Gyan Ganga: श्रीहनुमान जी को लंका से वापिस आने में किंचित भी परेशानी नहीं हुई
श्रीहनुमान जी के स्थान पर, अगर वीर अंगद जी लंका नगरी में चले जाते, तो आज सुंदर काण्ड श्रीहनुमान जी को समर्पित न होकर, वीर अंगद जी की वीर गाथा से भरा होता। किष्किंधा पहुँचते-पहुँचते श्रीहनुमान जी ने अंगद सहित सभी वानरों को लंका गमन की संपूर्ण गाथायें सुना डाली।
श्रीहनुमान जी ने माता सीता जी से चूड़ामणि ले विनयपूर्वक विदाई ली। उनके मन में हर्ष भरा है। छाती तो मानों चौड़ी होकर, सौ योजन को छू रही थी। वही सागर, जिसकी लंबाई लंका में आते हुए, इतनी भासित हुई थी, कि सागर समाप्त ही नहीं हो पा रहा था। साथ में रास्ते में भी रुकावटों का अंबार लगा था। कभी सुरसा तो कभी सिहिंका, या फिर लंकिनी, सब और से कोई न कोई बाधा डालने आ ही रहा था। लेकिन लंका दहन कर और माता सीता जी की सुधि ले, श्रीहनुमान जी वापिस लौट रहे हैं, तो अब मार्ग में एक भी बाधा नहीं आई। जबकि अंगद तो किसी समय यही दावा कर रहे थे-
‘अंगद कहइ जाउँ मैं पारा।
जियँ संसय कछु फिरती बारा।।’
अर्थात लंका जाने में मुझे कोई संकोच नहीं। मैं आसानी से उस पार लंका नगरी में प्रवेश कर जाऊँगा। लेकिन मुझे शंका है, कि लंका नगरी से वापिस आने में बाधा आ सकती है। पूरी संभावना है, कि लंका नगरी से लौटने में मुझे संघर्ष का सामना करना पड़ेगा। हालांकि वीर अंगद में पिता बालि की ही भाँति असीम बल है। लेकिन मन में संस्कार वश किसी त्रुटि के चलते, वीर अंगद अपने कदम उठा नहीं पा रहे हैं। लेकिन श्रीहनुमान जी ने अपनी सेवा कार्य से यह बता दिया, कि हो सकता हम प्रभु कार्य करने से पहले, यह सोचें, कि अमुक कार्य मुझसे नहीं हो पायेगा। मैं निश्चित ही असफल हो जाऊँगा। जैसा कि सागर पार करने में वीर अंगद सोच ही रहे हैं। लेकिन आप देख ही रहे हैं, वीर अंगद के समस्त पूर्वानुमान असत्य सिद्ध हुए।
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श्रीहनुमान जी को लंका से वापिस आने में किंचित भी परेशानी नहीं हुई। जबकि लंका पहुँचने में उन्होंने पग-पग पर संघर्षों का सामना किया। यह प्रसंग हमें यही बताता है, कि किसी भी धर्म सेवा कार्य में, अथवा किसी सामाजिक कल्याणार्थ कार्य में, हमें अपने कदम यह सोच कर, कभी पीछे नहीं हटाने चाहिए, कि वह कार्य आपके सामर्थय बल से बाहर है। आप तो बस प्रभु पर विश्वास करके उस धर्म युद्ध में छलाँग लगा दें। आप देखिएगा, कि प्रभु कृपा से आप की सहायता करने के लिए, कहाँ-कहाँ से योग बन जायेंगे। हम किसी भी लड़ाई को, आधा तो तब ही हार जाते हैं, जब हम कदम उठाने से पूर्व ही मन में यह धारण कर लेते हैं, कि यह अमुक कार्य तो बहुत कठिन है। अरे भाई, इस मिथ्या धारणा के आधार पर तो, संसार में कुछ भी आसान नहीं। उदाहरणतः आप जो आहार करते हैं, क्या उस भोजन से आवश्यक तत्व निकाल, उसे पचाना आसान है? आप किसी उदर चिकित्सक से पूछें। वह आपको बतायेंगे, कि भोजन पचाने की प्रक्रिया इतनी जटिल व लंबी है, कि उसे देखे आप अपना सिर ही पकड़ कर बैठ जायेंगे। आप थकने के पश्चात आराम से सो जाते हैं न? सज्जनों यह आराम से सो जाना भी कोई आसान कार्य नहीं है। क्योंकि सोने के लिए भी दिन भर के संकल्प-विकल्प मन से निकालने पड़ते हैं। सोने के लिए जिस थकने की बात हम कर रहे हैं, वह थकना भी कोई खाला जी का बाड़ा नहीं आदरणीय। कारण कि थकने की अवस्था पाने के लिए भी दिन भर जी तोड़ काम करना पड़ता है। कहने का तात्पर्य कि जब मन में धारण ही कर लिया, कि भाई साहब! अमुक कार्य तो हमसे हो ही नहीं पायेगा। तो समझिएगा, कि आपके लिए सुई से पर्वत तक, प्रत्येक कार्य ही असाध्य है।
ऐसे में एक ही विकल्प बचता है, कि अगर सफलता पाना है, तो नकारात्मकता को हृदय की जड़ों से उखाड़ फेंके। और अपने प्रभु के बल व सामर्थय पर विश्वास करते हुए, मैदान में कूद पड़ें। अधिक से अधिक क्या होगा? पराजय ही तो होगी न। और पराजय होने को, क्या आप व्यर्थ ही मानते हैं क्या? जी नहीं! पराजय भी अपने गर्भ में अनेकों लाभ समेटे बैठी है। आप जानते ही होंगे, कि बल्ब की खोज करने वाने वैज्ञानिक ‘थामस ऐल्वा एडिसन’ ने की थी। लेकिन इस महान खोज का आविष्कार यूँ ही, एक बार में ही, यकायक नहीं हो गया। बल्ब के आविष्कार से पूर्व एडिसन सात सौ से अधिक बार, इस प्रयोग में असफल हुए थे। और जब उन्होंने बल्ब का आविष्कार कर डाला, तो उनसे किसी ने कहा, कि अडिसन जी, आपने बल्ब बनाने के लिए, जो सात सौ से अधिक बार प्रयास किए, वे तो व्यर्थ ही गए न? क्योंकि बल्ब निर्माण का सही सूत्र तो आपको, अब कहीं जाकर मिला। तो एडिसन महोदय ने कहा, कि वे असफल प्रयास व्यर्थ थोड़ी न गए। कयोंकि उन असफल प्रयासों में से, प्रत्येक असफल प्रयास ने मुझे यह सिखाया, कि यह बल्ब बनाने का सही तरीका नहीं है। इसलिए श्रीहनुमान जी कभी भी असफलता से घबराते नहीं है। घबरायें भी क्यों? क्योंकि घबराता तो वह है, जिसे अपने प्रभु के प्रभुत्व पर विश्वास नहीं है। हम ऐसा नहीं मान रहे, कि वीर अंगद का अपने प्रभु श्रीराम जी पर विश्वास नहीं। लेकिन उनके विश्वास में अभी श्रीहनुमान जी जैसी अडिगता नहीं। उन्नीस-बीस का अंतर तो है ही। और भक्ति पथ पर, यह उन्नीस-बीस का अंतर ही, सागर के दो छोर जैसा अंतर पैदा कर देता है।
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सोचिए, श्रीहनुमान जी के स्थान पर, अगर वीर अंगद जी लंका नगरी में चले जाते, तो आज सुंदर काण्ड श्रीहनुमान जी को समर्पित न होकर, वीर अंगद जी की वीर गाथा से भरा होता। किष्किंधा पहुँचते-पहुँचते श्रीहनुमान जी ने अंगद सहित सभी वानरों को लंका गमन की संपूर्ण गाथायें सुना डाली। किष्किंधा में प्रवेश हो, इससे पूर्व समस्त वानरों ने बाग उजाड़ डाले। सुग्रीव ने देखा, कि वानर जब प्रसन्न हों, तभी बाग उजाड़ते हैं। इसका अर्थ कि वानर सेना ने कार्य सिद्ध कर दिया है। सुग्रीव सभी वानरों से बड़े प्रेम व उत्साह से मिले। सब गाथा सुनी। तदपश्चात सुग्रीव जी सभी वानरों के ले, प्रभु श्रीराम जी के सान्निध्य में जा पहुँचे। प्रभु श्रीराम जी के पावन श्रीचरणों में जाकर, श्रीहनुमान जी का क्या संवाद होता है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती
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