Gyan Ganga: श्रीहनुमान जी जैसा समर्पण करेंगे तो आपका जीवन ही बदल जायेगा
माता पार्वती जी भगवान शंकर जी द्वारा उच्चारित श्रीराम कथा को बड़े ध्यान से श्रवण कर रही हैं। जिज्ञासा वश वे भगवान शंकर जी से पूछती हैं, कि हे प्रभु! लंका दहन के पीछे अगर यह मुख्य कारण नहीं है, तो फिर कौन से कारण के चलते, रावण की लंका दहन हुई।
श्रीहनुमान जी ने लंका नगरी में वो प्रचंड घमासान मचाया, कि रावण ने इसकी स्वपन में भी कल्पना नहीं की थी। श्रीहनुमान जी तो फिर हनुमान जी थे, उन्हें भला किसके वश में आना था। क्या पवन भी किसी की मुट्ठी में बँधती है? नहीं न! तो पवनपुत्र श्रीहनुमान जी किसी के आधीन कैसे हो सकते हैं? वे स्वछन्द थे, स्वछन्द हैं और स्वछन्द ही रहेंगे। भगवान शंकर जी भी जब, माता पार्वती जी को यह कथा का रसपान करवा रहे हैं, तो बड़े प्रसन्न भाव से कह रहे हैं, कि हे पार्वती, तुम निश्चित ही यह चिंतन कर रही होगी, कि क्या रावण के जीवन काल का, श्रीसीता जी के अपहरण वाला कर्म ही उत्तरदायी था, कि उसकी लंका नगरी यूँ धू-धू कर जल रही थी? तो इसका उत्तर है, ‘नहीं’। श्रीराम जी वास्तविक्ता में रावण के प्रति तो क्राधित थे ही नहीं। कारण कि श्रीराम जी तो जानते ही हैं, कि श्रीसीता जी तो जगत जननी हैं। चराचर जगत की माता होने के साथ-साथ, वे तात्विक दृष्टि से रावण की भी माता ही हुई। हाँ, रावण भले ही बाल व अल्प बुद्धि में श्रीसीता जी का अपहरण करके ले आया हो। और उनके प्रति हृदय में अज्ञानतावश किशोराभाव वाला आकर्षण पाल बैठा हो। लेकिन तब भी रावण की सीमित बुद्धि बल को देखते हुए, उसे क्षमा किया जा सकता है। फिर उसने यह पाप कर्म मेरे व आदिशक्ति के प्रति ही किया है। हमें ही जब उसके प्रति वैर भाव नहीं, तो रावण को दण्डित करने का तो कोई प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता।
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माता पार्वती जी भगवान शंकर जी द्वारा उच्चारित श्रीराम कथा को बड़े ध्यान से श्रवण कर रही हैं। जिज्ञासा वश वे भगवान शंकर जी से पूछती हैं, कि हे प्रभु! लंका दहन के पीछे अगर यह मुख्य कारण नहीं है, तो फिर कौन से कारण के चलते, रावण की लंका दहन हुई। यह सुन भगवान शंकर जी कहते हैं, कि हे पार्वती तुमने बड़ा ही सुंदर प्रश्न किया है। इसका उत्तर तुम्हारे माध्यम से समस्त संसार के जीवों के कल्याण का कारण बनेगा। तो सुनो पार्वती! रावण की लंका नगरी का सर्वोच्च मुख्य कारण है, रावण द्वारा संतों महात्मायों का किया जाने वाला निरंतर व असहनीय अपमान था-
‘साधु अवग्या कर फलु ऐसा।
जरइ नगर अनाथ कर जैसा।।
जारा नगरु निमिष एक माहीं।
एक बिभीषन कर गृह नाहीं।।’
अर्थात हे पार्वती! रावण द्वारा संतों का अपमान ही लंका दहन का आधार बना। लेकिन आश्चर्य देखो, कि पूरी लंका श्रीहनुमान जी द्वारा प्रचण्ड हुई अग्नि ने जला डाली, लेकिन एक श्रीविभीषण जी का ही घर ऐसा था, जो उन्होंने नहीं जलाया। कारण कि श्रीविभीषण जी तो स्वयं बहुत बडे़ संत हैं। और अग्नि को भी पता है, कि किसको जलाना है, और किसको नहीं। इसलिए रावण की अभेद्य लंका का जल जाना, समस्त संसार को यह बताता है, कि आप भले ही इस जगत के तीनों लोकों के भी विजेता क्यों न हों। सारे देवी-देवता आपके समक्ष नत्मस्तक भी भले क्यों न हों। धन, वैभव व ऐश्वर्य की भी कोई कमी न हो। घर ईंट गारे की बजाये, पूर्णतः स्वर्ण का भी क्यों न बना हो। लेकिन अगर आप संतों का अपमान करते हैं, तो निश्चित ही आपकी रक्षा तीनों लोकों के देव, मिलकर भी नहीं कर सकते। विभिन्न कलाओं के ज्ञाता रावण का घर जब संत की अवज्ञा करने से जल उठा। तो मायावी जीव तो महज एक साधारण प्राणी है। उसके घास व लकड़ी के बने मकान, भला अग्नि के प्रकोप से क्योंकर बच सकते हैं? इसलिए जीवन में अगर यह अवसर आये, कि आपको किसी सच्चे साधु के दर्शन सुलभ हों, तो यह अवसर कभी नहीं त्यागना, कि आप उनकी सेवा से वंचित रह जाओ। अगर दुर्भाग्यवश आप उनकी सेवा से वंचित रह भी जायो। तो आप उनके प्रति क्षमा प्रार्थी हो जाना। लेकिन भूले से भी यह महापाप तो स्वप्न में भी न करना, कि आप उनका अपमान करने बैठ जाओ। अगर ऐसा हुआ, तो आपको बताने की आवश्यकता नहीं है, कि रावण की स्वर्ण लंका को जलने में तो फिर भी कुछ समय लगा। लेकिन आप की घास व लकड़ी की बनी झोंपड़ी तो आँख झपकते ही राख हो जायेगी। इसलिए हे पार्वती! श्रीराम जी भी वनों में साधुओं की सेवा व दुष्टों के संहार हेतु ही पधारे हैं। भगवान शंकर जी की शिक्षाओं को माता पार्वती जी अच्छे से गांठ बांधे जा रही हैं। और इधर श्रीहनुमान जी ने लंका नगरी का कोना-कोना दहन कर डाला। भगवान शंकर फिर कहते हैं, कि हे पार्वती! श्रीहनुमान जी की पूँछ को लगी आग, स्वयं उन्हें भी तो जला सकती थी। लेकिन आश्चर्य कि श्रीहुनमान जी उस अग्नि के तपिश प्रभाव से पूर्णतः अछूते रहते हैं। कारण कि जिन प्रभु ने अग्नि को बनाया, श्रीहनुमान जी उन्हीं प्रभु के दूत हैं। इसी कारण से अग्नि श्रीहनुमान जी को रत्ती भर भी हानि नहीं पहुँचाती-
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‘ताकर दूत अनल जेहिं सिरिजा।
जरा न सो तेहि कारन गिरिजा।।
उलटि पलटि लंका सब जारी।
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी।।’
इस प्रसंग से हमें यह भी आश्वासन मिला कि जो गुण संसार में किसी जीव के लिए हानिप्रद हों, जैसे अग्नि सबको जलायेगी ही जलायेगी। वे गुण प्रभु के भक्त के समक्ष अपना स्वभाव बदल देते हैं। इसलिए एक बार श्रीहनुमान जी जैसा समर्पण करके तो देखें। फिर देखना जल भी अपना डुबोने का स्वभाव त्याग कर, आपको गोद में बैठाने का कार्य करता है। श्रीहनुमान जी के साथ ऐसा ही हो रहा है। लंका दहन की लीला को तो श्रीहनुमान जी ने विराम दे दिया। अब आगे श्रीहनुमान जी किसके पास जाते हैं, और क्या करते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती
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