Gyan Ganga: अशोक वाटिका को स्वर्ग से सुंदर भले बनाया था रावण ने लेकिन यह नर्क के समान थी
मीठे फलों से लदी वाटिका, कुछ और नहीं, अपितु एक वन की ही दूसरी झाँकी है। और वनों में मीठे भासित होने वाले फल तो अक्सर कड़वे व ज़हरीले ही निकलते हैं। लेकिन रावण जैसा माया का पुजारी, इन कड़वे फलों से लदे वन को ही सुंदर वाटिका का नाम दिये रखता है।
श्रीहनुमान जी ने देखा कि माता जानकी जी ने तो उन पर त्रिलोकी के खजाने ही लुटा दिये हैं। श्रीहनुमान जी को संतोष हुआ, कि माता सीता जी अब प्रभु विरह के महा पीड़ादायिनी कष्टों से काफ़ी हद तक निवृत हो चुकी हैं। वे इतनी प्रसन्न हैं कि मुझ पर वरदानों की वर्षा किए जा रही हैं। अब क्यों न माता सीता जी से एक निवेदन और कर लिआ जाये। श्रीहनुमान जी अनुनय विनय भाव से बोले-
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‘सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागि देखि सुंदर फल रुखा।।’
अर्थात हे माते! इन सुंदर फल वाले वृक्षों को देख कर मुझे बड़ी भारी भूख लगी हुई है। क्या मैं इन फलों का सेवन कर सकता हूँ? श्रीहनुमान जी ने तो ऐसे निवेदन किया, मानों आज से पूर्व उन्होंने कभी फ़लों का सेवन किया ही न हो। श्रीहनुमान जी तो वैसे भी वनों में निवास करते थे। क्या वहाँ उन्होंने कभी सुंदर फल नहीं चखे होंगे? चलो माना कि फल मीठे होंगे। लेकिन क्या श्रीहनुमान जी को उस बगिया के फल मीठे लगने चाहिए, जिस बगिया में उनकी माता को बँधी बना कर रखा हो? भले ही इस बगिया का नाम अशोक वाटिका था। लेकिन इस अशोक वाटिका ने, माता सीता जी को कितने ही मास, शोक के अँधकूप में डुबो कर रखा है, क्या इस पर भी कोई विचार करेगा? भले ही रावण ने इस अशोक वाटिका को स्वर्ग से भी सुंदर रचना में ढाला था। लेकिन सत्य तो यही था, कि यह अशोक वाटिका, माता सीता जी के लिए, कोई नर्क से कम नहीं थी। और श्रीहनुमान जी को यह सब देख, मन में इतनी पीड़ा हुई थी, कि निश्चित ही उन्हें, इस अशोक वाटिका के कण-कण से भी नफरत हो गई होगी। लेकिन तब भी वे कह रहे हैं, कि हे माते! इन सुंदर मीठे फलों को देख मुझे बड़ी भारी भूख लग गई है, तो निश्चित ही कोई विशेष कारण होगा।
वास्तव में वर्तमान प्रसंग में, श्रीजानकी जी एवं श्रीहनुमान जी, समस्त मानवता को सुंदर व आदर्श जीवन जीने की कला से अवगत करा रहे हैं। विचार करें, कि श्रीहनुमान जी अशोक वाटिका में इतना समय तो गुजार ही चुके थे, कि उन्हें अशोक वाटिका की सुंदरता, अच्छे से समझ आ सकती थी। लेकिन इससे पहले तो उनके मुखारबिंद अशोक वाटिका की प्रशंसा में हमने एक शब्द भी श्रवण नहीं किया था। लेकिन अचानक उन्हें जो, अशोक वाटिका के फल मीठे व सुंदर दिखाई प्रतीत होने लगे, उसके पीछे क्या कारण था? वास्तव में इसके पीछे कारण, कोई फ़लों की मिठास नहीं, अपितु उनकी दृष्टि के दृष्टिकोण में आया बदलाव ही मुख्य कारण है। तात्विक चिंतन तो यही कहता है, कि जिस समय एक साधक को भक्ति के साथ-साथ शक्ति की भी प्राप्ति हो जाती है, फिर उसके लिए वह स्थान भी सुख देने लग जाता है, जो स्थान उसे अथवा उसके प्रियजन को अथाह कष्ट से गुजरने का कारण बना हो। इसलिए मानव को सुंदर व मीठे फल के पीछे भागने में परिश्रम नहीं करना चाहिए। अपितु अपने दृष्टिकोण को ही इस स्तर पर ले जाना चाहिए, कि कड़वे फलों का अनुभव भी मीठा लगने लगे। लेकिन यह तब ही संभव है, जब आपके जीवन में भक्ति रूपी सीता जी का आगमन होगा। केवल मात्र आगमन ही नहीं, अपितु वे आप पर प्रसन्न हो जायें, और इतनी प्रसन्न हों, कि वरदानों की झड़ी लगा दें। माता सीता जी ने श्रीहनुमान जी से जब उनका भक्ति सूत्रें से ओत-प्रोत यह निवेदन सुना। तो वे बोलीं-
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‘सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।
परम सुभट रजनीचर भारी।।’
अर्थात हे पुत्र! तुम इन फलों को खा तो सकते हो। लेकिन एक समस्या है। वह समस्या यह कि इस वन की रखवारी, बड़े भारी राक्षस योद्धा करते हैं। जोकि निश्चित ही तुम्हें अपने प्रयोजन को सिद्ध करने में बाधा उत्पन्न करेंगे। सज्जनों यहाँ एक बात विचारणीय है, कि माता सीता जी ने रावण द्वारा निर्मित यह सुंदर अशोक वाटिका को कोई सुंदर व सुव्यवस्थित वाटिका ना बोलकर, महज एक वन की संज्ञा दी है। वन और एक वाटिका में बड़ा अंतर होता है। वाटिका को सुनियोजित तरीके से बनाया जाता है। उसमें व्यवस्थित बुवाई व क्यारियाँ इत्यादि बनाई जाती हैं। पानी देने के लिए सुंदर व उचित व्यवस्था की होती है। और सबसे महत्वपूर्ण बात कि संपूर्ण वाटिका के सुप्रबंध व रख रखाव के लिए, एक या एक से बढ़कर माली का होना अनिवार्य समझा जाता है। लेकिन वन में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती। न कोई क्यारियाँ होती हैं, और न ही माली द्वारा सिंचाई का कोई उचित प्रबंध। बस कहाँ कौन-सा पौधा उग गया, कोई पता ही नहीं चलता। कहीं कोई फूल खिल जाते हैं, तो कहीं अनगिनत काँटों के झाड़ देखने को मिलते हैं। माता सीता जी कहना चाह रही हैं, कि हे हनुमंत लाल! भले ही तुम्हारी भाँति, यह अशोक वाटिका समस्त जगत को एक सुंदर वाटिका ही प्रतीत हो। लेकिन सत्य तो यह है, कि मीठे फलों से लदी यह वाटिका, कुछ और नहीं, अपितु एक वन की ही दूसरी झाँकी है। और वनों में मीठे भासित होने वाले फल तो, अक्सर कड़वे व ज़हरीले ही निकलते हैं। लेकिन रावण जैसा माया का पुजारी, इन कड़वे फलों से लदे वन को ही सुंदर वाटिका का नाम दिये रखता है। और उसे अतिअंत मूल्यवान समझ, उसकी रखवाली में कोई एक या दो माली नहीं, अपितु असँख्य राक्षस योद्धा लगा रखे थे। यह कुछ यूँ था, जैसे एक बालक काँच की गोलियों को ही हीरे के तूल्य मूल्यवान मान रहा हो। और उन गोलियों को सँभाल-सँभाल कर रख रहा हो। और अगर उन गोलियों को कोई छूना भी चाहे, तो वह बालक उस व्यक्ति पर टूट ही पड़ता हो। रावण भी बस ऐसे ही भ्रम में जी रहा था। रावण का यूँ भ्रमित होना तो चलो यथोचित भी लगता है। लेकिन अगर श्रीहनुमान जी जैसे महाज्ञानी को भी इस अशोक वाटिका के फल सुंदर व मीठे प्रतीत हों, तो यह निश्चित ही भक्ति का प्रताप है। कारण कि जिस जीव के जीवन में भक्ति का आगमन हो जाता है, फिर उसे वन भी वाटिका का सुख देने लगते है। ओर उसके कड़वे फल भी मीठे प्रतीत होने लगते हैं।
क्या श्रीहनुमान जी फलों का सेवन करते हैं, अथवा कोई अन्य ही लीला करने लगते हैं? जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---
- सुखी भारती
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