, अपितु कोई भी नीति बिना धर्म के मूर्तिमान नहीं थी। जिसका परिणाम यह था कि राष्ट्र को नैतिक मूल्यों को धारण करने वाले नेता मिलते थे, न कि मिथ्या भाषण, वक्तव्य वाले अभिनेता।
विगत अंकों से हम यह अवलोकन कर पा रहे हैं, कि श्रीराम जी सुग्रीव को धर्म परायण होकर धर्म नीति तो सिखा ही रहे हैं, साथ-साथ एक राजा को कुशल राजनीतिज्ञ कैसा होना चाहिए, यह भी सिखा रहे हैं। क्योंकि श्रीलक्ष्मण जी जब सुग्रीव का राजतिलक कर देते हैं, तो उसके पश्चात श्रीराम जी सुग्रीव को अपने पास बुलाकर राजनीति का ही उपदेश देते हैं-
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‘पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई।
बहु प्रकार नृपनीति सिखाई।।’
यहाँ आपके मन में एक प्रश्न उत्पन्न नहीं हो रहा कि भगवान का उदय तो धर्म की स्थापना हेतु हुआ है, फिर प्रभु को राजनीति की शिक्षा देने की क्या आवश्यकता आन पड़ी? क्योंकि आज वर्तमान परिपाटी के अनुसार तो धर्म का राजनीति से कोई सरोकार ही नहीं होना चाहिए। ऐसा आज के राजनेता बड़ी ज़ोर-शोर से कहते सुने जाते हैं। जिसे एक नाम भी दिया गया है ‘धर्म निरपेक्ष राजनीति’। जिसे सुनते-सुनते हमारी भी यही धारणा बन गई है, कि राजनीति में तो वाकई में धर्म का कोई स्थान ही नहीं। लेकिन अगर वाकई में ऐसा ही होता तो श्रीराम जी को धर्म के साथ-साथ राजनीति का पाठ पढ़ाने की क्या आवश्यक्ता होती? इस पर चिंतन आवश्यक है। सज्जनों अगर आप हमारे धार्मिक इतिहास का गहनता से अध्ययन करेंगे, तो हम पायेंगे कि हमारे महापुरूषों ने बिना धर्म के तो राजनीति की कल्पना तक नहीं की। क्योंकि बिना धर्म के राजनीति मानो ऐसी है, जैसे एक ऐसा घोड़ा, जो है तो बहुत अच्छा, लेकिन उसमें एक ही त्रुटि है कि वह घोड़ा बिना लगाम के है, अर्थात् अनियंत्रित है। वह घोड़ा भागता तो अतिअंत तीव्र गति से है, लेकिन भागना कब और किस दिशा में है, इसका उसे कोई भान ही नहीं होता। जिसका परिणाम यह होता है कि हम भी उस घोड़े की तरह, जितनी भी तीव्र गति से भागते हैं, उतनी ही तीव्र गति से हम अपनी मंजिल से दूर होते जाते हैं। श्रीलक्ष्मण जी भी धर्ममय राजनीति का ही अनुसरण करते हैं। क्योंकि जब उन्हें श्रीराम जी ने कहा कि हे अनुज! आप जाकर सुग्रीव का राज तिलक करो, तो श्रीलक्ष्मण जी सर्वप्रथम विप्रजनों को ही सादर आमंत्रित करते हैं-
‘लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज।।
राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज।।’
यहाँ भी हम देखते हैं कि श्रीलक्ष्मण जी सर्वप्रथम विप्रजनों को उपस्थित होने की प्रक्रिया का पालन करते हैं। केवल श्रीराम जी अथवा श्रीलक्ष्मण जी ही नहीं, अपितु श्रीकृष्ण जी भी पग-पग पर साधु जनों को अग्रणीय स्थान प्रदान करते हैं। श्रीकृष्ण जी का उद्घोष भी सुन लीजिए- ‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।’ श्लोक में जब श्रीकृष्ण जी धर्म की स्थापना की गर्जना करते हैं, तो साथ में साधु जनों के रक्षण का भी प्रण करते हैं- ‘परित्रणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।’ अर्थात मैं दुष्टों का संहार तो करूँगा ही करूँगा, साथ में साधु जनों की रक्षा करना भी मेरा परम लक्ष्य होगा। और पांडवों द्वारा किए राजसूय यज्ञ में, यज्ञ पूर्ण होने की शर्त ही यह रखते हैं, कि जो भी पांडु पुत्र डूम ऋर्षि को यज्ञ में ले आयेगा, जिनके कारण आँसमां में सांकेतिक घंटा भी बजेगा, तभी माना जायेगा कि राजसूय यज्ञ सफल हो गया। महाभारत युद्ध में भले ही घोषणा धर्म की स्थापना की ही थी। लेकिन श्रीकृष्ण जी साथ में यह घोषणा भी फिर क्यों करते हैं, कि इस युद्ध के पश्चात धर्मराज युधिष्ठर का राजतिलक किया जायेगा। प्रत्यक्ष है कि श्रीकृष्ण धर्ममय राजनीति के प्रखर समर्थक थे। आचार्य चाणक्य भी जब चंद्र गुप्त मौर्य को नंद राज्य के लिए भावी उत्तराधिकारी चयनित करते हैं, तो सर्वप्रथम चंद्र गुप्त को धर्म की ही आधारशिला प्रदान करते हैं। श्री गुरू गोबिंद सिंह जी भी धर्म हेतु अवतार लेने की ही बात स्वीकारते हुए कहते हैं-
‘हम ऐह काज जगत मो आये।
धरम हेत गुरुदेव पठाये।।’
श्री गुरुदेव ने अगर धर्म की स्थापना का प्रण लिया भी तो साथ में खालसा राज की स्थापना भी तो की। जिसका उल्लेख सिख कवि भाई सुख्खा सिंह जी ने ‘गुरविलास पातशाही दशवीं’ में लिखा है कि ‘राज बिना नहीं धर्म चले हैं, धर्म बिना सब दल्ले मल्ले हैं।’ अर्थात् अगर धर्म सहित राज होगा तभी धर्म भी फलेगा-फूलेगा। और बिना धर्म के सब नष्ट व व्यर्थ हो जाता है। दार्शनिक प्लूटो ने भी कहा कि `प्रत्येक देश के राजा को ब्रह्म ज्ञानी होना चाहिए, अगर राजा ब्रह्म ज्ञानी नहीं है, तो किसी भी ब्रह्म ज्ञानी को राजा बना दीजिए। फिर देखिए, राष्ट्र कैसे उन्नति के रास्ते पर चलता है।
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कहने का तात्पर्य कि वैदिक इतिहास में बिना धर्म के केवल राजनीति ही नहीं, अपितु कोई भी नीति बिना धर्म के मूर्तिमान नहीं थी। जिसका परिणाम यह था कि राष्ट्र को नैतिक मूल्यों को धारण करने वाले नेता मिलते थे, न कि मिथ्या भाषण, वक्तव्य वाले अभिनेता। कोई भी अभिनेता अच्छा नाटक तो कर सकता है, लेकिन उसे चरित्र में नहीं ढाल सकता। यद्यपि एक कुशल नेता का गुण सुंदर भाषण देना नहीं, अपितु सुंदर शासन देना है। जैसा कि हमने विगत अंक में ही कहा है, कि सुंदर शासन वही दे सकता है, जो सुंदर अनुशासन को धारण करने वाला हो। और अनुशासन का मार्ग निकलता ही धर्म से है। इसलिए श्रीराम जी जब सुग्रीव को राजनीति का उपदेश देते हैं, तो प्रभु राजनीति को धर्म से विलग करके नहीं देखते, अपितु दोनों को एक दूसरे का पूरक मान कर चलते हैं। यही कारण है कि धर्म से सिंचित राजा सदैव राष्ट्र के लिए हितकारी सिद्ध होते थे। उदाहरण के लिए हम वीर शिवा जी की जीवनी देखते हैं। वे मराठा राज, या यूँ कहें कि हिंदु राज की स्थापना कर रहे थे। लेकिन उनका संपूर्ण जीवन जिनके आदेश व निर्देश से संचालित हो रहा था, वे थे उनके गुरुदेव श्री समर्थ गुरु रामदास जी महाराज। जिनकी महती कृपा से एक दैवीय गुण संपन्न राजा इस राष्ट्र को प्राप्त हुआ। घटना कहती है कि एक बार युद्ध विजय के पश्चात उनके सैनिक जीते हुए खजाने के साथ-साथ पराजित राजा की पत्नि को भी साथ ले आये। सैनिकों ने सोचा वीर शिवा जी ऐसा उपहार पाकर खूब प्रसन्न होंगे। लेकिन वीर शिवा जी ने जैसे ही इस परिदृश्य का सामना किया, वे शर्मिंदगी व लज्जा से पानी-पानी हो गये। और उस बंधक रानी के सामने हाथ ज़ोडकर खड़े हो गए। अविलम्भ उसकी बेडि़यां काटते व् क्षमा मांगते हुए वीर शिवा जी कहते हैं, कि हे माता! अपने बालक के इस अक्ष्मय अपराध को कृपा कर क्षमा कर दीजिए, क्योंकि नाहक ही आपको मैंने बंधक बनाने का ऐसा नीच अपराध कर डाला।
देखा सज्जनों! धर्म से प्रेरित राजनेता की धर्ममय राजनीति का समाज को कितना सुंदर लाभ है। इसलिए वर्तमान समाज में जो धर्मनिरपेक्ष राजनीति का प्रारूप है, निश्चित ही समाज के लिए इसके दूरगामी परिणाम घोर अहितकारी व हानिप्रद है। क्योंकि श्रीराम जी अपनी लीला से तो यही समझाना चाहते हैं।
आगे श्रीराम जी के क्या उपदेश हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)--- जय श्रीराम!
- सुखी भारती
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