कोरोना संक्रमण के आंकड़ों को अलग चश्मे से देखने की जरूरत
हर मुद्दे पर लगातार हो रही राजनीति के बीच कोई भी राज्य सरकार यह नहीं चाहती है कि मरीजों की संख्या में वो नंबर वन पर रहे। राज्य मुख्यालय का यह दबाव जिला मुख्यालयों तक पहुंचता है और फिर आम आदमी की मुसीबतें शुरू हो जाती हैं।
देश भर में कोरोना संक्रमण से पीड़ित मरीजों की संख्या 3 लाख के आंकड़े को पार कर गई है। आंकड़ों के हिसाब से ही देखा जाए तो मरीजों की संख्या के आधार पर महाराष्ट्र में कोरोना मरीजों की संख्या सबसे ज्यादा है और यह राज्य इस मामले में पहले नंबर पर है। दूसरे नंबर पर तमिलनाडु, तीसरे नंबर पर देश की राजधानी दिल्ली, चौथे नंबर पर गुजरात और पांचवें नंबर पर देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और हरियाणा भी कोरोना पीड़ित मरीजों की संख्या के मामले में टॉप टेन पीड़ित राज्यों की लिस्ट में शामिल हैं। हम बार-बार इस आंकड़ों की बात इसलिए कर रहे हैं कि इसकी वजह से तमाम राज्य सरकारें दबाव में हैं और इसी की वजह से कोविड 19 का टेस्ट कराने वालों की मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही है।
सुप्रीम कोर्ट की फटकार के मायने और दिल्ली सरकार का जवाब
इस आंकड़ेबाजी का सुप्रीम कोर्ट के आदेश के साथ क्या संबंध है, यह जानने के लिए हमें सुप्रीम कोर्ट के आदेश और दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य मंत्री के जवाब का विश्लेषण करना चाहिए। शुक्रवार को देश की सर्वोच्च अदालत ने कम जांच पर दिल्ली सरकार को फटकार लगाते हुए पूछा था कि दिल्ली में कोरोना जांच की संख्या रोजाना 7 हजार से घटाकर 5 हजार क्यों कर दिया गया जबकि मुंबई और चेन्नई जैसे शहर रोज 17 हजार तक जांच कर रहे हैं।
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इसके जवाब में दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया उत्तर प्रदेश की जनसंख्या से तुलना करते हुए टेस्ट के मामले में दिल्ली के रिकॉर्ड को यूपी से 10 गुना ज्यादा बेहतर बता रहे हैं। सबसे दिलचस्प जवाब तो दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन की तरफ से आया है। जैन यह कह रहे हैं कि ICMR की गाइडलाइन के आधार पर ही टेस्ट हो रहे हैं और अगर ज्यादा टेस्ट करवाने हैं तो ICMR से कह दीजिए कि टेस्ट को ओपन कर दें ताकि जो टेस्ट करवाना चाहे वो करवा लें। लेकिन इसके साथ ही जैन यह भी जोड़ देते हैं कि ऐसे हालात में बीमार लोगों का नंबर कई दिनों बाद ही आ पाएगा। जाहिर-सी बात है कि तमाम सुविधाओं और तैयारियों का दावा करने वाली सरकार नहीं चाहती कि टेस्ट की संख्या बढ़े और यह सोच देश के ज्यादातर राज्यों को लुभाने लगी है। नो टेस्ट नो कोरोना और राष्ट्रीय लिस्ट में अपने राज्य का नाम नीचे होना।
कोरोना आंकड़ों को देखने का चश्मा बदलना चाहिए
हर मुद्दे पर लगातार हो रही राजनीति के बीच कोई भी राज्य सरकार यह नहीं चाहती है कि मरीजों की संख्या में वो नंबर वन पर रहे। राज्य मुख्यालय का यह दबाव जिला मुख्यालयों तक पहुंचता है और फिर आम आदमी की मुसीबतें शुरू हो जाती हैं। परिवार में कोई कोरोना से मर गया लेकिन फिर भी उनके साथ एक ही घर में रहने वाले लोगों का टेस्ट नहीं हो रहा। कोरोना से किसी की मौत हो गई लेकिन उसकी पत्नी और बच्चों का टेस्ट नहीं होगा। गाइडलाइन के नाम पर लोगों को एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल तक दौड़ाया जा रहा है। गर्भवती महिलाओं तक को एडमिट नहीं किया जा रहा है। दिल्ली सरकार ने आंकड़ों को कम करने के इसी दबाव में बाहरियों के इलाज पर प्रतिबंध लगा दिया था। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि कोरोना आंकड़ों को देखने का चश्मा बदला जाए ताकि राज्यों पर दबाव कम हो और वो ज्यादा से ज्यादा मरीजों का कोरोना टेस्ट कर सकें।
कोरोना मरीजों की बजाय कोरोना से मरने वालों की संख्या को बनाया जाए आधार
कोरोना मरीजों की संख्या और इससे मरने वाले लोगों की संख्या के आधार पर महाराष्ट्र पहले स्थान पर है। लेकिन मरीजों की संख्या के आधार पर दूसरे नंबर पर आने वाला तमिलनाडु मृतकों की संख्या के आधार पर लिस्ट में छठे नंबर पर आता है। जाहिर है कि तमिलनाडु ज्यादा कोरोना पीड़ितों की जान बचा पा रहा है और इसके लिए उसकी तारीफ तो करनी ही चाहिए। मरीजों की संख्या के आधार पर लिस्ट में पांचवें नंबर पर आने वाला उत्तर प्रदेश मृतकों के मामले में सातवें नंबर पर आता है, यानि यहां भी ज्यादातर मरीजों की जान बचाई जा रही है। कम टेस्ट और आंकड़ों का यह खेल पश्चिम बंगाल के उदाहरण से और स्पष्ट हो जाएगा। कोरोना मरीजों की संख्या के आधार पर पश्चिम बंगाल राज्यों की लिस्ट में आठवें नंबर पर आता है लेकिन मृतकों की संख्या के आधार पर देखेंगे तो यह चौथे नंबर पर नजर आ रहा है।
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मतलब साफ है कि खेल हो रहा है और इसे बदलने के लिए अब चश्मे को भी बदलने की जरूरत है। टेस्ट की गाइडलाइन को बदला जाए, जिसमें भी इसके लक्षण पाए जाएं उनका तुरंत बिना किसी रोक-टोक के टेस्ट किया जाए। जो भी कोरोना मरीजों के संपर्क में आता है, अगर वो भी अपना टेस्ट करवाना चाहे तो होने दिया जाए। राज्यों की रैंकिंग कोरोना मरीजों की संख्या के आधार पर करने की बजाय कोरोना मृतकों की संख्या के आधार पर की जाए। ज्यादा मरीजों की संख्या होना, राज्य सरकार की लापरवाही नहीं मानी जाए बल्कि ज्यादा लोगों के मरने को सरकार की विफलता माना जाए।
कम टेस्ट करने के किसी भी सरकारी तर्क को जायज नहीं माना जाना चाहिए। यह स्थिति असाधारण है तो क्या इसमें सिर्फ कुर्बानी आम जनता को ही देनी होगी। सरकार आगे आए और टेस्ट की सुविधा को सर्वसुलभ तो करे ही साथ ही इसे महाराष्ट्र की तर्ज पर सस्ता भी करे।
-संतोष पाठक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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