Gyan Ganga: रावण भले भगवान शंकर का शिष्य था, पर हनुमानजी के रूप में शंकरजी ही तो सामने थे
माता सीता जी ने, श्रीहनुमान जी को साथ में शील का भी धनी बना डाला। कारण कि श्रीहनुमान जी ने, एक पति-पत्नी के मध्य प्रवाहित होने वाले संदेश को, जिस प्रकार मर्यादा व भक्ति भाव पूर्ण रखा, वह कतई विस्मरण योग्य नहीं था।
श्रीहनुमान जी भी बड़े लचीले स्वभाव वाले व दिव्य लीलाधारी हैं। पल में ही माता सीता जी के समक्ष विराट रूप में प्रगट हो गए। और पल में ही फिर से नन्हें रूप में आन पहुँचे। एक रावण है, कि माता सीता जी के समक्ष स्वयं को बड़ा ही होने का राग गाये जा रहा है। उसे यह ज्ञान ही नहीं, कि जो स्वयं सिद्ध आदि शक्ति हैं। जिनके प्रताप से समस्त शक्तियों का अस्तित्व है, भला उनके समक्ष, वह अपनी कौन-सी शक्ति का प्रदर्शन कर रहा है। सागर के समक्ष कोई बूँद अपनी विराटता व गहराई का गुणगान करे, तो उसके लिए, इससे बड़ी मूर्खता भला और क्या हो सकती है। लेकिन रावण तो रावण है, वह भला कहाँ रुकने वाला था। वह तो जब भी श्रीजानकी जी के समीप आता, केवल यही गुणगान करता कि संसार में उससे बड़ा तो कोई बलवान योद्धा ही नहीं है। मूर्ख को यह पल्ले ही नहीं पड़ रहा था, कि श्रीसीता जी ने उसके समक्ष समर्पण करना ही होता, तो वे कब की कर चुकी होती। लेकिन रावण को यह सब थोड़ी न समझ आ सकता था। कारण कि वह मात्र मूर्ख ही नहीं, अपितु महामूर्ख शिरोमणि था। बुद्धि व विवेक से एकदम शून्य बटे सन्नाटा। उसे इतना भी ज्ञान नहीं था, कि उसे अपने गुरु के कुछ तो गुण धारण करने ही चाहिए थे।
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रावण के गुरु निःसंदेह भगवान शंकर जी ही थे। और आज भगवान शंकर स्वयं, श्रीहनुमान जी के रूप में अवतार धारण कर लंका में पधारे थे। इस नाते श्रीहनुमान जी भी, रावण के गुरु ही तो थे। वे गुरु होकर, श्रीजानकी जी के श्रीचरणों में झुक सकते हैं और रावण का दुर्भाग्य देखिए, कि वह तो शिष्य होकर भी अकड़ा हुआ था। श्रीहनुमान जी का व्यक्तित्व तो देखिए। वे परिस्थितिवश भले ही बड़े हुये हों। लेकिन दूसरे ही क्षण, श्रीहनुमान जी अपने नन्हें अवतार में आ गए। माता सीता जी के हृदय में अब इस बात की तो ठंडक थी, कि चलो, श्रीहनुमान जी के माध्यम से प्रभु का संदेश व उनके आगमन की योजना निश्चित तो हो ही गई। साथ में यह भी स्पष्ट हो गया, कि प्रभु के साथ आने वाले वानर भी, कोई छोटे-मोटे योद्धा नहीं, अपितु महान बलवान थे। लेकिन श्रीहनुमान जी तो ठहरे श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ तपस्वी व पूर्ण संत। वे भला किसी साधक मन में, क्षुद्र से भी क्षुद्र आध्यात्मिक विकृति रहने देते हैं? जब सीता जी ने यह संतोष किया, कि श्रीराम जी के साथ आने वाले वानर भी, कोई कम बलवान नहीं हैं। तो श्रीहनुमान जी ने सोचा, कि अगर साधक अपने पर हो रही कृपा के लिए, प्रभु को कारण व आधार न मान कर, किसी अन्य को कर्ता मान बैठेगा, तो ऐसे में तो उसकी आध्यात्मिक उन्नति का आधार ही खोखला हो जायेगा। उसकी श्रद्धा व समर्पण तो कई हिस्सों में बँट जायेगा। वह प्रभु को अपनी संपूर्ण श्रद्धा, प्रेम व समर्पण तो दे ही नहीं पायेगा। निश्चित ही यह उसके लिए, निरा घाटे का सौदा सिद्ध होगा। ऐसे में इस प्रकार के काँटे को जितना शीघ्र हो सके, उतना शीघ्र निकाल ही देना चाहिए। श्रीहनुमान जी विनम्र भाव से हाथ जोड़ कर बोले-
‘सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।’
अर्थात हे माता! यह निश्चित है, कि वानरों में बल-बुद्धि कहाँ होती है। परन्तु प्रभु का तो प्रताप ही ऐसा है, कि बहुत लघु सर्प भी गरुड़ को खा जाता है। श्रीहनुमान जी के श्रीमुख से, माता सीता जी ने जैसे ही यह वाक्य सुनें। तो वे अथाह संताष से भर गई। और पाया कि श्रीहनुमान जी की वाणी भक्ति, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई है। और श्रीहनुमान जी जैसा, श्रेष्ठ भक्त शिरोमणि, युगों में कहीं विरला ही उदित होता है। माता जानकी जी ने, श्रीहनुमान जी को प्रभु का प्रिय जान कर, उन्हें आशीर्वाद दिया, कि हे हनुमंत लाल! तुम बल और शील के निधान होओ-
‘मन संतोष सुनत कपि बानी।
भगति प्रताप तेज बल सानी।।
आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना।।’
कितने महान आश्चर्य की बात है न? प्रभु श्रीराम जी ने, श्रीहनुमान जी को यही कहा था, कि आप लंका जाकर श्रीसीता जी को मेरे बल और बिरह का बखान करना। लेकिन किसी पता था, कि श्रीराम जी की यह तो मात्र एक लीला थी, श्रीहनुमान जी को माता सीता जी के माध्यम से बल प्रदान करने की। केवल बल ही नहीं। माता सीता जी ने, श्रीहनुमान जी को साथ में शील का भी धनी बना डाला। कारण कि श्रीहनुमान जी ने, एक पति-पत्नी के मध्य प्रवाहित होने वाले संदेश को, जिस प्रकार मर्यादा व भक्ति भाव पूर्ण रखा, वह कतई विस्मरण योग्य नहीं था। जिसका परिणाम यह निकला, कि श्रीहनुमान जी को माता सीता जी ने शील का भी अखण्ड उपहार दे दिया। केवल इतने पर बात रुकती, तो तब भी ठीक था। लेकिन आज तो एक माता का दुलार प्रगट हुआ था। भला उसकी सीमा कैसे हो सकती थी? माता सीता जी ने तो मानो आशीर्वाद की झड़ियां लगा दी-
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‘अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहु।।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमान।।’
अर्थात हे पुत्र! तुम अजर, अमर और गुणों के खजाने होओ। श्रीरघुनाथ जी तुम पर बहुत कृपा करें। श्रीहनुमान जी पर मानो आशीर्वादों का अँबार फूट पड़ा था। जिनको समेटने के लिए, श्रीहनुमान जी के पास, ऐसी पर्याप्त झोली ही नहीं थी। श्रीहनुमान जी क्या, संसार में किसी के पास भी ऐसी झोली नहीं है, कि आशीर्वादों की ऐसी घनी वर्षा को समेट पायें। ऐसी महान कृपायें पाकर कौन प्रसन्नता से झूम नहीं उठेगा। लेकिन श्रीहनुमान जी हैं, कि इतने वरदान पाकर भी वे ऐसे नहीं झूमें, जितने यह सुन कर झूम उठे, कि ‘प्रभु कृपा करें’ सुन कर झूमें। यह शब्द सुनते ही श्रीहनुमान जी प्रेम में मग्न हो गए। और माता जानकी जी को, बार-बार चरणों में सिर निवा रहे हैं। मानो अपने काम का आशीर्वाद तो उन्हें अब प्राप्त हुआ था। श्रीहनुमान जी हाथ जोड़ कर माता सीता जी को कहते हैं, कि हे माता! अब मैं कृतार्थ हो गया। आपका आशीर्वाद अमोघ है, यह बात संपूर्ण जगत में प्रसिद्ध है-
‘बार बार नाएसि पद सीसा।
बोला बचन जोरि कर कीसा।।
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता।।’
‘प्रभु कृपा करें’ वाक्य सुन कर, श्रीहनुमान जी क्यों इतने प्रसन्न हुए, इसके पीछे क्या कारण था। यह जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती
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