महज रस्म-अदायगी तक सीमित न रहे ‘हिंदी दिवस'

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हिंदी दिवस हो या कोई अन्य आयोजन, कागजी तौर पर बेशक हिंदी को बढ़ावा देने की बातें कहीं जाती हों, पर हिंदी एक सीमित वर्ग मात्र तक ही सिमटती जा रही है। गरीब, कामगार व ग्रामीणों तक ही सीमित होती जा रही है।

भाषा के बूते ही देश की संस्कृति और उसकी सभ्यता का निर्माण होता है। भारतीय संस्कृति, प्राचीन काल से ही ‘हिंद, हिंदी और हिंदुस्तां’ से सुशोभित रही है। इस तल्ख़ सच्चाई से हमें कभी मुंह नहीं फेरना चाहिए कि अब हिंदी के मुकाबले अंग्रेजी का कितना बोलबाला है? हमें इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि मल्टीनेशनल कंपनियों, कॉनवेंट स्कूलों और सुप्रीम कोर्ट-हाई कोर्ट में हिंदी बोली तकरीबन सिमट गई है। वैसे, हिंदी की जो दुर्दशा है, उसका बड़ा कारण, खुद हिंदी समाज ही है। उसका पाखंड, उसका दोगलापन और उसका उनींदापन? सच ये भी है कि पश्चिमी भाषाएं कितनी भारतीयों पर हावी क्यों न हो? पर हिंदी आज भी मजलूमों और पिछड़े वर्गों का निर्माण करती है। शिक्षित वर्ग धीरे-धीरे हिंदी से अलग हो जाता है। लाज सिर्फ ग्रामीणों ही बचा पा रहे हैं। वो अब भी हिंदी को पूजते, मानते और बोलते हैं। हिंदी के मुकाबले अंग्रेजी को उतना भाव नहीं देते। अंग्रेजी का हम विरोध नहीं करते, लेकिन उसकी आड़ में हिंदी की खिल्लियां भी नहीं उड़ाई जानी चाहिए। वैश्वीकरण और उदारीकरण में हिंदी अपने बुरे दौर से गुजर रही है।

हिंदी दिवस हो या कोई अन्य आयोजन, कागजी तौर पर बेशक हिंदी को बढ़ावा देने की बातें कहीं जाती हों, पर हिंदी एक सीमित वर्ग मात्र तक ही सिमटती जा रही है। गरीब, कामगार व ग्रामीणों तक ही सीमित होती जा रही है। वहीं, अंग्रेजी का जिस तेज गति से विस्तार बीते एकाध दशकों में हुआ है उसने हिंदी के समझ मानो कांटे बिछा दिए हैं। 2014 में जब केंद्र में नई कुहूमत आई, तो उसने हिंदी के चलन को लेकर अप्रत्याशित कदम उठाए। सभी मंत्रालयों में हिंदी को अपनाने का आदेश दिया। बड़ा अभियान छेड़ा गया। कुछ महीनों तक इस अभियान का जोर सरकारी विभागों और मंत्रालयों में दिखाई पड़ा, लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, अभियान भी फीका पड़ गया। पर, कोशिशें ईमानदार और बेहतरीन थीं, लेकिन उसे यथावत नहीं रखा जा सका। दरअसल, धनाढ्य और विकसित वर्ग ने जबसे अंग्रेजी को संपर्क भाषा के तौर पर अपनाना शुरू किया, तभी से हिंदी के दिन लदने शुरू हुए। इसमें किसी और का दोष नहीं, हम खुद जिम्मेदार हैं।

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अंग्रेजी की बढ़ती धमक से अब एक दैनिक दिहाड़ी मजदूर भी वाकिफ है। तभी, वह भी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाना चाहता है। ये ऐसा फर्क है, जिसे आसानी से कम नहीं किया जा सकेगा। करीब 9 वर्ष पूर्व केंद्र सरकार की पहल पर जब वित्त मंत्रालय जैसे विभागों में अंग्रेजी के जगह हिंदी में कामकाज होना शुरू हुआ, तो देखकर आश्चर्य हुआ। लेकिन बाद में फिर वही ‘ठाक के तीन पात’ साबित हुए। हिंदी को सहेजने और उसे बचाने के लिए केंद्र सरकार के अभियान के साथ-साथ समाज को भी गंभीर होना होगा। अभियान को जन आंदोलन में तब्दील करना होगा। सरकारी स्तर पर तकरीबन मंत्रालयों में बोलचाल व पठन-पाठन में हिंदी का इस्तेमाल हो। हिंदी बोलने में किसी को शर्म न आए, क्योंकि ये हमारी देशी भाषा है। इस भाषा को बढ़ाने के लिए सभी को आगे आना होगा। आज ‘हिंदी दिवस’ है, सभी संकल्पित हों, सिर्फ रस्म अदायगी तक सीमित न रहे ये खास दिवस। दूसरी बात एक ये? शुद्ध हिंदी बोलने वालों को देहाती व गंवार न समझा जाए।

  

बीपीओ व बड़ी-बड़ी कंपनियों में हिंदी जुबानी लोगों के लिए नौकरी नहीं हैं, होनी चाहिए ऐसी व्यवस्थाएं बनें। इसी बदलाव के चलते मौजूदा वक्त में देश का हर दूसरा आदमी अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने को मजबूर है। इस प्रथा को बदलने की दरकार है। वैसे, ये काम हमें पूर्णताः हुकूमतों पर भी नहीं छोड़ना चाहिए। हमें खुद भी सामाजिक ज़िम्मेदारी को समझना चाहिए। वह वक्त दूर नहीं, जब इस भाषा को बचाने के लिए भी जनांदोलन करना पड़ेगा? क्योंकि हिंदी के वर्चस्व को बचाने के लिए बड़ा संकट सामने खड़ा होता जा रहा है। करीब छोटे-बड़े दैनिक, साप्ताहिक और अन्य समयाविधि वाले 4950 से भी अधिक अखबार भारत में रोजाना प्रकाशित होते हैं और 15 से 20 हजार के करीब पत्रिकाएं छपती हैं। वहीं, 400-450 से भी ज्यादा अब हिंदी चैनल मौजूद हैं। बावजूद इसके हिंदी लगातार पिछड़ रही है।

हिंदी के पिछड़ने के कुछ कारण पानी की तरह साफ हैं। जबसे पश्चिमी सभ्यता भारतीयता पर सवार हुई है, तभी से हिंदी लोगों की नजरों में दरिद्र हो गई। दिल्ली के शाहदरा इलाके में संचालित एक अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने वाला छात्र जब सुबह अपने अध्यापक को ‘राम राम’ बोल देता है, तो उसका नाम काट दिया जाता है। हिंदुस्तान में एक वर्ग ऐसा है जो हिंदी को गुलामी की भाषा मानता हैं। यही कारण है कि जितनी दुर्दशा हिंदी की है, उतनी किसी दूसरी भाषा की नहीं? जबकि, हिंदी को विदेशों में बहुत तरजीह दी जाने लगी है। विभिन्न देशों के कॉलेजों में हिंदी की पढ़ाई होती है। इसमें संदेह है कि कहीं, ऐसा न हो विदेशी लोग हिंदी भाषा सीखने के बाद भारत में घुसपैठ करने की फिराक में हों? जब वह हिंदी बोल और समझ लेंगे तब वह आसानी से यहां घुस सकेंगे। हमें सतर्क रहने की जरूरत है। हिंदी के साथ अन्याय न हो, प्रचार-प्रसार में तेजी लानी चाहिए। हालांकि, हिंदी अपने आप में बहुत ताकतवर भाषा है, आसानी से उसका कोई बाल बांका नहीं कर सकता। चार मिटाने वाले हैं तो 400 बचाने वाले भी मौजूद हैं।

- डॉ. रमेश ठाकुर

सदस्य, राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान (NIPCCD), भारत सरकार!

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