मरुस्थलीकरण और सूखा: दुनिया के समक्ष बड़ी चुनौती
वनीकरण को प्रोत्साहन इस समस्या से निपटने में सहायक हो सकता है, कृषि में रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर जैविक उर्वरकों का प्रयोग सूखे को कम करता है। फसल चक्र को प्रभावी रूप से अपनाना और सिंचाई के नवीन और वैज्ञानिक तरीकों को अपनाना जैसे बूँद-बूँद सिंचाई, स्प्रिंकलर सिंचाई आदि।
मरुस्थलीकरण जमीन के खराब होकर अनुपजाऊ हो जाने की ऐसी प्रक्रिया होती है, जिसमें जलवायु परिवर्तन तथा मानवीय गतिविधियों समेत अन्य कई कारणों से शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और निर्जल अर्द्ध-नम इलाकों की जमीन रेगिस्तान में बदल जाती है। अतः जमीन की उत्पादन क्षमता में कमी और ह्रास होता है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने 'विश्व मरुस्थलीकरण एवं सूखा रोकथाम दिवस' पर अपने वीडियो संदेश में सचेत किया है कि दुनिया हर साल 24 अरब टन उपजाऊ भूमि खो देती है। उन्होंने कहा कि भूमि की गुणवत्ता ख़राब होने से राष्ट्रीय घरेलू उत्पाद में हर साल आठ प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है। भूमि क्षरण और उसके दुष्प्रभावों से मानवता पर मंडराते जलवायु संकट के और गहराने की आशंका है।
मरुस्थलीकरण की चुनौती-
मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखा बड़े ख़तरे हैं जिनसे दुनिया भर में लाखों लोग, विशेषकर महिलाएं और बच्चे, प्रभावित हो रहे हैं। इस तरह के रुझानों को "तत्काल" बदलने की आवश्यकता है क्योंकि इस से मजबूरी में होने वाले विस्थापन में कमी आ सकती है, खाद्य सुरक्षा सुधर सकती है और आर्थिक विकास को बढ़ावा मिल सकता है। साथ ही यह "वैश्विक जलवायु इमरजेंसी को दूर करने में भी मदद कर सकती है।
मरुस्थलीकरण की चुनौती से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयासों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से इस दिवस को 25 साल पहले शुरू किया गया था जो हर साल 17 जून को मनाया जाता है। मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र संधि क़ानूनी रूप से बाध्यकारी एकमात्र अंतरराष्ट्रीय समझौता है जो पर्यावरण और विकास को स्थायी भूमि प्रबंधन से जोड़ता है।
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दिवस का महत्व-
2019 में इस विश्व दिवस पर ‘लेट्स ग्रो द फ़्यूचर टुगेदर’ का नारा दिया गया है और इसमें तीन प्रमुख मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया सूखा, मानव सुरक्षा और जलवायु। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक़ 2025 तक दुनिया के दो-तिहाई लोग जल संकट की परिस्थितियों में रहने को मजबूर होंगे। उन्हें कुछ ऐसे दिनों का भी सामना करना पड़ेगा जब जल की मांग और आपूर्ति में भारी अंतर होगा। ऐसे में मरुस्थलीकरण के परिणामस्वरूप विस्थापन बढ़ने की संभावना है और 2045 तक करीब 13 करोड़ से ज़्यादा लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ सकता है।
उल्लेखनीय है कि भारत में 29.3 प्रतिशत भूमि क्षरण से प्रभावित है। मरुस्थलीकरण व सूखे की बढ़ती भयावहता को देखते हुए इससे मुकाबला करने के लिए वैश्विक स्तर पर जागरूकता के प्रसार की आवश्यकता महसूस की गई। उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा में 1994 में मरुस्थलीकरण रोकथाम का प्रस्ताव रखा गया जिसका अनुमोदन दिसम्बर 1996 में किया गया। वहीं 14 अक्टूबर 1994 को भारत ने मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (यूएनसीसीडी) पर हस्ताक्षर किये। जिसके पश्चात् वर्ष 1995 से मरुस्थलीकरण का मुकाबला करने के लिए यह दिवस मनाया जाने लगा।
मरुस्थलीकरण के अनेक कारण हैं-
मानव निर्मित कारणों में घास-फूस की अधिक चराई, उत्पादकता और जैव-विविधता को कम करता है। 2005 और 2015 के बीच भारत ने 31% घास के मैदान खो दिये। वनों की कटाई से ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव में वृद्धि तो होती है साथ ही धरती अपना परिधान लूटा देती है, 'काटो और जलाओ’ कृषि पद्धति मिट्टी के कटाव के खतरे को बढ़ाती है। उर्वरकों का अतिप्रयोग और अतिवृष्टि मिट्टी की खनिज संरचना को असंतुलित करते हैं। जलवायु परिवर्तन तापमान, वर्षा, मरुस्थलीकरण को बढ़ा सकता है। प्राकृतिक आपदाएँ जैसे- बाढ़, सूखा, भूस्खलन, पानी का क्षरण, पानी का कटाव उपजाऊ मिट्टी का विस्थापन कर सकता है। हवा द्वारा रेत का अतिक्रमण भूमि की उर्वरता को कम करता है जिससे भूमि मरुस्थलीकरण के लिये अतिसंवेदनशील हो जाती है।
भारत की वर्तमान स्थिति-
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मरुस्थलीकरण भारत की प्रमुख समस्या बनती जा रही है। दरअसल इसकी वजह करीब 30 फीसदी जमीन का मरुस्थल में बदल जाना है। उल्लेखनीय है कि इसमें से 82 प्रतिशत हिस्सा केवल आठ राज्यों राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू एवं कश्मीर, कर्नाटक, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा जारी "स्टेट ऑफ एनवायरमेंट इन फिगर्स 2019" की रिपोर्ट के मुताबिक 2003-05 से 2011-13 के बीच भारत में मरुस्थलीकरण 18.7 हेक्टेयर तक बढ़ चुका है। वही सूखा प्रभावित 78 में से 21 जिले ऐसे हैं, जिनका 50 फीसदी से अधिक क्षेत्र मरुस्थलीकरण में बदल चुका है। भारत का 29.32 फीसदी क्षेत्र मरुस्थलीकरण से प्रभावित है। इसमें 0.56 फीसदी का बदलाव देखा गया है। गौरतलब है कि गुजरात में चार जिले ऐसे हैं, जहाँ मरुस्थलीकरण का प्रभाव देखा जा रहा है, इसके अलावा महाराष्ट्र में 3 जिले, तमिलनाडु में 5 जिले, पंजाब में 2 जिले, हरियाणा में 2 जिले, राजस्थान में 4 जिले, मध्यप्रदेश में 4 जिले, गोवा में 1 जिला, कर्नाटक में 2 जिले, केरल में 2 जिले, जम्मू कश्मीर में 5 जिले और हिमाचल प्रदेश में 3 जिलों में मरुस्थलीकरण का प्रभाव है।
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2019 में विश्व मरुस्थलीकरण एवं सूखा रोकथाम दिवस के अवसर पर आयोजित समारोह के दौरान भारत ने पहली बार ‘संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन’ से संबंधित पक्षकारों के सम्मेलन के 14वें सत्र की मेज़बानी की। इस बैठक का आयोजन 29 अगस्त से 14 सितंबर, 2019 के बीच और दिल्ली में किया गया। भारत में भूमि के क्षरण से देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 30 प्रतिशत प्रभावित हो रहा है। भारत लक्ष्यों को प्राप्त करने के साथ-साथ इस समझौते के प्रति संकल्पबद्ध है। मिट्टी के क्षरण को रोकने में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, प्रति बूंद अधिक फसल जैसी भारत सरकार की विभिन्न योजनाएँ काम कर रही हैं।
निवारण के उपाय-
वनीकरण को प्रोत्साहन इस समस्या से निपटने में सहायक हो सकता है, कृषि में रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर जैविक उर्वरकों का प्रयोग सूखे को कम करता है। फसल चक्र को प्रभावी रूप से अपनाना और सिंचाई के नवीन और वैज्ञानिक तरीकों को अपनाना जैसे बूँद-बूँद सिंचाई, स्प्रिंकलर सिंचाई आदि। मरुस्थलीकरण के बारे में जागरूकता बढ़ाएँ और वृक्षारोपण को बढ़ाया जाना चाहिये। धरती पर वन सम्पदा के संरक्षण के लिए वृक्षों को काटने से रोका जाना चाहिए इसके लिए सख्त कानून का प्रावधान किया जाना चाहिए। साथ ही रिक्त भूमि पर, पार्कों में सड़कों के किनारे व खेतों की मेड़ों पर वृक्षारोपण कार्यक्रम को व्यापक स्तर पर चलाया जाए।
जरूरत इस बात की भी है कि इन स्थानों पर जलवायु अनुकूल पौधों-वृक्षों को उगाया जाए। मरुस्थलीकरण से बचाव के लिए जल संसाधनों का संरक्षण तथा समुचित मात्र में विवेकपूर्ण उपयोग काफी कारगर भूमिका अदा कर सकती है। इसके लिए कृषि में शुष्क कृषि प्रणालियों को प्रयोग में लाने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। मरुभूमि की लवणता व क्षारीयता को कम करने में वैज्ञानिक उपाय को महत्व दिया जाना चाहिए।ग्रामीण क्षेत्रों में स्वतः उत्पन्न होने वाली अनियोजित वनस्पति के कटाई को नियंत्रित करने के साथ ही पशु चरागाहों पर उचित मानवीय नियंत्रण स्थापित करना चाहिए।
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आगे की राह-
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को स्थिर करने, वन्यजीव प्रजातियों को बचाने और समस्त मानव जाति की रक्षा के लिये मरुस्थलीकरण को समाप्त करना होगा। जंगल की रक्षा करना हम सबकी ज़िम्मेदारी है और दुनिया भर के लोगों और सरकारों को इसे निभाना चाहिये। मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखा बड़े खतरे हैं, जिससे दुनिया भर में लाखों लोग, विशेषकर महिलाएँ और बच्चे प्रभावित हो रहे हैं। ऐसे में इस समस्या का तत्काल समाधान आज वक्त की माँग हो गई है। चूँकि इस समाधान से जहाँ भूमि संरक्षण और उसकी गुणवत्ता बहाल होगी, वहीं विस्थापन में कमी आयेगी, खाद्य सुरक्षा सुधरेगी और आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलने के साथ वैश्विक जलवायु परिवर्तन से संबंधित समस्याओं से निजात मिल सकेगा।
मरुस्थलीकरण व सूखा से मुकाबला करने के लिए विश्व मरुस्थलीकरण रोकथाम दिवस, वैश्विक स्तर पर जन-जागरूकता फैलाने का ऐसा प्रयास है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग की अपेक्षा की जाती है। विश्व बंधुत्व की भावना के साथ इसमें भागीदारी सुनिश्चित करना धरती तथा पर्यावरण को बचाने में सार्थक प्रयास साबित हो सकता है।
-प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार
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