Gyan Ganga: गुरुओं के संबंध में सुन कर ही अपने संतों का मूल्य समझ आता है
किसी ने गोस्वामी जी से यह प्रश्न भी कर लिया, कि जैसी महिमा आप संतों की गाते हैं, उस आधार पर तो यही मान लेना चाहिए, कि संत तो किसी को दुख देते ही नहीं हैं। वे सदा सुख ही देते हैं। इसके उत्तर में गोस्वामी जी कहते हैं, कि न भाई! मैंने यह कब कहा, कि संत दुख देते ही नहीं।
खल वंदना के पश्चात गोस्वामी तुलसीदास जी संत व असंत की वंदना करते हैं। संत एवं असंत के मध्य तुलना करके, वे वास्तव में संतों की ही महिमा गान कर रहे हैं। जैसे हमारे पास अगर केवल स्वर्ण आभूषण ही पड़े हों, तो हो सकता है, कि हम उनकी और अधिक ध्यान न दें। लेकिन अगर कोई हमसे कहे, कि भाई हम तो बड़े अभागे हैं, हमारे पास तो केवल पीतल ही पीतल है। इसके आभूषण इतने भारी हैं, कि इसके झुमके कोनों में डालें, तो कान ही लटक जाते हैं। ऊपर से इसकी चमक भी ऐसी है, कि पल भर में भंडा फूट जाता है, कि हमारे आभूषण स्वर्ण के नहीं, अपितु पीतल के हैं।
सज्जनों पीतल की ऐसी विवेचना सुनने के पश्चात, अब आपको महसूस होगा, कि आपके पास भी जो स्वर्ण के आभूषण हैं, वे कितने सम्मान के हकदार हैं। इसी प्रकार हो सकता है, कि हम किन्हीं संतों के संपर्क में हों। लेकिन उनके पास अधिक आना जाना न हो। हम उन्हें भले ही निंदक भाव से न देखते हों, लेकिन उनको प्राथमिकता में भी नहीं रखते हों। ऐसे में अगर कोई हमें बताये, कि हमारे वहाँ तो संत के वेष में एक ऐसा राक्षस है, कि हम उससे अतिअंत परेशान हो चुके हैं। उस असंत के डेरे में हर रोज़ गुण्डों का जमावड़ा हुआ रहता है। भाँति-भाँति प्रकार के वहाँ नशे होते हैं। नारियों का तो रत्ती भर भी सम्मान नहीं है। लेकिन भाई साहब आप तो अच्छे भाग्यशाली हैं, जो इतने महान संतों के शिष्य हैं।
अपने गुरुओं के संबंध में ऐसा सुनकर, हमें अपने संतों का मूल्य समझ में आता है, कि हम अज्ञानी हैं, जिन्होंने ऐेसे महान संतों का सान्धिय होने के पश्चात भी उनसे कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं लिया।
गोस्वामी जी भी हमें ऐसे ही उदाहरणों से समझा रहे हैं। वे कहते हैं-
‘उपजहिं एक संग जग माहीं।
जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं।।
सुधा सुरा सम साधु असाधु।
जनक एक जग जलधि अगाधु।।’
अर्थात संत एवं असंत दोनों ही जगत में एक साथ ही जन्म लेते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे कीचड़ में जोंक और कमल का फूल होते हैं। लेकिन दोनों भिन्न-भिन्न प्रकार का फल देते हैं। कमल तो अपने स्पर्श एवं दर्शन से सुख देता है। लेकिन जोंक जिस भी सरीर का स्पर्श करती है, वह उसीका रक्त पी जाती है। गोस्वामी जी जब जोंक की कष्टदायक वृति का वर्णन करते हैं, तो वे वास्तव में जोंक के अवगुण न गिना करके, संतों की ही महिमा गा रहे होते हैं। हमें अहसास करवा रहे होते हैं, कि देखो, यह निर्णय अब आपको करना है, कि आपको कमल जैसा स्पर्श चाहिए, अथवा जोंक जैसा?
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किसी ने गोस्वामी जी से यह प्रश्न भी कर लिया, कि जैसी महिमा आप संतों की गाते हैं, उस आधार पर तो यही मान लेना चाहिए, कि संत तो किसी को दुख देते ही नहीं हैं। वे सदा सुख ही देते हैं। इसके उत्तर में गोस्वामी जी कहते हैं, कि न भाई! मैंने यह कब कहा, कि संत दुख देते ही नहीं। संत भी बहुत दुख देते हैं। उनका दिया दुख तो इतना कष्टप्रद होता है, कि प्राण ही निकल जायें। प्रश्नकर्ता ने पूछा, कि गोस्वामी जी! यह आप यह क्या कह रहे हैं? आप किस आधार पर ऐसा आक्षेप लगा रहे हैं?
तो गोस्वामी जी बोले-
‘बंदउँ संत असज्जन चरना।
दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना।।
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं।
मिलत एक दुख दारुन देहीं।।’
संत के दिये दुख में असंत में बस थोड़ा-सा अंतर है। असंत तो तब दुख देते हैं, जब वे हमारी जिंदगी में आते हैं। लेकिन संत हमें तब दुख देते हैं, जब वे हमारा संग छोड़ कर, हमसे कहीं दूर चले जाते हैं। संत का वियोग बड़ा असहनीय होता है। संतों के संग से अधिक प्रिय कुछ भी नहीं होता है।
कबीर जी के जीवन की यह घटना बड़ी रोचक है। उन्होंने एक समय एक रचना नची थी-
‘कबीरा जब हम आये जगत में, जग हँसा हम रोये।
ऐसी करनी कर चले, जग हँसा, हम रोये।।’
लोग बड़े हैरान थे, कि कबीर जी कितने बड़े भक्त हैं, कि उन्हें मृत्यु में भी आनंद महसूस हो रहा है। सभी उनकी प्रशंसा कर रहे थे। लेकिन एक समय वह भी आया, जब कबीर जी के जीवन का अंतिम चरण आ पहुँचा। कबीर जी ने देखा, कि राम दरबार से, मृत्यु के देवता उन्हें लेने आ पहुँचे हैं। उन्हें देख कबीर जी चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगे। लोगों ने जैसे ही कबीर जी को यूँ रोते देखा, तो वे कहने लगे-
‘अरे वाह कबीर जी! आपने पहले तो खूब गाया, कि आपको मृत्यु में भी आनंद आता है। लेकिन अब सचमच मृत्यु आपके द्वार पर खड़ी है, तो आप संसार के साधारण व्यक्ति की भाँति रोने लगे? क्या पहले वाले दावे मात्र थोथे ही थे?’
तब कबीर जी ने उत्तर दिया-‘नहीं भाई लोगो! वे दावे कोई आपको भ्रम में डालने के लिए नहीं थे। मैं तब भी सत्य भाषण कर रहा था, और अब भी सत्य ही कह रहा हुँ। मुझे मृत्यु से न तो पहले कोई भय लग रहा था, और न ही आज लग रहा है। मेरा रोना तो इसलिए है, कि जो सुख मुझे यहाँ मृत्यु लोक में संतों के साथ मिलता है, वह बैकुण्ठ में भी नहीं मिलेगा-
‘राम बुलावा भेजया, दिया कबीरा रोये।
जो सुख साधु संग में, सो बैकुण्ठ न होये।।’
गोस्वामी जी भी यही कुछ कहने का प्रयास कर रहे हैं। आगे गोस्वामी जी क्या कहते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती
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