Gyan Ganga: गोस्वामीजी ने श्रीराम चरितमानस में दुष्टों की ऐसी महिमा क्यों गाई है

goswami tulsidas
Prabhasakshi
सुखी भारती । Jan 11 2024 6:22PM

सज्जनों सोच कर देखिए! गोस्वामी जी ने दुष्टों की ऐसी महिमा क्यों गाई है। अभी तो आप आगे की चौपाईयों को ध्यान पूर्वक पड़ेंगे, तो आप पायेंगे, कि वे ऐसी सुंदर शब्दावली का प्रयोग तो, देवता गणों की महिमा में भी नहीं करते, जितने सलीके से खल वंदना में करते हैं।

गोस्वामी जी जब श्रीराम चरितमानस की पावन रचना करते हैं, तो वे केवल संतों, अवतारों एवं त्रिदेवों की ही महिमा नहीं गाते, अपितु ऐसे पात्रों की भी वंदना करते हैं, जिसे कोई भी रचनाकार नहीं करना चाहेगा। जी हाँ! गोस्वामी जी ‘खल वंदना’ में दुष्टों व खल वृति के जीवों की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हैं-

‘बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ।

जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ।।

पर हित हाति लाभ जिन्ह केरें।

उजरें हरष बिषाद बसेरें।।’

गोस्वामी जी कहते हैं, कि मैं अब सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हुँ, जो बिना ही प्रयोजन अपना हित करने वालों के भी प्रतिकूल आचनण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है। जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष व बसने में विषाद होता है। मैं उन्हें प्रणाम करता हूं।

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सज्जनों सोच कर देखिए! गोस्वामी जी ने दुष्टों की ऐसी महिमा क्यों गाई है। अभी तो आप आगे की चौपाईयों को ध्यान पूर्वक पड़ेंगे, तो आप पायेंगे, कि वे ऐसी सुंदर शब्दावली का प्रयोग तो, देवता गणों की महिमा में भी नहीं करते, जितने सलीके से खल वंदना में करते हैं। इसके पीछे क्या कारण है? दरअसल वे खल वंदना तो कर ही नहीं सकते। क्योंकि जिन्होंने श्रीहरि की भक्ति को पा लिया है, उनके मुख से किसी और की प्रशंसा हो ही नहीं सकती। चलो माना कि किसी देव अथवा सभ्य मानव की प्रशंसा हो गई। लेकिन किसी राक्षस अथवा दुष्ट की प्रशंसा तो उनके मुख से हो ही नहीं सकती। लेकिन तब भी गोस्वामी जी द्वारा रचित खल वंदना तो दुष्टों के महिमा गान से ही भरी पड़ी है। प्रश्न उठता है, कि गोस्वामी जी को ऐसी क्या मज़बूरी आन पड़ी थी, कि वे खल वंदना करते हैं?

गोस्वमी जी का सोचना बिलकुल उचित भी है। क्योंकि आप ने भी बड़े बजुर्गों को हमें समझाते हुए सुना होगा, कि बुरे लोगों के मुँह नहीं लगना चाहिए। कारण कि दुष्टों के साथ अगर हम उलझते हैं, तो इसका परिणाम कभी भी सुखद नहीं होता है। मान लीजिए, कि स्वर्ण और पीतल आपस में लड़ने बैठ जायें। पीतल कहे, कि मैं अधिक श्रेष्ठ हूँ और स्वर्ण कहे पूरे संसार में जाकर पूछ लो, कि मेरा तुम्हारे वनस्पति क्या मूल्य है? हालाँकि पीतल को भी पता तो है ही, कि मेरी स्वर्ण के समक्ष कोई कीमत नहीं है। लेकिन स्वर्ण से झगड़ा करने में, कम से कम यह उपलब्धि तो है ही, कि एक अच्छी खासी दर्शक मंडली देखने को तैयार रहती है। ऐसी दर्शक मंडली को मुफ्त में एक नाटक देखने को मिल जाता है। भले ही दर्शक मंडली को भी पता तो होता ही है, कि जीत तो स्वर्ण की ही होनी है, लेकिन तमाशा बनते देख उन्हें एक अलग ही प्रकार का सुकून प्राप्त होता है। लेकिन इस संपूर्ण घटनाक्रम घट जाने के पश्चात पीतल का क्या गया। उसकी कीमत तो उतनी ही रही, जितनी रहनी थी। लेकिन उस स्वर्ण को जा घाटा हुआ, वह उस घाटे का हकदार नहीं था। घाटा यह, कि जितना समय उस स्वर्ण ने उस पीतल से झगड़ने में लगाया, उतना समय अगर उसका स्वयं को संवरने में लगता, तो हो सकता है, कि उस समय उसपे किसी रानी अथवा राजे की दृष्टि पड़ जाती, और वह दूसरे ही पल रानी के गले में, अथवा राजे के मुकुट पर होता। लेकिन उस पीतल के साथ उलझने में ही उसका सारा समय निकल गया। विचारणीय है, कि समय तो सभी को सीमित ही मिला है न? उस पीतल अथवा स्वर्ण की तो हो सकता है, कि समय की अथाह सीमा पड़ी हो, लेकिन गोस्वमी जी तो मानव हैं। मानव को तो श्वासों के आधार पर ही जीवन मिलता है। तो ऐसे में गोस्वामी जी अगर दुष्टों से ही उलझने में अपने समय को व्यतीत कर देते हैं, तो वे श्रीराम चरितमानस रूपी पावन ग्रंथ की रचना कब करेंगे? उन्हें पता है, कि श्रीराम जी के पावन गुणों का बखान हो रहा हो और दुष्ट प्रवृतियां बीच में बाधा न डालें, ऐसा हो ही नहीं सकता। तो ऐसे में या तो उनसे युद्ध कर उन्हें परास्त किया जाये। या फिर उनके समक्ष समर्पण किया जाये। समस्या यह थी, कि गोस्वामी जी युद्ध कर नहीं सकते थे, और दुष्टों के समक्ष समर्पण उनसे हो नहीं सकता था। दुष्टों की यह मज़बूरी थी, कि उन्हें बीच में तो बाधा डालनी ही थी।

ऐसे में दुष्टों को अपने मार्ग से हटाने का सबसे सुगम रास्ता ही यह है, कि आप उस दुष्ट को यह अहसास करवा दीजिए, कि आप तो उसे बहुत महान समझते हैं। उनका जैसा श्रेष्ठ जीव तो आप आज तक देखा ही नहीं है। फिर देखिए, उस दुष्ट में कैसे देवता प्रगट होता है। वह स्वयं ही शांत हो जायेगा।

कारण कि, दुष्ट किसी से भी सिर्फ इसलिए ही ता झगड़ता है न, कि आप उसके अहंकार का सम्मान करें। अगर आप पहले ही उन्हें यह सम्मान दे देंगे, तो बाद में तो वह आपके द्वारा प्राप्त किये गये, सम्मान को संभालने में ही व्यस्त हो जायेगा। वह कभी भी नहीं चाहेगा, कि आपकी दृष्टि उसके प्रति किसी भी प्रकार से बदले। इसलिए वह आपको आपके किसी भी कार्य में रुकावट उत्पन्न नहीं करेगा। परिणाम स्वरूप आप अपने कार्य से किसी बाधा को ही केवल नहीं हटा रहे, अपितु अपना एक हितैशी भी पैदा कर रहे हैं। गोस्वामी जी ने यही किया, और यही जीवन का सार भी है। क्यों हम व्यर्थ ही संसार में लोगों से उलझते रहें। क्यों न हम अपने प्रगतिशील कार्यों में संलग्न रहें। यही सूत्र हमें पकड़ना है, और यही प्रभु हमसे चाहते हैं।

-सुखी भारती

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