Gyan Ganga: परमात्मा के नाम की इतनी महिमा है, तो क्या परमात्मा के रूप की कोई महिमा नहीं
मान लीजिए आप बैंक में ही गये हैं, और वहाँ आपको अपना खाता खुलवाना है। वहाँ आप यह तो नहीं कह देंगे न, कि ‘मैं यहाँ आ गया बस। मेरी प्रथम प्रतिज्ञा ही यह है, कि मैं अपना नाम नहीं बताऊँगा। लेकिन तब भी आप मेरा खाता खोल दीजिए। इन नाम वाम के झंझट में मुझे नहीं पड़ना है।'
गोस्वामी तुलसीदास जी महिमा गान के पड़ावों में, अब जो महिमा गा रहे हैं, वह महिमा के मायने कुछ अलग हैं। कारण कि वैसे तो गोस्वामी जी केवल संतों, देवी-देवताओं व प्रभु के अवतारों की ही महिमा गाते हैं। कारण कि संपूर्ण जगत में इनसे बड़ा कोई है भी नहीं। लेकिन यह भी पूर्ण सत्य नहीं है। निश्चित ही देवों व अवतारों से भी बड़ा कोई है, जिसका कोई सानी ही नहीं है। जी हाँ! वह है प्रभु का पावन ‘नाम’।
बंदउँ नाम राम रघुवर को।
हेतु कृसानु भानु हिमकर को।।
अर्थात मैं रघुपति जी के नाम ‘राम’ की वंदना करता हुँ। जो अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा का बीज है।
महामंत्र जोइ जपत महेसू।
कासीं मुकुति हेतु उपदेसु।।
महिमा जासु जान गनराऊ।
प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ।।
अर्थात जो महामंत्र है, जिसे महेश्वर श्रीशिव जी जपते हैं, और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है, तथा जिसकी महिमा को गणेश जी जानते हैं, जो इस ‘राम’ नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं। ऐसे प्रभु के नाम की भला और किन शब्दों में महिमा गाई जाये।
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यहाँ पाठकों के मन में एक प्रश्न आ सकता है, कि अगर परमात्मा के नाम की इतनी महिमा है, तो क्या परमात्मा के रूप की कोई महिमा नहीं?
इसे समझने के लिए थोड़ा धैर्य की आवश्यक्ता है। गोस्वामी जी कहते हैं-
‘को बड़ छोट कहत अपराधू।
सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू।।
देखिअहिं रुप नाम आधीना।
रुप ग्यान नहिं नाम बिहीना।।’
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं, कि मैं किसे छोटा कहुँ, और किसे बड़ा? मैं दोनों में छोटे अथवा बड़े की तुलना करुँगा, तो यह बड़ा अपराध हो जायेगा। लेकिन जो साधु होते हैं, वे इस भेद को समझ लेते हैं। साधारण शब्दों में समझना चाहें, तो हम बता देते हैं, कि किसी का भी रूप उसके नाम के आधीन होता है। किसी के रूप के दर्शन करने हों, तो आपको नाम का ही सहारा लेना पड़ता है। जैसे मान लीजिए, कि आपका भाई दीवार के उस पार है। आप चाहते हैं, कि वह अपना चेहरा अर्थात रूप लेकर आपके सामने उपस्थित हो। तो निश्चित ही आप अपने भाई के रूप को देखने के लिए, उसके नाम का उच्चारण करेंगे। परिणाम यह होगा, कि अगले ही पल आपका भाई अपने रूप को लेकर, आपके समक्ष प्रस्तुत होगा।
आप स्वयं के ही संदर्भ में लेकर देख लीजिए। आप कहीं बैंक, स्कूल अथवा किसी भी स्थान पर जाते हैं। सर्वप्रथम यह बात तो स्पष्ट है, कि आप अपना रुप लेकर ही वहाँ पहुँचते हैं। आप अपने रूप को वहाँ प्रस्तुत करते हुए अपना क्या परिचय देते हैं? क्या आप यह कहते हैं, कि मैं आया हुँ, यह मेरा रूप है, मैं ऐसा दिख रहा हुँ, कृपया मेरा यह काम कर दीजिए।
सामने वाला आपके इस वाक्य से थोड़ा हैरान हो जायेगा। वह कहेगा, ‘ठीक है श्रीमान! आप आये हैं। आपका स्वागत है। लेकिन कृपया आप यह बताने का कष्ट करेंगे, कि आप कौन हैं? अर्थात क्या आप अपना नाम बताने की कृपा करेंगे?’
उत्तर में क्या आप यह कहते हैं, कि ‘नहीं जी मेरे नाम से आपको क्या मतलब? मैं अपने रुप सहित यहाँ उपस्थित हूं, आपको मेरे नाम से क्या लेना देना?’
आपका उत्तर सुनकर, अवश्य ही प्रश्नकर्ता आपको अज्ञानी की श्रेणी में डाल देगा। क्योंकि आप भले ही अपना रूप लेकर वहाँ उपस्थित हों। लेकिन आपकी पहचान तो आपके नाम से ही होगी। आपसे आपका नाम ही पूछा जायेगा।
मान लीजिए आप बैंक में ही गये हैं, और वहाँ आपको अपना खाता खुलवाना है। वहाँ आप यह तो नहीं कह देंगे न, कि ‘मैं यहाँ आ गया बस। मेरी प्रथम प्रतिज्ञा ही यह है, कि मैं अपना नाम नहीं बताऊँगा। लेकिन तब भी आप मेरा खाता खोल दीजिए। इन नाम वाम के झंझट में मुझे नहीं पड़ना है।’
आप जानते हैं, कि ऐसे आपका खाता नहीं खुलेगा। आपका केवल अपना रुप प्रस्तुत करने से काम नहीं चलेगा। आपको रूप के साथ-साथ अपना नाम भी प्रगट करना होगा। एक बार आपका नाम बैंक खाते में चढ़ गया, उसके बाद आप भले ही अपने रूप को अपने घर में रखें, बैंक में ना जायें, तब भी आपका नाम ही, आपके पैसों के लेन देन के लिए काफी है। आप चैक पर केवल अपने नाम के हस्ताक्षर करके ही भेज देंगे, तो आपको पैसे प्राप्त हो सकते हैं।
इस छोटे से उदाहरण से आप इतना तो समझ ही गये होंगे, कि जितना महत्वपूर्ण आपका रूप नहीं, उससे भी बढ़कर तो आपके नाम का मूल्य है। आप किसी स्थान पर नहीं भी हैं, लेकिन किसी ने कह दिया, कि मुझे इस नाम के श्रीमान ने भेजा है, तो सामने वाला व्यक्ति तुरंत क्रियाशील हो जाता है। आपके लिए कुर्सी भी छोड़ देता है। आपको कहता भी है, कि आपने पहले ही ‘साहब’ का नाम बता दिया होता, तो आपको यूँ परेशान न होना पड़ता। हालाँकि वे साहब, अपना रुप लेकर स्वयं उस स्थान पर नहीं पहुँचे, बस अपना नाम भर वहाँ पहुँचाया था। इसका अमित प्रभाव देखिए, कि आपका काम हो गया। ऐसे में आप स्वयं ही निर्णय कीजिए, कि आप बड़े हुए, अथवा आपका नाम बड़ा हुआ? ठीक इसी प्रकार से जो महत्व प्रभु के नाम का है, वह प्रभु के रूप का नहीं है।
बहुत चिंतन करने पर आप पायेंगे, कि आपके रुप का भी महत्व है, लेकिन आपके नाम का जो महत्व है, उसका कोई मुकाबला नहीं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-
‘राम एक तापस तिय तारी।
नाम कोटि खल कुमति सुधारी।।’
अर्थात अवध में जन्में श्रीराम जी ने तो एक अहल्या नामक ऋर्षि पत्नि का कल्याण किया था। लेकिन नाम ने तो करोड़ों बिगड़े दिमागों वाले दुष्टों की बुद्धि को सुधार दिया।
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ।
भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ।।
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई।
रामु न सकहिं नाम गुन गाई।।
अर्थात नीच अजामिल, गज और गणिका भी श्रीहरि का नाम लेकर संसार से मुक्त हो गये। मैं नाम की कहाँ तक बढ़ाई करूं, राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते।
प्रभु के नाम को लेकर और भी दिव्य पक्ष हैं। जिनकी चर्चा हम आने वाले अंकों में करेंगे। (क्रमशः)---जय श्रीराम
-सुखी भारती
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