पहले पिता...फिर चाचा...अखिलेश यादव आखिर अपने बड़ों के अनुभव का सम्मान क्यों नहीं करते?
वैसे शिवपाल यादव की भाजपा में इंट्री की खबर तब से शुरू हुई है, जबसे पहले दिल्ली में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह से और फिर लखनऊ में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से उन्होंने मुलाकात की है। हालांकि इसकी अभी तक कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की गई है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की सरगर्मिंया खत्म हो गई हैं। राजनीति की आक्रामकता काफी हद तक ठहर गई है। थोड़ी बहुत गहमागहमी अगर है तो विधान परिषद के चुनाव को लेकर है, इसके अलावा इस समय सत्ता के गलियारों में सबसे अधिक शिवपाल यादव फैक्टर गूंज रहा है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने जिस तरह से चाचा शिवपाल के साथ ‘यूज एंड थ्रो’ वाली राजनीति की है, उससे शिवपाल का पारा सातवें आसमान पर है और संभवतः अब शिवपाल यादव मुड़ कर समाजवादी पार्टी की ओर देखना पसंद नहीं करेंगे। चुनाव बाद अखिलेश से शिवपाल की नाराजगी तब देखने को मिली, जब उन्होंने (अखिलेश) शिवपाल यादव को अपनी पार्टी का विधायक ही मानने से इंकार कर दिया, जबकि शिवपाल साइकिल चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़े और जीते थे, लेकिन सपा नेता शिवपाल को सहयोगी दल का नेता बता रहे थे। अखिलेश-शिवपाल के बीच दूरियां बढ़ने के साथ ही लगभग तय माना जा रहा है कि शिवपाल को अपनी सियासत बचाने और अपने बेटे के लिए सियासी मुकाम हासिल करने के लिए कोई न कोई कड़ा कदम उठाना ही पड़ेगा, जो समाजवादी पार्टी के साथ चलने से इतर होगा तो यह भी तय है कि अपनी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के सहारे भी वह राजनीति की पथरीली राह पर नहीं दौड़ या चल सकते हैं। शिवपाल के पास राजनीति का अनुभव और जनता के बीच पकड़ भले हो, लेकिन आर्थिक संसाधनों की काफी कमी है जो आज की राजनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसके बिना कोई चुनाव जीतना आसान नहीं है। इसीलिए शिवपाल को लेकर तमाम तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं कि उनका भविष्य कैसे और कहां सुरक्षित रहेगा। दरअसल, विधान सभा चुनाव के नतीजे आने के बाद जब योगी ने सत्ता ग्रहण की तो इस बात की अटकलें लगनी शुरू हो गई थीं कि विपक्षी पार्टी सपा के मुखिया अखिलेश यादव अपने चाचा शिवपाल यादव को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बना सकते हैं और स्वयं केन्द्र की राजनीति करते रहेंगे। यानी लोकसभा की सदस्यता ही अपने पास रखेंगे, परंतु अखिलेश ने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर स्वयं नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी अपने लिए सुरक्षित कर ली। इससे पहले शिवपाल यादव चुनाव में अखिलेश द्वारा उन्हें कोई अहमियत नहीं दिए जाने से और उनके समर्थकों को एक भी टिकट नहीं देने से भी नाराज थे, यहां तक कि अखिलेश ने अपने चचेरे भाई और शिवपाल के बेटे आदित्य यादव को भी टिकट नहीं दिया था। इसी के चलते अब शिवपाल यादव ने अलग राह पकड़ ली है।
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सबसे अधिक चर्चा शिवपाल के भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में जाने को लेकर हो रही है। वही भाजपा जिसके विरोध के सहारे उन्होंने अपने राम (मुलायम सिंह यादव) के साथ ‘हनुमान’ बनकर समाजवादी पार्टी को सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाया था, जिनकी राजनीति की धुरी अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के विरोध पर केन्द्रित थी। मुलायम राज में अयोध्या में 1990 में कारसेवकों पर जो गोलियां बरसाईं गई थीं, उसके छीटें शिवपाल यादव के भी दामन पर पड़े थे यह और बात है कि अब यह छींटे दिखाई नहीं देते हैं। शिवपाल की पहचान सपा में रहते मुस्लिम तुष्टिकरण की सियासत को आगे बढ़ाने के लिए भी की जाती है। यदि शिवपाल यादव के बीजेपी में जाने की बात सही है तो यह बात और पुख्ता हो जाती है कि राजनीति में कोई किसी का स्थाई तौर पर दोस्त या दुश्मन नहीं होता है। वैसे भी मुलायम कुनबे के कई लोग भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण करके उसकी ‘शान’ बढ़ा रहे हैं।
वैसे शिवपाल यादव की भाजपा में इंट्री की खबर तब से शुरू हुई है, जबसे पहले दिल्ली में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह से और फिर लखनऊ में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से उन्होंने मुलाकात की है। हालांकि इसकी अभी तक कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की गई है। चर्चा है कि शिवपाल यादव ने दिल्ली में गृहमंत्री अमित शाह से उसके बाद 30 मार्च को लखनऊ में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात की थी। सीएम योगी और शिवपाल यादव की इस मुलाकात के बाद से सियासी गलियारों में शिवपाल यादव के बीजेपी में आने की चर्चाओं का दौर तेज हो गया है। सूत्र बताते हैं कि इटावा से दिल्ली जाने के दौरान शिवपाल ने मुलायम के समधी और पूर्व विधायक एवं भाजपा नेता हरिओम यादव से भी मुलाकात की थी। हरिओम ने चुनाव से पूर्व बीजेपी की सदस्यता ग्रहण की थी।
बहरहाल, शिवपाल यादव की बीजेपी नेताओं से नजदीकी को सत्ता के गलियारों में भविष्य में होने वाले विधान परिषद और राज्यसभा चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है। वहीं कहा यह भी जा रहा है कि बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व शिवपाल यादव को ठीक उसी तरह से विधान सभा उपाध्यक्ष की कुर्सी पर भी बैठा सकता है, जैसे ऐन चुनाव से पूर्व उसने समाजवादी नेता नितिन अग्रवाल को विधान सभा का उपाध्यक्ष बना दिया था। यह और बात थी कि नितिन के उपाध्यक्ष रहते विधान सभा की कोई बैठक नहीं हुई थी। नितिन अग्रवाल वरिष्ठ भाजपा नेता नरेश अग्रवाल के पुत्र हैं। उन्होंने वर्ष 2017 का विधानसभा चुनाव समाजवादी पार्टी से टिकट पर हरदोई से लड़ा था और विधायक चुने गए थे, लेकिन पार्टी में अनदेखी के चलते नितिन की समाजवादी पार्टी से दूरियां और नाराजगी बढ़ती गई। भाजपा ने नितिन की इस नाराजगी को सियासी रंग में रंग कर उन्हें चुनाव से करीब दो माह पूर्व विधानसभा उपाध्यक्ष बना दिया था और चुनाव से पहले नितिन अग्रवाल ने यूपी विधानसभा उपाध्यक्ष के साथ ही समाजवादी पार्टी की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया। इसके बाद वह बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़े और जीते। योगी ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल करके मंत्री बना दिया। मुलायम की छोटी बहू अपर्णा यादव पहले ही भाजपा में आ चुकी हैं।
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सूत्र बताते हैं कि बीजेपी शिवपाल के सहारे समाजवादी पार्टी के मजबूत यादव वोट बैंक में सेंधमारी करने का सपना पाले हुए है। शिवपाल आज भले ही सियासी हाशिये पर दिखाई दे रहे हों, लेकिन उनके राजनैतिक कौशल का लोहा बड़े-बड़े मानते हैं। शिवपाल को यदि भाजपा का साथ मिल गया तो वह यादव वोटरों को बीजेपी के पक्ष में लाकर अखिलेश की सियासी ‘कमर' तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वैसे भी यादव वोटर समामवादी पार्टी से दूर होता जा रहा है। शिवपाल के सहारे बीजेपी मुस्लिम वोटरों को भी अपने पाले में खींच सकती है। शिवपाल की मुस्लिमों के बीच अच्छी खासी पैठ है। वैसे चर्चा यह भी है कि बीजेपी शिवपाल को आजमगढ़ से लोकसभा का उप-चुनाव भी लड़ा सकती है। उधर, तमाम किन्तु परंतुओं के बीच शिवपाल की बीजेपी से नजदीकी को लेकर शिवपाल सहित भाजपा और सपा के नेता कुछ भी बोलने को तैयार नहीं हैं। मीडिया के काफी कुरेदने पर शिवपाल यादव इतना ही कहते हैं कि वह जल्द अपने सियासी भविष्य को लेकर खुलासा कर देंगे। कुल मिलाकर लगता है कि चाचा शिवपाल यादव ने भतीजे अखिलेश से दो-दो हाथ करने का मन बना लिया है, इसमें नुकसान किसको होगा। यह समय ही बताएगा। फिलहाल तो चाचा-भतीजे की लड़ाई का सबसे अधिक नुकसान समाजवादी पार्टी को ही होता दिख रहा है।
-अजय कुमार
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